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जागरूक पाठक ही बच सकते हैं फर्जी समाचारों से

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शरद सिंगी

चुनावों के दौरान प्रत्येक दल में मीडिया मैनेज करने की जिम्मेदारी अनुभवी लोगों को दी जाती है। पहले जब केवल प्रिंट मीडिया (अखबार) हुआ करता था तब हम जानते हैं कि अखबारों में पैसे देकर खबरें छपवाई जाती थीं। कभी किसी उम्मीदवार के पक्ष में हवा बनाना हो या फिर सही या गलत आरोप मढ़ने हों, तो धन काम करता था।
 
बाद में जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आया तब उस पर भी गंभीर आरोप लगे कि वह भी समय के साथ पेड न्यूज की दौड़ में शामिल हो गया। धीरे-धीरे जनता को समाचारों की सत्यता में धन का प्रभाव समझ में आने लगा और वह सही और गलत के बीच का भेद समझने लगी। इन फर्जी खबरों पर सरकार की ओर से भी कुछ सख्ती हुई है। 
 
किंतु जबसे जनता के हाथ में सोशल मीडिया की कुंजी आई है, तब से तो फर्जी खबरों की तो जैसे बाढ़ ही आ गई है। फेसबुक और व्हाट्सएप ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से जो एक सोशल नेटवर्क बनाया है, उसे निश्चित ही हम आधुनिक युग की एक क्रांति कहेंगे।
 
जैसा कि होता है कि हर आविष्कार के दो पहलू होते हैं। इन दोनों प्लेटफॉर्म्स ने रिश्तों के बीच की दूरियों को समाप्त करने के साथ ही साथ उपयोगकर्ता को अपनी बात रखने का एक सुलभ मंच दिया है, वहीं दूसरी ओर इसके दुष्परिणाम भी सामने दिखने लगे।
 
यद्यपि इस आलेख में इनके फायदे या नुकसान चर्चा का विषय नहीं हैं, क्योंकि जो भी लोग इन माध्यमों का इस्तेमाल करते हैं, वे सब इनके गुण-दोषों से परिचित हैं। चर्चा का विषय यहां यह है कि किस तरह इस मंच को फर्जी न्यूज फैलाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है विशेषकर चुनावों के दौरान।
 
आरंभ में कुछ लोग आनंद लेने के लिए, तो कुछ अपने विचारों को मजबूती देने के लिए फर्जी समाचारों को फैलाने लगे थे। किंतु इस माध्यम की लोकप्रियता देखकर तो पहले तो राजनीतिक दल और बाद में कुछ देशों के खुफिया विभाग भी इसमें कूद गए हैं। फर्जी समाचारों की प्रस्तुति ऐसी हो कि वह असली खबर ही लगे इसलिए किसी भी फर्जी खबर के साथ गूगल में उपलब्ध किसी अन्य फोटो को चिपकाकर या उसे एडिट कर नैसर्गिक बनाने का प्रयास किया जाता है।
 
गूगल की वजह से आज दुनियाभर के फोटो इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। यदि पाठकों को स्मरण हो तो किस तरह पाकिस्तान ने कश्मीर में अत्याचारों की झूठी खबर को सच बनाने के लिए फिलिस्तीन की एक लड़की का फोटो गूगल में से निकालकर संयुक्त राष्ट्र संघ में दिखा दिया था व बाद में झूठ पकड़े जाने पर पाकिस्तान की बहुत किरकिरी भी हुई थी।
 
तीन वर्ष पूर्व अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों के दौरान भी अनेक तरह के झूठे समाचार सोशल मीडिया में चलाए गए। कुछ लोगों का आरोप है कि इसके पीछे रूस का हाथ था, जो ट्रंप को राष्ट्रपति के रूप में देखना चाहता था। जब अमेरिका तक में इन फर्जी समाचारों पर नियंत्रण नहीं हो सका तो भारत के पास तो इतना धन ही नहीं है इन्हें रोकने के लिए। यह संभव नहीं कि सरकार एक बहुत बड़ा विभाग बना दे इन पर नियंत्रण करने के लिए।
 
भारतीय चुनावों में दो ऐसे बाहरी पक्ष हैं, जो चुनावों के नतीजों को अपने पक्ष में देखना चाहेंगे। एक है पाकिस्तान और दूसरा हथियारों का आपूर्ति करने वाला अंतरराष्ट्रीय माफिया जिस पर वर्तमान सरकार ने लगाम लगा रखी है।
 
आप देख सकते हैं कि पाकिस्तान की ओर से पहला प्रोपेगंडा F-16 पाकिस्तान के लड़ाकू विमानों को लेकर था। अमेरिका की एक ख्यात मैगजीन में झूठी खबर छपवाई गई कि पाकिस्तान का कोई विमान नहीं गिरा। मजे की बात यह है कि बिना सच्चाई जाने भारत का मीडिया भी उसके फेर में पड़ गया और उसने भी इस खबर को प्रमुखता दे दी।
 
कुछ विपक्षी पत्रकारों ने तो हद कर दी, जब उन्होंने इस रिपोर्ट का हवाला देकर विदेशी अखबारों में लेख लिख डाले। अब इस झूठी खबर के पीछे यही मकसद था कि भारत की सेना और भारत की वर्तमान सरकार को झूठा साबित किया जाए। ऐसा कौन कर सकता है? या तो वे लोग जो वर्तमान सरकार को वापस नहीं आते देखना चाहते या हथियारों के वे दलाल जिनके हितों को सरकार की वर्तमान नीतियों से नुकसान पहुंचा है।
 
सोशल मीडिया के लोकप्रिय होने के बाद जैसा कि हमने देखा कि बाहरी शक्तियां बहुत आसानी से हमारी व्यवस्था में खलल पैदा कर सकती हैं। विशेषकर यदि फर्जी समाचार बाहरी शक्तियों द्वारा प्रायोजित हैं तो जरूरी है कि जनता ऐसे समाचारों से सावधान रहे और समाचारों में असली और फर्जी का भेद करना सीख ले।

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