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बायोमैट्रिक पहचान का प्रावधान हटा कर लागू हो आधारः ज्यां द्रेज़

हमें फॉलो करें बायोमैट्रिक पहचान का प्रावधान हटा कर लागू हो आधारः ज्यां द्रेज़
, शुक्रवार, 10 नवंबर 2017 (11:06 IST)
- रेहान फ़ज़ल
दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स को भारत में परंपरावादी आर्थिक विचारधारा का गढ़ माना जाता है। इसकी चहारदिवारी से कई दिग्गज समाज शास्त्री और अर्थशास्त्री जैसे आंद्रे बेते, प्रोफ़ेसर जेपीएस ओबेरॉय, डॉक्टर अमर्त्य सेन और मनमोहन सिंह जैसे लोग निकले हैं।
 
उसी कड़ी में एक और नाम है 1959 में बेल्जियम में जन्मे लेकिन भारत को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले ज्यां द्रेज। दुबले पतले, लंबे गोरी चमड़ी के ज्यां इस समय राँची विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हैं। एसेक्स विश्व विद्यालय से गणितीय अर्थशास्त्र पढ़ने वाले ज्यां द्रेज 1979 में भारत शोध करने आए थे। लेकिन इसके बाद भारत उन्हें इतना भाया कि वो यहीं के हो कर रह गए और 2002 में उन्होंने यहाँ की नागरिकता ले ली।
 
झोलावाला इकॉनॉमिक्स फ़ॉर एवरीवन
वैसे तो ज्यां द्रेज कई किताबें लिख चुके हैं लेकिन आज कल वो अपनी नई किताब "सेंस एंड सॉलिडेरिटी-झोलावाला इकॉनॉमिक्स फ़ॉर एवरीवन" की वजह से काफ़ी चर्चा में हैं। पिछले दिनों जब वो बीबीसी स्टूडियो आए तो हमने उनसे पहला सवाल यही पूछा कि 'झोलावाला' से आपका क्या तात्पर्य है?
 
ज्यां ने मुस्कराते हुए बताया, "आज के कॉरपोरेट प्रधान मीडिया में झोलावाला एक तरह की गाली है जो कि उन कार्यकर्ताओं के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो कल्याणकारी राज्य, न्यूनतम वेतन, मानवाधिकार, पर्यावरण नियंत्रण और सूचना के अधिकार की बात करते हैं। इन लोगों का मानना है कि ये तथाकथित झोलावाले हमेशा सरकार से मुफ़्त में ख़ैरात लेने की फ़िराक में रहते हैं और बाज़ार प्रधान अर्थव्यवस्था को हिकारत की नज़र से देखते हैं।"
 
तो क्या ये माना जाए कि ये "झोला वाले" विचारधारा के स्तर पर निजी और औद्योगिक क्षेत्र के पूरी तरह से ख़िलाफ़ है?

ज्यां द्रेज बताते हैं कि वो निजी तौर से कुछ हाथों में आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण के ख़िलाफ़ हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वो निजी कारोबार के ख़िलाफ़ हैं। लेकिन अगर कॉरपोरेट जगत ये सोचता है कि समाज के प्रति उसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है, तो ये उसकी बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी है, जिसे सही किया जाना चाहिए।
 
शोध करने आए थे, फ़िर लौट कर नहीं गए
अक्सर देखा गया कि भारत में जन्म लेने वाले कई बड़े अर्थशास्त्री विदेश में जा कर अपनी पढ़ाई और शोध करते हैं लेकिन ज्यां द्रेज इस मामले में थोड़े भिन्न हैं कि वो विदेशी हो कर भारत में शोध करने आए और फ़िर यहाँ से वापस अपने देश नहीं गए।
 
ज्यां द्रेज कहते हैं कि उन्हें बचपन से ग़रीबी से जुड़े हुए मुद्दों में दिलचस्पी थी और उनका अध्ययन करने के लिए भारत से बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती थी। जब मैं यहाँ आया था तो मैंने ये नहीं सोचा था कि मैं यहाँ हमेशा के लिए रुकूँगा। लेकिन जब मुझे लगा कि मुझे यहाँ शोध के अलावा पब्लिक एक्शन का भी मौका मिल रहा है, तो मैंने यहाँ रुक कर उन लोगों के बीच कुछ काम करने की ठान ली जिनको मेरी ज़रूरत थी और सच बताउं, मुझे इसके लिए अनुकूल वातावरण भी मिला।
 
"विकास और ग़रीबी उन्मूलन एक ही बात"
भारत में अर्थशास्त्री दो ख़ेमों में बंटे हुए हैं। एक वर्ग सिर्फ़ विकास की बात करता है तो दूसरे वर्ग का ज़ोर असमानता और ग़रीबी उन्मूलन की तरफ़ है। क्या दोनों वाकई अलग अलग सोच है या इन दोनों के बीच कोई 'मीटिंग ग्राउंड' निकल सकता है?
 
ज्यां द्रेज कहते हैं, "मैं नहीं समझता कि विकास और ग़रीबी उन्मूलन दो अलग अलग ख़ेमे हैं, क्योंकि विकास अर्थशास्त्री भी ग़रीबी हटाना चाहते हैं और ग़रीबी उन्मूलन वाले भी मानते हैं कि विकास से ग़रीबी कम हो सकती है। असली मुद्दा ये है कि क्या सिर्फ़ विकास के सहारे ग़रीबी को जड़ से हटाया जा सकता है? या विकास के अलावा पब्लिक एक्शन या दूसरे साधनों से भी आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन किया जा सकता है?"
 
"आमदनी से विकास को नहीं देखा जाना चाहिए"
लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है। क्या ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रमों की सफलता के लिए ये ज़रूरी नहीं है कि देश का विकास हो?

