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चंद्रशेखर आज़ाद, जिन्हें ब्रिटिश पुलिस कभी ज़िंदा नहीं पकड़ सकी

हमें फॉलो करें चंद्रशेखर आज़ाद, जिन्हें ब्रिटिश पुलिस कभी ज़िंदा नहीं पकड़ सकी

BBC Hindi

, शनिवार, 27 फ़रवरी 2021 (11:34 IST)
रेहान फ़ज़ल (बीबीसी संवाददाता, नई दिल्ली)
 
बात सन् 1925 की है। आठ डाउन पैसेंजर गाड़ी के दूसरे दर्जे के डिब्बे में अशफ़ाकउल्ला, शतीद्रनाथ बख़्शी और राजेंद्र लाहिड़ी सवार हुये। उन्हें ये काम सौंपा गया था कि वो निश्चित स्थान पर ज़ंजीर खींच कर ट्रेन खड़ी करवा दें। बाकी सात लोग: रामप्रसाद बिस्मिल, केशव चक्रवर्ती, मुरारी लाल, मुकुन्दी लाल, बनवारी लाल, मन्मथ नाथ गुप्त और चंद्रशेखर आज़ाद उसी ट्रेन के तीसरे दर्जे के डिब्बे में सवार थे। उनमें से कुछ को गार्ड और ड्राइवर को पकड़ने को काम सौंपा गया था जबकि बाकी लोगों को गाड़ी के दोनों ओर पहरा देने और ख़ज़ाना लूटने की ज़िम्मेदारी दी गई थी।
 
जिस समय गाड़ी की ज़ंजीर खींची गई, तब अंधेरा हो चला था। गार्ड और ड्राइवर को पेट के बल लिटा दिया गया और तिजोरी को ट्रेन से नीचे गिरा दिया गया। तिजोरी काफ़ी वज़नी और मज़बूत थी। हथौड़ों और छेनी से उसे तोड़ा जाने लगा। काकोरी ट्रेन डकैती में आज़ाद को छोड़कर सभी क्रांतिकारी पकड़े गए। अशफ़ाकउल्ला के हथौड़ै की मार से ये मज़बूत तिजोरी भी मुंह खोलकर अंदर का ख़ज़ाना उगलने के लिए विवश हो गई। तिजोरी में नक़द रुपए बहुत थे। इसलिए उनको गठरी में बांधा गया और क्रांतिकारियों ने पैदल ही लखनऊ की राह पकड़ी।
 
शहर में घुसते ही ख़ज़ाना सुरक्षित स्थान पर रख दिया गया। उन लोगों के ठहरने के जो ठिकाने पहले से तय थे, वो वहां चले गए। लेकिन चंद्रशेखर आज़ाद ने वो रात एक पार्क में ही बैठकर बिता दी। सुबह होते ही 'इंडियन टेली टेलीग्राफ़' अख़बार बेचने वाला चिल्लाता सुना गया कि 'काकोरी के पास सनसनीख़ेज डकैती।' इस ट्रेन डकैती से ब्रिटिश शासन बौखला गया। गुप्तचर विभाग के लोग सजग होकर उन सभी लोगों पर निगरानी रखने लगे जिनपर क्रांतिकारी होने का शक़ था।
 
47 दिन बाद यानी 26 सितंबर, 1925 को उत्तरप्रदेश के विभिन्न स्थानों पर छापे मारकर गिरफ़्तारियां की गईं। इनमें से 4 लोगों को फ़ांसी पर चढ़ा दिया गया, 4 को कालापानी में उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई गई और 17 लोगों को लंबी क़ैद की सज़ा सुनाई गई। सिर्फ़ चंद्रशेखर आज़ाद और कुंदन लाल ही पुलिस के हाथ नहीं लगे। आज़ाद को ब्रिटिश पुलिस कभी जीवित नहीं पकड़ पाई।
 
भगत सिंह को गिरफ़्तारी से आज़ाद ने बचाया
 
आज़ाद के बारे में मशहूर था कि 'उनका निशाना ज़बरदस्त था।' 17 दिसंबर, 1927 को अंग्रेज़ डीएसपी जॉन साउन्डर्स को मारने के बाद जब भगत सिंह और राजगुरु डीएवी कॉलेज के हॉस्टल की ओर भाग रहे थे, तो एक पुलिस हवलदार चानन सिंह उनके पीछे दौड़ रहा था। हॉस्टल से सारा नज़ारा देख रहे चंद्रशेखर आज़ाद को ये अंदाज़ा हो गया था कि भगत सिंह और राजगुरु ने अपनी पिस्तौल साउन्डर्स पर खाली कर दी है और उनके पास गोलियां नहीं बची हैं।
 
