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2019 में हारी सीटों पर बीजेपी कर रही फोकस, क्या है पार्टी का मक़सद?

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, गुरुवार, 8 सितम्बर 2022 (08:14 IST)
सरोज सिंह, बीबीसी संवाददाता
यूं तो साल 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों को बीजेपी के लिहाज़ से तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहला: वो दस राज्य जिसमें बीजेपी ने लोकसभा की सारी सीटें जीती थीं जैसे गुजरात और राजस्थान। दूसरा: वो ग्यारह प्रदेश जहां बीजेपी एक भी सीट नहीं जीत पाई जिसमें केरल और तमिलनाडु शामिल हैं। तीसरा: बाक़ी वो राज्य जहां सहयोगियों और अपने दम पर बीजेपी ने बेहतर प्रदर्शन किया जैसे महाराष्ट्र और बिहार।
 
लेकिन साल 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों को बीजेपी 'जीते या हारे गए राज्यों' के नज़रिए से नहीं देख रही है। बीजेपी का फोकस है उन 'सीटों' पर जहां 2019 में वे नंबर 2 और नंबर 3 पर रहें। ऐसी सीटों की संख्या 144 है।
 
हारी हुई सीटों पर फोकस क्यों?
बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और अमित शाह ने पार्टी के वरिष्ठ 25 मंत्रियों के साथ मंगलवार को चर्चा की।
 
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़ हारी हुई सीटों पर बीजेपी की जीत कैसे सुनिश्चित हो- इसकी ज़िम्मेदारी पार्टी ने अपने वरिष्ठ मंत्रियों को कुछ महीने पहले ही सौंपी थी। मंगलवार को उसी की रिव्यू मीटिंग थी। इनमें से किसी मंत्रियों को 2 सीटें तो किसी को 5 सीटें दी गई हैं।
 
इसके तहत हर मंत्री को इन सीटों की ज़िम्मेदारी दी गई है ताकि वो वहां जाएं और कम से कम 48 घंटे बिताएं ताकि आम जनता की नब्ज़ टटोल सकें।
 
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हारे हुए राज्यों पर फोकस न करके बीजेपी हारी हुई सीटों पर फोकस क्यों कर रही है, इसका जवाब वरिष्ठ चुनाव विश्लेषक संजय कुमार देते हैं।
 
उनके मुताबिक, "भारत में लोकसभा चुनाव अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव जैसे नहीं होते जहां राजनीतिक दलों की कोशिश पूरा राज्य जीतने की रहती है। भारत में लोकसभा चुनाव पर पार्टियां पूरे राज्य में दमखम नहीं लगाती, वो सीटों पर ज़ोर देती हैं।
 
मान लीजिए पूरे राज्य में अगर किसी पार्टी का जनाधार नहीं है, उनका केवल पांच फ़ीसदी ही वोट है। ऐसे में पार्टी पूरे राज्य में ज़ोर लगा दे और वोट प्रतिशत 12 फ़ीसदी आ भी जाए और सीटें पार्टी न जीत पाए, तो उस वोट प्रतिशत के बढ़ने का पार्टी को कोई फ़ायदा नहीं होगा।
 
इस वजह से राजनीतिक दल लोकसभा में सीटों पर फोकस करते हैं और विधानसभा चुनाव में पूरे राज्य पर फोकस करते हैं।"
 
सत्ता विरोधी लहर
साल 2024 तक पीएम मोदी को केंद्र की सत्ता में आए दस साल पूरे हो जाएंगे। ऐसे में जानकारों को लगता है कि तब होने वाले चुनाव के दौरान बीजेपी के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी लहर भी होगी।
 
हाल के दिनों में कुछ राज्यों मे बीजेपी के गठबंधन के साथियों ने उनका साथ छोड़ा है, जिनमें बिहार में जेडीयू का एनडीए गठबंधन से निकलना, पंजाब में अकालियों का बीजेपी का साथ छोड़ना और महाराष्ट्र में शिवसेना का दो गुट में विभाजन होना शामिल है। जानकारों की नज़र में इन तीनों राज्यों में बीजेपी का चुनावी समीकरण इस वजह से बिगड़ा है।
 
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वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, "सत्ता विरोधी लहर और गठबंधन के साथियों का छोड़ कर जाना- इन दोनों वजहों से बीजेपी पहले के मुक़ाबले थोड़ा चिंतित है। बीजेपी मान कर चल रही है कि इन वजहों से पिछली बार के मुक़ाबले उनकी सीटें थोड़ी कम हो सकती हैं। इस वजह से बीजेपी को इन राज्यों के नुक़सान की भरपाई कहीं और से करनी ही होगा, जिसके लिए उन्हें हारी हुई सीटों पर फोकस करना पड़ रहा है।"
 
सीएसडीएस के आंकड़ों के मुताबिक़ 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधा मुक़ाबला 190 सीटों पर हुआ था, जिसमें से बीजेपी 175 सीटों पर जीती थी और कांग्रेस 15 सीटों पर। वहीं बीजेपी 72 सीटों पर नंबर दो पर आई थी, जबकि कांग्रेस 209 सीटों पर नंबर दो रही।
 
विजय त्रिवेदी कहते हैं," बीजेपी का पहला फोकस उन 72 सीटों पर है जहां वो नंबर दो पर थी। फिर उनका फोकस नंबर 3 और नंबर 4 पोजिशन वाली सीटों पर होगा। ताकि 50-60 सीटें हारी हुई जगहों से मैनेज हो सके। ऐसा कोई पार्टी मान कर नहीं चलती कि पिछली बार की जीती हुई सभी सीटें दोबारा से पार्टी जीत ही लेगी।"
 
