मुरलीधरन काशीविश्वनाथन, बीबीसी तमिल संवाददाता
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आख़िरी चरण के चुनाव प्रचार के दौरान एक ऐसा इंटरव्यू दिया जिसमें उन्होंने कहा कि 1982 में रिलीज़ हुई रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म 'गांधी' से पहले विदेश में रहने वाले लोग महात्मा गांधी के बारे में कुछ नहीं जानते थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में एक निजी न्यूज़ चैनल को इंटरव्यू दिया। उस इंटरव्यू में मोदी ने कहा था, 'महात्मा गांधी का व्यक्तित्व महान था। पिछले 75 सालों में गांधी को दुनिया के सामने लाना क्या हमारी ज़िम्मेदारी नहीं थी? मुझे खेद है लेकिन गांधी को कोई नहीं जानता था।'
जब पहली बार फ़िल्म 'गांधी' बनी तो दुनिया को उत्सुकता हुई कि ये लोग कौन हैं? हम एक देश के तौर पर उन्हें दुनिया तक नहीं पहुंचा सके, यह इस देश का कर्तव्य था। इसके बाद कांग्रेस नेता और गांधीवादी विचारक उनके इस बयान की आलोचना कर रहे हैं।
मोदी के बयान पर टिप्पणी करते हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा, "जिन लोगों ने शाखाओं में दुनिया का ज्ञान हासिल किया है, वो गांधी को नहीं समझ सकते। लेकिन वो गोडसे को समझ सकते हैं जिसने गांधी की हत्या की।"
रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म 'गांधी' कैसी थी?
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने वाले मोहनदास करमचंद गांधी के जीवन पर 1952 के बाद से ही फ़िल्म बनाने की कई कोशिशें हुईं। लेकिन वो कामयाब नहीं हुईं।
ब्रिटिश निर्देशक रिचर्ड एटनबरो ने 1960 के दशक में गांधी के जीवन पर फ़िल्म बनाने का पहला प्रयास किया था।
हालांकि इसके बाद एटनबरो ने बीस साल की देरी के बाद नवंबर 1980 में फ़िल्म की शूटिंग शुरू की। लगभग डेढ़ साल तक शूटिंग चली और फ़िल्म आख़िरकार मई 1981 में पूरी हुई।
इस फ़िल्म में बेन किंग्सले ने गांधी की भूमिका निभाई थी जबकि रोशन सेठ ने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की भूमिका निभाई थी। महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे की भूमिका हर्ष नैयर ने निभाई थी।
30 नवंबर 1982 को दिल्ली में फ़िल्म का प्रीमियर हुआ। बाद में इसे अमेरिका और ब्रिटेन में में भी प्रदर्शित किया गया। इस फ़िल्म को दुनियाभर के दर्शकों और समीक्षकों ने सराहा।
महात्मा गांधी पर बनी यह फ़िल्म भी व्यावसायिक रूप से सफल रही। इस फिल्म को ऑस्कर और ब्रिटिश एकेडमी जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। महात्मा गांधी को पर्दे पर जीवंत करने वाले बेन किंग्सले को उस साल सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के ऑस्कर से सम्मानित किया गया था।
लेकिन क्या गांधी पर बनी इस फ़िल्म के बाद ही दुनिया को गांधी के बारे में पता चला था?
सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी के मुताबिक गांधीजी को 1930 के दशक में ही दुनिया भर में शौहरत मिल गई थी।
जब नोबेल के लिए महात्मा गांधी के नाम पर विचार किया गया
1930 के दशक में कई साल नोबेल पुरस्कार के लिए महात्मा गांधी का नाम चर्चा में रहा था। इसको लेकर नोबेल पुरस्कार समिति ने भी एक लेख प्रकाशित किया जिसमें इस सवाल का जवाब दिया गया कि गांधी को पुरस्कार क्यों नहीं मिल सका?