चंद्रशेखर आज़ाद के साथी रहे शिव वर्मा अपनी क़िताब 'रेमिनेंसेज़ ऑफ़ फ़ेलो रिवोल्यूशनरीज़' में लिखते हैं, 'ये ज़िदगी और मौत की दौड़ थी और दोनों के बीच का फ़ासला धीरे-धीरे कम होता जा रहा था। भागते हुए चानन सिंह की बाहें भगत सिंह को बस पकड़ने ही वाली थीं, लेकिन इससे पहले कि चानन सिंह ऐसा कर पाते एक गोली उनकी जांघ के पार निकल गई। वो गिर पड़े और बाद में ज़्यादा ख़ून निकल जाने से उनकी मौत हो गई। ये गोली अपनी माउज़र पिस्तौल से चंद्रशेखर आज़ाद ने चलाई थी।'
 
आज़ाद की नेहरू से मुलाक़ात
 
साल 1931 में चंद्रशेखर आज़ाद ने आनंद भवन में जवाहर लाल नेहरू से एक गुप्त मुलाक़ात की। जवाहर लाल नेहरू अपनी आत्म-कथा में लिखते हैं, 'मेरे पिता की मौत के बाद एक अजनबी शख़्स मुझसे मिलने मेरे घर आया। मुझे बताया गया कि उसका नाम चंद्रशेखर आज़ाद है। मैंने इससे पहले उसे देखा नहीं था, लेकिन दस साल पहले मैंने उसका नाम ज़रूर सुना था, जब वो असहयोग आंदोलन के दौरान जेल गया था। वो जानना चाहता था कि अगर सरकार और कांग्रेस के बीच समझौता हो जाता है, तो क्या उन जैसे लोग शांति से रह सकेंगे। उनका मानना था कि सिर्फ़ आतंकवादी तरीक़ों से आज़ादी नहीं जीती जा सकती और ना ही आज़ादी सिर्फ़ शांतिपूर्ण तरीकों से आएगी।'
 
एक और स्वतंत्रता सेनानी और हिन्दी साहित्यकार यशपाल जो उस समय इलाहाबाद में थे, उन्होंने अपनी आत्म-कथा 'सिंहावलोकन' में लिखा कि 'आज़ाद इस मुलाक़ात से ख़ुश नहीं थे, क्योंकि नेहरू ने ना सिर्फ़ आतंकवाद की उपयोगिता पर संदेह ज़ाहिर किया था, बल्कि एचएसआरए संगठन की कार्यशैली पर भी सवाल उठाये थे। हालांकि, बाद में मैं नेहरू से मिला था जो मेरे और आज़ाद के रूस जाने का ख़र्चा देने के लिए तैयार हो गए थे।'
 
जब गोरे अफ़सर ने पूछा 'हू आर यू?'
 
आज़ाद की ये आदत थी कि जब भी उनका कोई ऐसा साथी पकड़ा जाता जो उन्हें या उनके रहने के स्थान को जानता होता, तो वे अपने रहने की जगह तुरंत बदल देते थे और ज़रूरत हुई तो अपना शहर भी। शायद यही वजह थी कि अनेक लोगों द्वारा मुखबिरी होने के बावजूद भी पुलिस बरसों तक उनको नहीं ढूंढ़ पाई। नेहरू से मिलने के क़रीब एक सप्ताह बाद 27 फ़रवरी, 1931 को आज़ाद इलाहाबाद के एल्फ़्रेड पार्क में अपने साथी सुखदेवराज के साथ बैठे बात कर रहे थे कि सामने की सड़क पर एक मोटर आकर रुकी, जिसमें से एक अंग्रेज़ अफ़सर नॉट बावर और दो सिपाही सफ़ेद कपड़ों में नीचे उतरे।
 
