कुमार हर्ष, बीबीसी हिंदी के लिए
नियति के खेल सचमुच निराले होते हैं। आज से पंद्रह साल पहले रिलीज हुई फिल्म 'ससुरा बड़ा पईसा वाला' ने तब तक अपने सुनहरे अतीत की छाया भर रह गई भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री को नई उछाल दे दी थी। अरसे बाद मनोज तिवारी की शक्ल में गायक-नायक यानी सिंगर-हीरो का चलन लौट आया था।
धड़ल्ले से बन रही भोजपुरी फिल्मों में बॉलीवुड के शहंशाह सहित नामी अभिनेता और टीनू वर्मा जैसे ख़ालिस बम्बइया मेकर भी शामिल हो गए थे और अचानक दिनेश लाल यादव निरहुआ, गुड्डू रंगीला, खेसारी लाल यादव और पवन सिंह जैसे तमाम स्टार्स की पौध उग आई थी।
इस कतार में एक नाम रविकिशन का भी था जो मनोज तिवारी और निरहुआ के साथ मिलकर भोजपुरी की स्टार त्रिमूर्ति रचते थे। अलबत्ता एक मामले में वे अपने दोनों साथियों से एकदम अलग थे।
दूसरों की तरह वे महज़ भोजपुरी सिनेमा के उत्पाद नहीं थे बल्कि मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा के एक मशहूर और समर्थ अभिनेता थे। इतने समर्थ कि जिस साल 'ससुरा बड़ा पईसा वाला' रिलीज होकर भोजपुरी सिनेमा की कामयाबी का सुनहरा राजमार्ग बना रही थी उसी साल झील सी गहरी आंखों वाले इस अभिनेता को फिल्म 'तेरे नाम' के लिए सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्रदान किया गया था।
उन्हें भोजपुरी में मनोज तिवारी और निरहुआ जैसी शानदार और लगातार सिल्वर जुबिलियां भले न हासिल हुई हों मगर उन्हें भोजपुरी फिल्मों में भी वो मुकाम हासिल हुआ जो इन दोनों सुपर स्टार्स को नही मिला। 2005 में आई उनकी भोजपुरी फिल्म 'कब होई गवनवा हमार' को सर्वश्रेष्ठ क्षेत्रीय फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी हासिल हुआ।
तो इस तरह वे इकलौते ऐसे अभिनेता बने जिन्हें एक साथ हिंदी और भोजपुरी की राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्राप्त फ़िल्मों का हिस्सा होने का गौरव मिला।
मनोज तिवारी ने किया रास्ता प्रशस्त!
आमतौर पर उन्हें थोड़े बड़बोले और 'एटीट्यूड' वाले अभिनेता के बतौर शुमार किया जाता है मगर वे सच को स्वीकार करने और उसे कहने का साहस रखने वाले गिने चुने कलाकारों में से एक हैं।
कुछ साल पहले भोजपुरी सिनेमा के पचास साल पूरे होने के मौके पर हुई बातचीत में उन्होंने मुझसे बिना लाग लपेट कहा था- 'भोजपुरी के नए स्वर्ण काल की शुरुआत का श्रेय बेशक मनोज को ही जाता है। हम लोग तो कर ही रहे थे लेकिन नया दौर और नया रास्ता तो वही लेकर आये।'
और किस्मत देखिये कि एक बार फिर मनोज तिवारी ने ही राजनीति और सत्तारूढ़ दल के टिकट का एक ऐसा रास्ता बनाया है जिस पर निरहुआ और रवि किशन दोनों शान से निकल पड़े हैं। निरहुआ आजमगढ़ सीट पर एक पूर्व मुख्यमंत्री के ख़िलाफ खड़े हैं तो वहीं रविकिशन मौजूदा मुख्यमंत्री की गोरखपुर सीट पर उत्तराधिकारी के बतौर मैदान में उतर आए हैं।
बी ग्रेड फिल्म से शुरुआत
उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले की केराकत तहसील के एक गांव बरई बिसुयी-शुक्लान पट्टी के ब्राह्मण परिवार में जन्में पचास वर्षीय रवि किशन शुक्ला ने बचपन में सोचा भी नहीं था कि वे फिल्मों में काम करेंगे।
सोचते भी कैसे? गांव की रामलीला में सीता का रोल करने पर पुरोहित पिता श्याम नारायण शुक्ल से एक तमाचा खा चुके थे। लेकिन कॉमर्स की पढ़ाई करने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय गए शुक्ला जी के भीतर अभिनय के कीटाणुओं को सही माहौल मिल गया।
हालांकि उनका फिल्मी सफर 1992 में आई एक बी ग्रेड फिल्म 'पीताम्बर' से शुरू हुआ था और तकरीबन एक दशक तक उनका करियर हिचकोलों भरा ही रहा मगर 2003 में आई फिल्म 'तेरे नाम' ने उन्हें नई पहचान दे दी।
दरअसल इस फिल्म ने तब नाकामी से जूझते सलमान खान को भी एक नई उछाल दी थी। इस फिल्म में रविकिशन ने रामेश्वर नाम के किरदार में ऐसा सम्मोहक अभिनय किया जिसने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार उनकी झोली में डाल दिया और उनका करियर चल निकला। अब तक वे हिंदी भोजपुरी और दक्षिण भारतीय भाषाओं की 116 से ज्यादा फिल्में कर चुके हैं और सफर अभी जारी है।
2006 में वे मशहूर रियलिटी शो 'बिग बॉस' में नजर आये और अपने भोजपुरी अंदाज और 'अद्भुत' या फिर 'बाबू' और 'जिन्दगी झंड बा, तब्बो घमंड बा' जैसे जुमलों के चलते इतने मकबूल हुए कि प्रतियोगिता के आखिरी तीन प्रतिभागियों में एक वे भी थे। बाद में उन्होंने जी टीवी के 'एक से बढ़कर एक जलवे सितारों के' और 'बाथरूम सिंगर' जैसे रियलिटी शोज में बतौर प्रस्तोता भी काम किया।
इमोशनल किस्सा
भोजपुरी सिनेमा से उनके सक्रिय जुड़ाव का किस्सा बहुत इमोशनल है। 1996 में वे शाहरुख खान अभिनीत फिल्म 'आर्मी' कर रहे थे। एक दिन सेट पर किसी बड़ी शख्सियत ने भोजपुरी को दरिद्रों की भाषा कह दिया। 'दिल पर चोट लग गई बाबू। उसी दिन से कसम खाए कि अपनी भाषा के लिए कुछ करके दम लेंगे।'
उन्होंने किया भी। विदेशों में कम पैसे में स्टेज शो से लेकर नामचीन अभिनेत्रियों को कम पैसे में भोजपुरी फिल्में करने के लिए मिन्नतें करने तक।
2014 में अचानक वे राजनीति में आ गए और कांग्रेस के टिकट पर अपनी पैतृक सीट जौनपुर से चुनाव भी लड़े पर उन्हें केवल 42759 वोट मिले और वे हार गए। 2017 में उन्होंने नरेन्द्र मोदी से प्रभावित होकर भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली।
तीन बेटियों और एक बेटे के पिता रवि किशन मोदी के अलावा लालबहादुर शास्त्री से बहुत प्रभावित हैं। वे कहते हैं, 'गांव की जमीन से निकल कर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी क़ाबिलियत और जुझारूपन का जैसा परिचय उन्होंने दिया वो बहुत प्रेरित करता है।' अब मोदी की भी यही ख़ासियत उन्हें मोहित करती है।
कभी उन्होंने कहा था- 'लम्बे समय तक एकाग्रचित्त होकर अपने लक्ष्य के बारे में सोचिये तो कुछ भी असंभव नहीं रह जाता।' उनकी ज़िंदगी का सफर इस बात पर तस्दीक की मुहर-दर-मुहर लगाता नजर आता है'।