लेख में बताया गया है कि संभावित नोबेल विजेताओं की चर्चा में कुल मिलाकर पांच बार महात्मा गांधी का नाम आया।
इस आलेख के मुताबिक, "1937, 1938, 1939, 1947 और जनवरी 1948, कुल मिलाकर पांच बार नोबेल पुरस्कार के लिए उनके नाम पर विचार किया गया था।"
इस लेख में दी गई जानकारी के मुताबिक़, गांधी के नाम की सिफ़ारिश करने वाले संगठनों के नाम पढ़ने पर आसानी से पता लग जाता है कि उस दशक के दौरान गांधी का दुनिया भर में कितना प्रभाव था।
नोबेल पुरस्कार समिति द्वारा प्रकाशित इस लेख में लिखा गया है कि, "गांधी को मानने वालों में सबसे महत्वपूर्ण संगठन 'फ्रेंड्स ऑफ इंडिया' है।' इस संगठन की स्थापना 1930 के दशक की शुरुआत में यूरोप और अमेरिका में की गई थी।"
"1937 में नॉर्वेजियन सांसद ओले कल्बजॉनसन ने मांग की कि गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया जाए। इसके बाद पुरस्कार के लिए तेरह संभावित नामों में महात्मा गांधी का नाम भी शामिल किया गया।”
लेकिन उस वर्ष महात्मा गांधी को यह पुरस्कार क्यों नहीं दिया गया?
इस सवाल का जवाब भी इसी लेख में दिया गया है, "ओले कल्बजॉनसन ने 1938 और 1939 में गांधी के नाम की सिफ़ारिश की थी। लेकिन उन्हें पुरस्कार से सम्मानित नहीं किया गया। 1947 में उनका नाम दोबारा नामांकित किया गया। उसके बाद गांधी का नाम अंतिम सूची में भी था। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद एक बार फिर नोबेल पुरस्कार के लिए गांधी जी के नाम पर विचार किया गया।"
लेख में कहा गया है, "नोबेल पुरस्कार समिति ने 1948 में किसी को भी नोबेल शांति पुरस्कार नहीं दिया था। यह गांधी को नहीं दिया गया क्योंकि समिति महात्मा गांधी को मरणोपरांत नोबेल नहीं देना चाहती थी।"
क्या नोबेल पुरस्कारों के लिए गांधी के नाम की सिफ़ारिश गांधी की विश्वव्यापी लोकप्रियता को मापने का एकमात्र पैमाना था? तो ऐसा नहीं है।
महात्मा गांधी ने अपने जीवनकाल में दुनिया भर में मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले कई प्रमुख कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया। इसमें सबसे प्रमुख नाम मार्टिन लूथर किंग जूनियर का था, जिन्होंने अमेरिका में नागरिक अधिकारों की लड़ाई को खड़ा किया।
अपनी पुस्तक 'माई पिलग्रिमेज टू नॉन वॉयलेंस' में मार्टिन लूथर किंग जूनियर लिखते हैं कि "वंचितों के उद्धार के लिए हर संघर्ष में गांधी का मार्ग सबसे नैतिक और न्यायपूर्ण है। भगवान ने हमें रास्ता दिखाया और गांधी ने इसके लिए संघर्ष की योजना बनाई।"
न केवल मार्टिन लूथर किंग बल्कि दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के ख़िलाफ़ बड़ी लड़ाई लड़ने वाले नेल्सन मंडेला के लिए भी गांधी का दर्शन बहुत महत्वपूर्ण रहा। मंडेला ने कहा है, "गांधी अहिंसा के प्रति प्रतिबद्ध थे और मैंने गांधी के सिद्धांतों का पालन करने की पूरी कोशिश की।"
इसी तरह जर्मनी में पैदा हुए कई लोगों पर गांधी का बहुत प्रभाव था और वे आगे चलकर 20वीं सदी के महानतम वैज्ञानिक बने, चाहे वह अल्बर्ट आइंस्टीन हों या फ्रांसीसी लेखक और विचारक रोमेन रोलैंड।
अंतरराष्ट्रीय ख्याति का एक उत्कृष्ट उदाहरण 1930 के दशक में महात्मा गांधी के 70वें जन्मदिन के अवसर पर 1939 में प्रकाशित पुस्तक 'महात्मा गांधी' है। यह गांधीजी पर डॉ। सर्वपल्ली राधाकृष्णन के लिखे गए लेखों और निबंधों का संग्रह था।