सुखदेवराज लिखते हैं, 'मोटर खड़ी होते ही हम लोगों का माथा ठनका। गोरा अफ़सर हाथ में पिस्तौल लिए सीधा हमारी तरफ़ आया और पिस्तौल दिखाकर हम लोगों से अंग्रेज़ी में पूछा, 'तुम लोग कौन हो और यहां क्या कर रहे हो?' आजाद का हाथ अपनी पिस्तौल पर था और मेरा अपनी। हमने उसके सवाल का जवाब गोली चलाकर दिया। मगर गोरे अफ़सर की पिस्तौल पहले चली और उसकी गोली आज़ाद की जांघ में लगी, वहीं आज़ाद की गोली गोरे अफ़सर के कंधे में लगी। दोनों तरफ़ से दनादन गोलियां चल रही थीं। अफ़सर ने पीछे दौड़कर मौलश्री के पेड़ की आड़ ली। उसके सिपाही कूद कर नाले में जा छिपे। इधर हम लोगों ने जामुन के पेड़ को आड़ बनाया। एक क्षण के लिए लड़ाई रुक सी गई। तभी आज़ाद ने मुझसे कहा मेरी जांघ में गोली लग गई है। तुम यहां से निकल जाओ।'
 
पिस्तौल दिखाकर साइकल छीनी
 
सुखदेवराज आगे लिखते हैं, 'आज़ाद के आदेश पर मैंने निकल भागने का रास्ता देखा। बाईं ओर एक समर हाउस था। पेड़ की ओट से निकलकर मैं समर हाउस की तरफ़ दौड़ा। मेरे ऊपर कई गोलियां चलाई गईं, लेकिन मुझे एक भी गोली नहीं लगी। जब मैं एल्फ़्रेड पार्क के बीचों-बीच सड़क पर आया तो मैंने देखा कि एक लड़का साइकल पर जा रहा है। मैंने उसे पिस्तौल दिखाकर उसकी साइकल छीन ली। वहां से मैं साइकल पर घूमते-घूमते चांद प्रेस पर पहुंचा। चांद के संपादक रामरख सिंह सहगल हमारे समर्थकों में से थे। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं हाज़िरी रजिस्टर पर फ़ौरन दस्तख़त करूं और अपनी सीट पर बैठ जाऊं।'
 
पांच हज़ार रुपए का इनाम था चंद्रशेखर पर
 
चंद्रशेखर पर प्रमाणिक क़िताब 'अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद' लिखने वाले विश्वनाथ वैशम्पायन लिखते हैं, 'सबसे पहले डिप्टी सुपरिंटेंडेंट विशेश्वर सिंह ने एक व्यक्ति को देखा जिसपर उन्हें चंद्रशेखर आज़ाद होने का शक़ हुआ। आज़ाद काकोरी और अन्य मामलों में फ़रार चल रहे थे और उनपर 5,000 रुपए का इनाम था। विशेश्वर सिंह ने अपनी शंका सीआईडी के लीगल एडवाइज़र डालचंद पर प्रकट की। वो कटरे में अपने घर वापस आए और आठ बजे सवेरे डालचंद और अपने अरदली सरनाम सिंह के साथ ये देखने गए कि ये वही आदमी है जिसपर उन्हें आज़ाद होने का शक़ है।'
 
'उन्होंने देखा कि थॉर्नहिल रोड कॉर्नर से पब्लिक लाईब्रेरी की तरफ़ जो फ़ुटपाथ जाता है, उस पर ये दोनों बैठे हुए हैं। जब उन्हें विश्वास हो गया कि ये आज़ाद ही हैं तो उन्होंने अरदली सरनाम सिंह को नॉट बावर को बुलवाने भेजा, जो पास में एक नंबर पार्क रोड में रहते थे।'
 
आज़ाद की गोली विशेश्वर सिंह के जबड़े में लगी
 
बाद में नॉट बावर ने एक प्रेस वक्तव्य में कहा, 'ठाकुर विशेश्वर सिंह से मेरे पास संदेश आया कि उन्होंने एक व्यक्ति को एल्फ़्रेड पार्क में देखा है जिसका हुलिया चंद्रशेखर आज़ाद से मिलता है। मैं अपने साथ कॉन्स्टेबल मोहम्मद जमान और गोविंद सिंह को लेते गया। मैंने कार खड़ी कर दी और उन लोगों की तरफ़ बढ़ा। क़रीब दस गज़ की दूरी से मैंने उनसे पूछा कि वो कौन हैं? जवाब में उन्होंने पिस्तौल निकालकर मुझपर गोली चला दी।'
 
'मेरी पिस्तौल पहले से तैयार थी। मैंने भी उस पर गोली चलाई। जब मैं मैग्ज़ीन निकालकर दूसरी भर रहा था, तब आज़ाद ने मुझपर गोली चलाई, जिससे मेरे बाएं हाथ से मैग्ज़ीन नीचे गिर गई। तब मैं एक पेड़ की तरफ़ भागा। इसी बीच विशेश्वर सिंह रेंगकर झाड़ी में पहुंचे। वहां से उन्होंने आज़ाद पर गोली चलाई। जवाब में आज़ाद ने भी गोली चलाई जो विशेश्वर सिंह के जबड़े में लगी।'
 