ज्यां द्रेज का मानना है कि विकास से इस तरह के कार्यक्रमों में मदद ज़रूर मिलती है। अगर भारत का आर्थिक विकास नहीं हुआ होता तो रोज़गार गारंटी योजना, सार्वजनिक वितरण प्रणाली या मिड डे मील प्रणाली को उस तरह की महत्ता नहीं मिलती, जो कि उन्हें मिली।

ये योजनाएं कुछ हद तक सफल इसलिए हो पाईं, क्योंकि इनके कार्यान्वयन के लिए साधन मौजूद थे। भारत में जीडीपी और करों का अनुपात अभी भी बहुत कम है, लेकिन अर्थव्यवस्था बढ़ रही है और इसकी वजह से इस तरह के कार्यक्रमों को लागू करने में मदद मिल रही है।
 
ज्यां द्रेज कहते हैं कि विकास को सिर्फ़ आमदनी बढ़ने के मापदंड से ही नहीं देखा जाना चाहिए। इसके पीछे कहीं न कहीं ये सोच भी होनी चाहिए कि हमें एक बेहतर समाज का निर्माण करना है, खास तौर से उस समय जब आज के समाज को कई समस्याओं, जैसे परमाणु हथियारों, मौसम परिवर्तन, युद्ध और हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति से दोचार होना पड़ रहा है। उन की समझ में नीतिगत उत्थान को विकास के एक औज़ार के रूप में देखा जाना चाहिए।
 
"मिड डे मील जाति पूर्वाग्रह हटाने में सहयोगी"
ज्यां द्रेज ने मिड डे मील योजना पर बहुत शिद्दत से काम किया है। एक बहुत बड़ा सवाल उठता है कि क्या इस योजना से ग्रामीण भारत में जाति पूर्वाग्रह को दूर करने में मदद मिली है?
 
उनका मानना है कि जाति ने भारतीय समाज के ज़हन में इस हद तक घर कर रखा है कि उसे सिर्फ़ मिड डे मील जैसी योजना के सहारे ही जड़ से नहीं मिटाया जा सकता। लेकिन इससे इस दिशा में मदद ज़रूर मिल सकती है, क्योंकि अगर बच्चे बचपन से ही मिलजुल कर साथ खाना खाने का आदत डाल लें तो इससे जाति पूर्वाग्रह दूर हो सकते हैं।
 
"अकेले सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं"
क्या भारत में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की अकेली ज़िम्मेदारी सरकार की ही होनी चाहिए?
ज्यां द्रेज कहते हैं, "हरगिज़ नहीं। इसलिए मैंने बार बार पब्लिक एक्शन शब्द का इस्तेमाल किया है। मिड डे मील योजना का ही उदाहरण ले। शुरू में इसका सरकार की ओर से काफ़ी विरोध हुआ। फिर अदालतों, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों और आम लोगों को संगठित कर इस योजना को आगे बढ़ाया गया।" 
 
आधार परियोजना को ले कर भी पूरे भारत में परस्पर विरोधी राय है। इसका विरोध करने वालों की सूची में ज्यां द्रेज का भी नाम प्रमुख है।
 
आधार के वर्तमान अवतार का विरोध
ज्यां कहते हैं, "मैं आधार के सभी पहलुओं से असहमत नहीं हूँ। मैं इसके वर्तमान अवतार का विरोध करता हूँ। अभी आधार की जो पूरी अवधारणा है, उसमें ज़बरदस्ती का पुट अधिक है और ये आम नागरिक की निजता का सम्मान भी नहीं करता।"
 
वो कहते हैं, "अगर इस कार्ड को एक वैकल्पिक पहचान पत्र के रूप में इस्तेमाल किया जाए, तो मुझे शायद इतनी आपत्ति नहीं होगी। लेकिन अलग अलग संदर्भों में इसके इस्तेमाल को थोपने का मैं विरोध करता हूँ।"
 
उन्होंने आगे कहा, "मेरी आपत्ति इस बात पर भी है कि आधार कार्ड न रखने वाले लोगों को सरकार की सार्वजनिक योजनाओं का हिस्सा नहीं बनाया जाएगा।"....लेकिन ये पूछे जाने पर कि पश्चिमी देशों में भी कमोबेश इस तरह के पहचान पत्रों की व्यवस्था है?
 
ज्यां द्रेज कहते हैं, "ये बात सही है, लेकिन इन देशों में भी आधार जैसे कड़े प्रावधान नहीं है और मैं नहीं समझता कि कोई भी प्रजातांत्रिक देश इस तरह ज़बरदस्ती लागू की गई योजना को स्वीकार करेगा।"
 
यह एक आदर्श स्थिति नहीं
अब चूँकि इस योजना में इतना निवेश किया जा चुका है, इसे सिरे से वापस लेना संभवत: किसी सरकार के लिए इतना आसान नहीं होगा। इसमें ऐसे क्या सुधार किए जाएं, जिससे इसकी स्वीकार्यता बढ़ सके?
 
ज्यां द्रेज का जवाब है, "मैं नहीं कह रहा कि आप इसे पूरी तरह से वापस लीजिए। शुरू में आधार का यह कह कर प्रचार किया गया कि ये पूरी तरह से स्वैच्छिक सुविधा है। इसको इसी रूप में लागू किया जाना चाहिए। अगर इससे बायोमैट्रिक पहचान का प्रावधान भी हटा दिया जाए, तो इससे कई समस्याओं का समाधान हो जाएगा। किसी भी प्रजातंत्र में इस बात की संभावना कि निजी रिकॉर्ड्स पर सरकार किसी तरह की निगरानी रख सकती है, एक आदर्श स्थिति नहीं है।"

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