इस पुस्तक में महात्मा गांधी के जीवन और कामों पर लिखे लेख प्रकाशित किये गये थे। इन 70 लेखों में से अधिकांश दुनिया भर के विभिन्न विचारकों द्वारा लिखे गए थे।
यूरोप में महात्मा गांधी की स्वीकार्यता
जब भी महात्मा गांधी लंदन जाते थे तो उन्हें अन्य यूरोपीय देशों में आमंत्रित किया जाना एक रिवाज बन गया। वहां गांधी का बड़े उत्साह से स्वागत किया जाता था।
गांधी जब गोलमेज़ सम्मेलन के लिए लंदन गए, तब भारत लौटने से पहले पेरिस, स्विट्ज़रलैंड और इटली जैसे देशों का दौरा किया।
गांधी की विदेश यात्राओं के बारे में नियमित रूप से लिखने वाली वरिष्ठ पत्रकार मीरा कामदार कहती हैं, "1931 में महात्मा गांधी दुनिया के सबसे मशहूर व्यक्ति थे। दांडी यात्रा के बारे में यूनाइटेड प्रेस के पत्रकार वेब मिलर द्वारा लिखा गया एक लेख एक हज़ार से अधिक अख़बारों में प्रकाशित हुआ था।"
मीरा कामदार लिखती हैं, "गांधी ने 1931 में गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लिया। बाद में, रोमन रोलैंड से मिलने के लिए जिनेवा जाने से पहले वह पेरिस गए। गांधी ने वहां एक बड़ी भीड़ को संबोधित किया।"
इतिहासकार ए.इरा वेंकटचलपति एक उदाहरण देती हैं कि 1930 के दशक में गांधी दुनिया भर में कैसे जाने गए।
ए. इरा वेंकटचलपति कहती हैं, 'जब गांधी ने मार्च 1930 में दांडी यात्रा शुरू की, तो दुनिया भर से पत्रकार और फ़ोटोग्राफ़र इस यात्रा को कवर करने और दांडी यात्रा के क्षणों को कैमरे में क़ैद करने के लिए भारत आए। इससे ही गांधी की लोकप्रियता का अंदाज़ा हो जाता है।'
फ़िल्म से पहले गांधी के जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई गई
रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म 'गांधी' की रिलीज़ से क़रीब चालीस साल पहले गांधी के जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई गई थी। बीसवीं सदी के प्रमुख तमिल वृत्तचित्र फ़िल्म निर्माता ए.के. चेट्टियार ने इसका निर्माण किया था।
1930 के दशक में इस डॉक्यूमेंट्री को बनाने के लिए ए. के. चेट्टियार ने गांधीजी के बारे में मूल फ़िल्में इकट्ठा करने के लिए दुनिया भर में हज़ारों किलोमीटर की यात्रा की। 1940 में, उन्होंने 'महात्मा गांधी: उनके जीवन की घटनाएं' शीर्षक से दो घंटे की एक डॉक्यूमेंट्री जारी की। बाद में इसे तेलुगू और हिंदी में भी रिलीज़ किया गया। यह डॉक्यूमेंट्री अमेरिका में भी दिखाई गई थी।
एके चेट्टियार ने लिखा कि वह गांधी के जीवन पर 'एनालिन अतीचुवत्तिल' नाम से एक धारावाहिक बनाना चाहते थे। यह दुनिया भर के प्रमुख विचारकों और नेताओं के मन में गांधीजी के प्रति आदर और सम्मान को दर्शाने के लिए था।
1931 में, अमेरिका की टाइम पत्रिका ने गांधी को अपने कवर पर छापा और उन्हें 'मैन ऑफ़ द ईयर' के रूप में सम्मानित किया। इससे यह स्पष्ट है कि गांधी को अमेरिका में भी नोटिस किया गया था। अपनी क़ानून की डिग्री प्राप्त करने के बाद, गांधी 1893 में दक्षिण अफ्रीका चले गए जहां उन्होंने वकालत शुरू की।
वह 21 वर्षों तक दक्षिण अफ़्रीका में रहे। गांधी ने दक्षिण अफ़्रीका में काले लोगों के साथ भेदभाव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। गांधी 1915 में भारत लौट आए और ख़ुद को भारत की आज़ादी की लड़ाई में झोंक दिया था।