'जब-जब मैं दिखाई देता आज़ाद मुझ पर गोली चलाते रहे। आख़िर में वो पीठ के बल गिर गए। इसी बीच एक कॉन्स्टेबल एक शॉट-गन लेकर आया, जो भरी हुई थी। मैं नहीं जानता था कि आज़ाद मरे हैं या बहाना कर रहे हैं। मैंने उस कॉन्स्टेबल से आज़ाद के पैरों पर निशाना लेने के लिए कहा। उसके गोली चलाने के बाद जब मैं वहां गया तो आज़ाद मरे हुए पड़े थे और उनका एक साथी भाग गया था।
 
हिन्दू हॉस्टल के गेट पर छात्रों की भीड़ जमा हुई
 
जिस समय आज़ाद शहीद हुए भटुकनाथ अग्रवाल इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीएससी के छात्र थे और हिन्दू छात्रावास में रहते थे। बाद में उन्होंने लिखा कि 27 फ़रवरी की सुबह जब वो हिन्दू बोर्डिंग हाउस के गेट पर पहुंचे तो उन्हें गोली चलने की आवाज़ सुनाई दी। थोड़ी देर में वहां विश्वविद्यालय के छात्रों की बड़ी भीड़ जमा हो गई थी। पुलिस कप्तान मेजर्स भी वहां पहुंच चुके थे। उन्होंने छात्रों से तितर-बितर होने के लिए कहा, लेकिन कोई भी वहां से नहीं हिला। कलक्टर ममफ़ोर्ड भी वहां मौजूद थे। कप्तान मेजर्स ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए गोली चलाने की अनुमति मांगी, लेकिन कलक्टर ने अनुमति नहीं दी। उसी समय मुझे पता चला कि आज़ाद शहीद हो गए।
 
नॉट बावर की कार की बॉडी में तीन छेद
 
इस बीच जब एसपी मेजर्स को गोलीबारी की ख़बर मिली तो उन्होंने सशस्त्र रिज़र्व पुलिस के जवानों को एल्फ़्रेड पार्क भेजा। लेकिन जब तक ये लोग वहां पहुंचे, लड़ाई ख़त्म हो चुकी थी। जाते समय नॉट बावर ने हिदायत दी कि चंद्रशेखर आज़ाद की लाश की तलाशी लेकर उसे पोस्टमार्टम के लिए भेजा जाए और विशेश्वर सिंह को तुरंत अस्पताल पहुंचाया जाए। आज़ाद के शव की तलाशी लेने पर उनके पास से 448 रुपए और 16 गोलियां मिलीं। यशपाल अपनी आत्म-कथा में लिखते हैं कि 'संभवत आज़ाद की जेब में वही रुपए थे जो नेहरू ने उन्हें दिए थे।'
 
दोनों ही पक्ष जिन पेड़ों के पीछे थे उन पर गोलियों के निशान थे। नॉट बावर के पीछे उनकी खड़ी कार में भी गोलियां लगी थीं और उसकी बॉडी में तीन छेद हो गए थे। आज़ाद के शरीर का पोस्टमार्टम सिविल सर्जन लेफ़्टिनेंट कर्नल टाउनसेंड ने किया। उस समय दो मजिस्ट्रेट ख़ान साहब रहमान बख़्श क़ादरी और महेंद्र पाल सिंह वहां मौजूद थे। आज़ाद के दाहिने पैर के निचले हिस्से में दो गोलियों के घाव थे। गोलियों से उनकी टीबिया बोन भी फ़्रैक्चर हुई थी। एक गोली दाहिनी जांघ से निकाली गई। एक गोली सिर के दाहिनी ओर पेरिएटल बोन को छेदती हुई दिमाग में जा घुसी थी और दूसरी गोली दाहिने कंधे को छेदती हुई दाहिने फ़ेफड़े पर जा रुकी थी।
 
