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क्या यूपी का मुस्लिम मतदाता 'साइकिल' छोड़ 'हाथी' पर सवार हो रहा है?

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, बुधवार, 6 दिसंबर 2017 (11:25 IST)
समीरात्मज मिश्र (लखनऊ से)
उत्तर प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बाद ये धारणा आम हो रही थी कि बहुजन समाज पार्टी का आधार अब समाप्ति की ओर है। लेकिन पहली बार अपने चुनाव चिन्ह पर निकाय चुनावों में हिस्सा लेने वाली बीएसपी ने जिस तरह का प्रदर्शन किया उसने इन धारणाओं को सिरे से ख़ारिज कर दिया।
 
पार्टी का ये प्रदर्शन तब रहा जब उसकी नेता मायावती ने प्रचार कार्यों से ख़ुद को दूर रखा। जानकारों का कहना है कि पार्टी की इस मज़बूती के पीछे उसके परंपरागत दलित मतों के साथ मुस्लिम मतों का उसकी ओर वापस आना है।
 
जानकारों का ये भी कहना है कि मुस्लिम मतदाताओं की समाजवादी पार्टी से बेरुख़ी के चलते ऐसा हुआ है। बीएसपी के नेता तो इस मामले में कोई टिप्पणी करने से बच रहे हैं, लेकिन समाजवादी पार्टी का कहना है कि वो ऐसा नहीं मानती और निकाय चुनावों में उसका प्रदर्शन संतोषजनक रहा है।
 
समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी कहते हैं, "नगर निगम में हम पहले भी बहुत मज़बूत नहीं थे, दूसरे सरकार ने धांधली भी की है ईवीएम के ज़रिए। नगर पंचायतों और नगर पालिकाओं में हमारा प्रदर्शन ठीक है। दूसरे हम विचारधारा के आधार पर समर्थन मांगते हैं, जाति और धर्म के नाम पर नहीं।"
 
लेकिन निकाय चुनावों के परिणाम जिस तरह के आए हैं इससे साफ़ नज़र आता है कि मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद बीएसपी ही रही, हालांकि कांग्रेस और सपा से भी उन्होंने परहेज़ नहीं किया। जहां तक बात नगर निगमों की है तो मेरठ और अलीगढ़ में मेयर पद पर बसपा की जीत से दलित-मुस्लिम समीकरण की चर्चा में मज़बूती दिख रही है। यही नहीं, सहारनपुर में भी बीएसपी उम्मीदवार महज़ दो हज़ार वोटों से हार गया।
 
क्यों बदल रहा है समीकरण?
दरअसल, आठ महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में मुस्लिम इलाकों में समाजवादी पार्टी को इस समुदाय का भरपूर समर्थन मिला था। हालांकि अन्य वर्गों का वोट उसे इस मात्रा में नहीं मिल सका कि वो जीत में तब्दील हो सकता। लेकिन इस बार मुस्लिम वर्ग का रुझान बीएसपी के बाद कांग्रेस की ओर दिख रहा है। नगर निगम की ज़्यादातर सीटों पर बीजेपी को या तो बीएसपी से टक्कर मिली है या फिर कांग्रेस से।
 
मेरठ में मेयर की सीट पिछले दस साल से भारतीय जनता पार्टी के पास थी। विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी उम्मीदवार रफ़ीक़ अंसारी ने बीजेपी की लहर के बावजूद पार्टी के कद्दावर नेता और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डॉ। लक्ष्मीकांत वाजपेयी को करारी शिकस्त दी थी। लेकिन मेयर के चुनाव में सपा मुक़ाबले में ही नहीं दिखी और बीएसपी सीट जीतने में क़ामयाब हो गई।
 
अलीगढ़ में भी समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार ने बीजेपी को कड़ी टक्कर दी थी लेकिन मेयर के चुनाव में बीजेपी को बीएसपी ने हराया और सपा मुक़ाबले में नहीं दिखी। वहीं सहारनपुर में संजय गर्ग समाजवादी पार्टी से विधायक चुने गए लेकिन इस बार सपा को मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन शायद नहीं मिला और पार्टी बीएसपी ने ही बीजेपी को कांटे की टक्कर दी।
 
ऐसे तमाम उदाहरण, ख़ासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िलों में हैं जहां मुस्लिम समुदाय के समर्थन के चलते बीएसपी की स्थिति काफी मज़बूत रही। हालांकि राज्य के अन्य इलाक़ों में भी उसे इस समुदाय का काफ़ी समर्थन मिला है और ये मतों और जीती गई सीटों में दिखाई भी पड़ रहा है।
 
मुस्लिम मतदाता की भूमिका
जानकार इन सब समीकरणों का सीधा अर्थ मुस्लिम मतदाताओं के रुझान में आए फ़र्क में देखते हैं। लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार परवेज़ अहमद कहते हैं, "2014 के बाद से यूपी में जिस तरह की स्थिति बनी है, उससे उसके भीतर एक भय-सा बन गया है। समाजवादी पार्टी से उसे सहानुभूति और समर्थन की उम्मीद थी लेकिन मुज़फ़्फ़रनगर दंगों और कुछ अन्य कारणों से वो भरोसा काफी हद तक टूटा है। दूसरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का वैसा ठोस वोट बैंक भी नहीं है। मुस्लिम मतदाता विवशता में बीएसपी की ओर देख रहा है और इसमें आश्चर्य नहीं कि वो आने वाले चुनावों में वो और मज़बूती से बीएसपी के साथ खड़ा दिखे।"
 
परवेज़ अहमद कहते हैं कि बीएसपी की ओर मुस्लिम मतदाताओं का य झुकाव आगे भी जारी रख सकता है क्योंकि निकाय चुनाव में इसके परिणाम काफी सकारात्मक दिखे हैं। वहीं भारतीय जनता पार्टी ऐसी किसी वोट शिफ़्टिंग को तवज्जो नहीं देती और उसे यक़ीन है कि आने वाले चुनावों में बीजेपी के मुक़ाबले कोई नहीं है।
 
पार्टी प्रवक्ता हरिश्चंद्र श्रीवास्तव कहते हैं, "निकाय चुनाव ज़्यादातर स्थानीय मुद्दों और उम्मीदवारों की व्यक्तिगत छवि पर लड़े जाते हैं। मतों का ध्रुवीकरण तो होता ही है, लेकिन आने वाले चुनावों में भी भाजपा ही जीतेगी, उसे इससे कोई ख़तरा नहीं है क्योंकि मोदी जी विकास की बात कर रहे हैं।"
 
बहरहाल, आने वाले चुनावों में क्या स्थिति बनती है ये तो समय बताएगा लेकिन इतना ज़रूर है कि बीएसपी को राजनीतिक रूप से ग़ैर प्रासंगिक बताने वालों को तो इन परिणामों से ज़रूर झटका लगा है।

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