- सबा नक़वी (वरिष्ठ पत्रकार)
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने घोषणा की है कि बीजेपी अगले 50 सालों तक शासन करेगी। ऐसा साहस और ऐसी आक्रामकता ही अमित शाह की पहचान है जिनका ख़ौफ़ सिर्फ़ विपक्ष में ही नहीं, पार्टी के पुराने नेताओं में भी है।
वैसे कामकाजी अंदाज़ में शाह, भाजपा के पहले 10 अध्यक्षों से अलग हैं। 1980 में बनी भारतीय जनता पार्टी के पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी समेत सभी अध्यक्षों से मेरी मुलाकात हुई है। पार्टी के आस्तित्व के 18 साल तक यानी 1998 तक वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी थे जिन्होंने बारी-बारी पार्टी अध्यक्ष पद को संभाला।
जब पहली बार एनडीए सरकार सत्ता में आई, तो आरएसएस के फुलटाइमर जैसे कुशाभाऊ ठाकरे, जन कृष्णमूर्ति, बंगारू लक्ष्मण आरएसएस के आशीर्वाद से पार्टी अध्यक्ष बने। इसके पीछे विचार यह था कि दिग्गज लोग सरकार और राजनीति संभालेंगे और ये लोग पार्टी और संगठन के बीच एक कड़ी का काम करेंगे।
आरएसएस का आशीर्वाद
नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह ऐसे दो अध्यक्ष रहे जिन्होंने राजनीति और संगठन दोनों को संभाला। राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। वैसे इन दोनों को आरएसएस का समर्थन हासिल था और वे नागपुर की बात को मानते भी थे। लेकिन अमित शाह अलग हैं। वे प्रधानमंत्री का आदेश चलाते हैं और उनके अपने फ़ैसलों का वज़न भी खूब है। संघ भी उनकी बात मानता है क्योंकि शाह-मोदी की सत्ता का सबसे ज़्यादा फ़ायदा संघ को ही मिला है।
भाजपा के ऐतिहासिक रूप से दो सबसे महत्वपूर्ण नेता, वाजपेयी और आडवाणी को भी शासनकाल के दौरान संघ के साथ कई बार तनाव और असहमति देखनी पड़ी थी। लेकिन अब अगर कोई असंतोष या मतभेद हैं भी तो वे सार्वजनिक नहीं हैं। लोग अमित शाह से डरते हैं और मुखर माने जाने वाली भाजपा आज संगठित है जो अपने अध्यक्ष के कहने पर चलती है। वाजपेयी और आडवाणी का कार्यकर्ताओं ने अलग तरीकों से सम्मान किया लेकिन उनसे किसी को डर कभी नहीं था।
नंबर दो की हैसियत
भाजपा की हालिया राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने इस बात को और पुख़्ता कर दिया कि शाह को भाजपा का सबसे शक्तिशाली अध्यक्ष माना जा सकता है। वह न केवल रणनीतिकार हैं, बल्कि वे हर राज्य में प्रचार भी करते हैं। उनकी हैसियत प्रधानमंत्री के बाद नंबर दो की है।
वैसे जिस तरह से वह सार्वजनिक रैलियां करते हैं उससे पता चलता है कि वे खुद को एक रणनीतिकार से ज़्यादा समझते हैं। वे जन नेता होने की महत्वाकांक्षा रखते हैं लेकिन उनकी ताक़त है नरेंद्र मोदी का उन पर निर्भर होना। इन दोनों लोगों की किस्मत एक दूसरे से जुड़ी हुई है। यह भी कहा जा सकता है कि कोई एक दूसरे के बिना चल नहीं पाएगा।
ऐसा पार्टी में पहली बार है कि सत्ता का केंद्र अध्यक्ष के पास है। उनको चुनौती देने वाला कोई दूसरा पावर सेंटर नहीं है। अमित शाह को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि वे हर वक्त काम करते हैं और विपक्ष को संभालने की हर रणनीति जानते हैं। गुजरात में भी उन्हीं के वक्त में ये सामने आया था कि वो एक बढ़िया चुनाव प्रबंधक हैं, जिनकी विशेषता थी भाजपा के विरोधियों के सामने छोटी पार्टियों और निर्दलीय उम्मीदवारों को खड़ा करना जिसके नतीजतन विपक्ष के वोट कट जाते थे।
पैसे की ताक़त
गुजरात की रणनीति को भारत के बाक़ी हिस्सों में भी सफलता के साथ लागू किया गया है और मोदी-शाह के राज में भाजपा ऐतिहासिक रूप से देश की सबसे धनी पार्टी (चुनाव आयोग को प्रस्तुत आंकड़ों के मुताबिक) के रूप में उभरी है।
सहयोगी पार्टियों को जब ज़रूरत हो तो फंड कर दिया जाता है, साथ ही कार्यकर्ता और राजनीतिक विस्तार के लिए धन की कमी नहीं पड़ती। राजनीति के इस क्रूर मॉडल को भाजपा में लाने का श्रेय शाह को दिया जाना चाहिए। विपक्षी दलों की शिकायत रहती है कि अगर वे विरोध करते हैं तो उन्हें इन्कम टैक्स और ईडी की धमकी दी जाती है।
पर ताक़त और पैसे की भी सीमा होती है क्योंकि शाह की कर्नाटक में सरकार बनाने की योजना नाकाम हो गई। वहां भाजपा को बहुमत नहीं मिला था और कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर सरकार बना ली।
असली परीक्षा
शाह ने पिछले साल इस बात की भी पूरी कोशिश की कि सोनिया गांधी के विश्वस्त अहमद पटेल गुजरात से राज्यसभा सीट न जीत पाएं क्योंकि पटेल भी आर्थिक तौर पर इसका तोड़ निकाल पाने में सक्षम थे।
शाह हिंदू-मुस्लिम मुद्दों को इस तरह उठाने में माहिर है कि जातिगत मतभेद को ख़त्म कर विरोधियों के ख़िलाफ़ एकता बनाई जा सके। 2014 चुनावों के दौरान भी एक विशेष चुनावी ट्रैकर का इस्तेमाल किया गया जिससे उत्तर प्रदेश की हर सीट का आकलन वहां के 'भावनात्मक मुद्दों' के मुताबिक़ किया गया था। उस वक्त उत्तर प्रदेश के प्रभारी अमित शाह ही थे। उत्तर प्रदेश में बीजेपी के पक्ष में आए अविश्वसनीय परिणाम ने बता दिया कि नरेंद्र मोदी की सफलता की कुंजी अमित शाह हैं।
अर्थव्यवस्था की हालत और मोदी सरकार के अधूरे वादों के मद्देनज़र अमित शाह की ऊर्जा अब विपक्ष को विभाजित रखने में जाएगी। आने वाले साल 2019 में शाह की क्षमताओं की असल परीक्षा होगी कि वे 'मोदी प्रयोग' को अगले स्तर तक पहुंचा पाते हैं या नहीं। छोटी पार्टियों को ऐसे धमकाना और प्रबंधित करना कि विपक्षी एकता का सूचकांक वैसा ही रहे जैसा 2014 में था और जिसने भाजपा को 31 प्रतिशत वोट के साथ बहुमत दिया।
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)