विश्वनाथ वैशम्पायन लिखते हैं, 'आज़ाद का शव चूंकि भारी था, इसलिए उसे स्ट्रेचर पर नहीं रखा जा सका। चंद्रशेखर आज़ाद चूंकि ब्राह्मण थे, इसलिए पुलिस लाइन से ब्राह्मण रंगरूट बुलवाकर उन्हीं से शव उठवाकर लॉरी में रखा गया था।' पुरुषोत्तमदास टंडन और कमला नेहरू आज़ाद के अंतिम संस्कार में पहुंचे। इस बीच कांग्रेस नेता पुरुषोत्तम दास टंडन वहां पहुंच गए लेकिन आज़ाद के शव के लिए लॉरी वहां से चल पड़ी थी। जब तक टंडन और कमला नेहरू रसूलाबाद घाट पर पहुंचे, आज़ाद का शव जल चुका था।
 
आज़ाद की अस्थियां एकत्रित कर उनके रिश्तेदार शिव विनायक मिश्र शहर में लाये। खद्दर भंडार से एक जुलूस निकाला गया। लकड़ी के तख़्त पर एक काली चादर बिछाई गई, जिसपर अस्थियां रखी गईं। शहर में घूमता हुआ जुलूस पुरुषोत्तम दास टंडन पार्क पहुंचा। अस्थियों पर शहर में कई जगह फूल बरसाये गए। टंडन पार्क में पुरषोत्तमदास टंडन, कमला नेहरू, मंगल देव सिंह और शचींद्र सान्याल की पत्नी प्रतिमा सान्याल के भाषण हुए। उस दिन पूरे शहर में हड़ताल रही।
 
विश्वनाथ वैशम्पायन अपनी क़िताब में लिखते हैं, 'सीआईडी सुपरिंटेंडेंट ने स्वीकार किया कि उन्होंने आज़ाद जैसे निशानेबाज़ बहुत कम देखे हैं, ख़ासकर उस समय जब उन पर तीन तरफ़ से गोलियां चलाई जा रही हों। यदि पहली गोली आज़ाद की जांघ में ना लगी होती, तो पुलिस के लिए बहुत मुश्किल खड़ी हो जाती क्योंकि नॉट बावर का हाथ पहले ही बेकार हो चुका था।'
 
नॉट बावर के रिटायर होने के बाद सरकार ने आज़ाद की पिस्तौल उन्हें उपहार में दे दी और वो उसे अपने साथ इग्लैंड ले गए। बाद में इलाहाबाद के कमिश्नर मुस्तफ़ी ने जो बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति बने, बावर को पिस्तौल लौटाने के लिए पत्र लिखा, लेकिन बावर ने उसका कोई जवाब नहीं दिया। बाद में लंदन में भारतीय उच्चायोग की कोशिश के बाद बावर उसे इस शर्त पर लौटाने के लिए तैयार हो गए कि इसके लिए भारत सरकार उनसे लिखित अनुरोध करे।
 
उनकी शर्त मान ली गई और 1972 में आज़ाद की कोल्ट पिस्तौल भारत लौटी और 27 फ़रवरी, 1973 को शचींद्रनाथ बख़्शी की अध्यक्षता में हुए समारोह के बाद उसे लखनऊ संग्रहालय में रख दिया गया। कुछ सालों बाद जब इलाहाबाद का संग्रहालय बनकर तैयार हुआ, तो उसको वहां के एक विशेष कक्ष में लाकर रखा गया।
 
रातोरात पेड़ को जड़ से काटा गया
 
जिस पेड़ के नीचे आज़ाद मारे गए थे, वहां हर दिन लोगों की भीड़ लगने लगी थी। लोग वहां फूलमालाएं चढ़ाने और दीपक जलाने लगे। अंग्रेज सरकार ने रातोंरात उस पेड़ को जड़ से काटकर उसका नामोनिशान मिटा दिया और ज़मीन बराबर कर दी। उसकी लकड़ी को लॉरी से उठवाकर कहीं और फिंकवा दिया गया।
 
बाद में आज़ाद के चाहने वालों ने उसी जगह पर जामुन के एक और पेड़ का वृक्षारोपण किया और जिस मौलश्री के पेड़ के नीचे नॉट बावर खड़े थे, उस पर आज़ाद की गोलियों के निशान तब भी मौजूद थे। आज़ाद की अस्थियों में से एक अंश समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव भी ले गए थे और विद्यापीठ में जहां आज़ाद के स्मारक का पत्थर लगा है, उन्होंने उस अस्थि के टुकड़े को रखा।
 
आज़ाद के अंत के साथ ही हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी छिन्न-भिन्न होनी शुरू हो गई थी। एक महीने के अंदर ही 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को भी फ़ांसी दे दी गई। इतने कम समय में इतने नेताओं की मौत से एचआरएसए को बहुत धक्का पहुंचा जिससे वो कभी उबर नहीं पाया।

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