वैसे भी 2019 में राजस्थान, गुजरात जैसे राज्यों में बीजेपी ने लोकसभा की सारी सीटें जीतीं थी, वहां सेअपने खाते में सीटें बढ़ाने की गुंजाइश नहीं बची है।
 
ऐसे में सवाल उठता है कि महाराष्ट्र, बिहार और कुछ हद तक पश्चिम बंगाल में जिस तरह से बीजेपी की सीटें कम होने का आंकलन चल रहा है, बीजेपी आख़िर इनकी भरपाई कहां से कर पाएगी। यही वजह है कि बीजेपी का फोकस उन सीटों पर हैं जहां वो नंबर दो और नंबर तीन पर थी।
 
पर्सेप्शन की लड़ाई
हालांकि संजय कुमार नहीं मानते कि बीजेपी बिहार, महाराष्ट्र या पश्चिम बंगाल में पिछले दिनों हुए राजनीतिक उटापटक के बाद चिंतित है। उनके मुताबिक बीजेपी थोड़ा 'सावधान' ज़रूर हो गई है।
 
संजय कुमार बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, "राजनीति आज के दौर में पर्सेप्शन की लड़ाई हो गई है। इस लड़ाई में वैसे तो बीजेपी आगे है, लेकिन वो चार कदम और आगे रहना चाहती है।"
 
वे कहते हैं, "मंगलवार को जो चर्चा बीजेपी ने अपने मंत्रियों के साथ की, उससे पार्टी ये कॉन्फिडेंस झलकाने की कोशिश कर रही है कि जिन सीटों पर हर 2019 में जीत रहे हैं उन पर तो हमारी चिंता है ही नहीं। मेहनत हमें चुनाव जीतने के लिए नहीं बल्कि सीटों की संख्या बढ़ाने के लिए करना है। 303 तो हमारी झोली में है, बाकी बची सीटों को अपने पाले में लाने की कोशिश करनी है।"
 
संजय कुमार इस प्रक्रिया को 'शैडो बॉक्सिंग' के साथ जोड़ कर देखते हैं। शैडो बॉक्सिंग, मुक्केबाज़ी के खेल में अभ्यास की एक तकनीक को कहते हैं जिसमें अभ्यास के दौरान खिलाड़ी हवा में घूंसे मारता है जैसे कि कोई अदृश्य प्रतिद्वंदी सामने हो।
 
संजय कहते हैं, "हारी हुई सीटों पर फोकस करके बीजेपी एक पर्सेप्शन बनाना चाहती है कि हमारे सामने कोई है ही नहीं। विपक्षी पार्टियों को एकदम किनारे लगा दिया है। उनकी लड़ाई ख़ुद से है। सामने और कोई है ही नहीं।"
 
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क्षेत्रीय पार्टियों का साथ
हालांकि एक ओर बीजेपी 2024 की तैयारियों में जुटी है तो विपक्ष में भी हलचल तेज़ है। जिस दिन बीजेपी की बैठक चल रही थी, उसी दिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने की मुहिम पर दिल्ली में थे। राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, सीताराम येचुरी जैसे विपक्ष के कई नेताओं से उन्होंने मुलाक़ात की।
 
इसी बीच राहुल गांधी भी भारत जोड़ो यात्रा पर निकल रहे हैं , जिसमें कई आंदोलनों का हिस्सा रहे नामी ग़ैर राजनीतिक चेहरे भी साथ आ रहे हैं।
 
भारत जोड़ो यात्रा से पहले राहुल गांधी ने महँगाई और बेरोज़गारी पर दिल्ली में एक रैली का आयोजन भी किया था। ऐसी कोई पहल एनडीए खेमे में नहीं दिख रही और न ही बीजेपी में।
 
इस पर संजय कुमार 2024 के चुनाव को क्रिकेट के खेल से जोड़ते हुए कहते हैं, "बार-बार एक ही पिच पर खेलते रहने से पिच ख़राब हो जाती है। ऐसे में कई अच्छे बॉलर और बैट्समैन भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पातें क्योंकि पिच ही ख़राब होती है।"
 
"बीजेपी ने 2024 के चुनाव से पहले अपनी पिच ही बदल ली है। अब वो 'परिवारवाद' और 'भ्रष्टाचार' को मुद्दा बना कर अगला चुनाव लड़ने के मूड में हैं। वहीं कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां अभी भी पुराने पिच पर खेल रही हैं। इसका उदाहरण है कि राहुल गांधी आज भी 'महंगाई' और 'बेरोज़गारी' के मुद्दे पर ही रैली कर रहे हैं। बीजेपी विपक्ष की पिच पर आना ही नहीं चाहती। उनके पास अपने मुद्दे हैं। बाद के लिए बीजेपी के पास हिंदुत्व और राम मंदिर तो हैं ही।"
 
हालांकि विजय त्रिवेदी कहते हैं, "सत्ता में दस साल लंबा वक़्त होता है। बीजेपी को पिछले चुनाव में सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों और पीएम मोदी के करिश्मे का बहुत लाभ मिला था। लेकिन दस साल में उनके मंत्रियों और सांसदों ने कैसा प्रदर्शन किया, दस साल बाद जनता इसका भी हिसाब मांग सकती है। सरकार और मंत्रियों के काम भी मायने रखेंगे ही।"
 
बीजेपी को इस बात का बखूबी अहसास भी है। शायद इस वजह से अगली अग्नि परीक्षा में बीजेपी पूरी तैयारी के साथ उतरना चाहती है।

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