समीरात्मज मिश्र (बीबीसी हिन्दी के लिए)
उत्तरप्रदेश में 2 हफ़्ते की गर्मागर्म राजनीतिक हलचल के बाद फ़िलहाल माहौल कुछ शांत दिख रहा है लेकिन इस शांति की अवधि कितनी लंबी होगी, इसे लेकर आशंकाएं बनी हुई हैं। यूपी के नेताओं के साथ बैठकों के बाद बीजेपी के केंद्रीय नेताओं ने भले ही किसी बदलाव को अटकलबाज़ी बताया हो और 'सब कुछ ठीक-ठाक' होने का संदेश देने की कोशिश की हो लेकिन यह संदेश इसी रूप में न तो बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच पहुंचा है और न ही आम लोगों के पास। यानी सरकार और संगठन के स्तर पर बदलाव की चर्चाएं जारी हैं।
राजनीतिक जगत में इस बात की भी चर्चा है कि योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाना बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेताओं को अब ऐसा फ़ैसला समझ में आ रहा है, जिसे अब बदलना और बनाए रखना, दोनों ही स्थितियों में घाटे का सौदा दिख रहा है। दूसरे, पिछले 4 साल के दौरान बतौर मुख्यमंत्री, योगी आदित्यनाथ की जिस तरह की छवि उभर कर सामने आई है, उसके सामने 4 साल पहले के उनके कई प्रतिद्वंद्वी काफ़ी पिछड़ चुके हैं।
'विधायकों की कोई हैसियत नहीं रह गई'
यूपी में बीजेपी के एक विधायक नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, 'योगी ने बतौर मुख्यमंत्री ख़ुद को वैसे ही बना लिया है जैसे प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी हैं। धार्मिक कट्टरता जैसी कई बातों में वो उनसे कई गुना आगे हैं और ऐसा दिखते भी हैं। मंत्रियों और विधायकों की हैसियत यहां भी वैसी ही है जैसी कि केंद्र में मंत्रियों और सांसदों की है। नौकरशाहों के ज़रिए यहां भी सरकार चल रही है और केंद्र में भी।'
वे कहते हैं, 'विधायक तो अब सिर्फ़ विधानसभा में गिनती करने के लिए रह गए हैं, अन्यथा उनकी कोई हैसियत नहीं है। विकल्प के तौर पर यूपी में भी बीजेपी को योगी के अलावा कोई उसी तरह नहीं दिख रहा है जैसे कि केंद्र में मोदी का विकल्प नहीं दिख रहा है। पर ऐसा है नहीं। विकल्प दोनों के हैं और इनसे बेहतर भी।'
साल 2017 में बीजेपी ने यूपी विधानसभा चुनाव में किसी भी नेता को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर चुनाव नहीं लड़ा था और न ही कोई ऐसा नेता था जिसे सामान्य रूप से चुनाव से पहले मुख्यमंत्री के तौर पर देखा जा रहा हो। चर्चा में कई नाम थे जिनमें तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य और मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी थे।
योगी को सीएम बनाने में बीजेपी ने क्या नज़रअंदाज किया?
कई दिनों की कसरत और भारी हंगामे के बाद लखनऊ में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री के साथ ही केशव प्रसाद मौर्य और डॉक्टर दिनेश शर्मा को उपमुख्यमंत्री बनाने की घोषणा हुई। हालांकि इससे ठीक पहले, मनोज सिन्हा का भी नाम मुख्यमंत्री के तौर पर ख़ूब प्रचारित किया गया लेकिन वह उसी तेज़ी के साथ हवा हो गया, जिस तेज़ी के साथ चला था।
इस दौरान, मुख्यमंत्री के तौर पर योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली पर कई बार सवाल उठे, क़ानून-व्यवस्था के मामले में शुरुआत से लेकर अब तक वो विपक्ष के निशाने पर रहे हैं और 'योगी होने के बावजूद जातिवादी सोच' के आरोप विपक्ष के अलावा बीजेपी के भी कई नेता लगा चुके हैं, बावजूद इसके योगी आदित्यनाथ की छवि बीजेपी के एक 'फ़ायरब्रांड प्रचारक' और हिन्दुत्व के प्रतीक नेता के तौर पर बनती गई। इन सबकी वजह से मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी तमाम कमियों को भी नज़रअंदाज़ कर दिया गया।
यहां तक कि पिछले 2 हफ़्ते से आरएसएस और बीजेपी के तमाम नेताओं की दिल्ली और लखनऊ में हुई बैठकों के बाद यह माना जा रहा था कि शायद अब यूपी में नेतृत्व परिवर्तन हो जाए लेकिन बैठक के बाद वो नेता भी योगी आदित्यनाथ की तारीफ़ कर गए जिन्होंने कई मंत्रियों और विधायकों के साथ आमने-सामने बैठक की और सरकार के कामकाज का फ़ीडबैक लिया।
क्या सोच रहे हैं मोदी-शाह?
हालांकि लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं कि नेतृत्व संकट अभी टला नहीं है और कुछ न कुछ फ़ैसला ज़रूर होगा।
बीबीसी से बातचीत में शरत प्रधान कहते हैं, 'मोदी-शाह अभी इंतज़ार कर रहे हैं। वो चाहते हैं कि बाहर से किसी तरह का विवाद न दिखे क्योंकि इससे पार्टी को नुक़सान ही होगा। ये इतना बड़ा मुद्दा योगी की वजह से बना है और अब तो केंद्रीय नेतृत्व कुछ न कुछ फ़ैसला करेगा ही। यदि योगी आदित्यनाथ मोदी-अमित शाह की शर्तों पर तैयार न हुए तो इनका बने रहना मुश्किल है। और हां, मोदी-शाह के लिए विकल्प का कोई मतलब नहीं है। तमाम राज्यों में उन्होंने अपने हिसाब का मुख्यमंत्री बनाया है। योगी आदित्यनाथ को हटाना ही होगा तो इनके ख़िलाफ़ दो-ढाई सौ विधायकों से पत्र लिखा लेंगे।'
शरत प्रधान इस बात से साफ़ इनकार करते हैं कि संघ या मोदी के पास यूपी में योगी आदित्यनाथ का कोई विकल्प नहीं है। उनके मुताबिक, योगी आदित्यनाथ विकल्प बनाए गए थे, पहले से नहीं थे।
वे कहते हैं, 'बीजेपी ने योगी के नेतृत्व में तो चुनाव लड़ा नहीं था। उस वक़्त बीजेपी के पास जो विकल्प थे वो आज भी हैं। काम करने वाले मुख्यमंत्री की छवि वो बना नहीं पाए हैं। हां, कट्टर हिन्दूवादी की जो छवि उनकी है, उसे और निखारा है उन्होंने। यही वजह है कि आरएसएस में भी एक वर्ग इनका समर्थन करता है लेकिन एक बड़ा वर्ग विरोधी भी है। आरएसएस में योगी का समर्थन करने वाले लोग इन्हें मोदी की काट के रूप में भी रखते हैं ताकि ज़रूरत पड़ने पर इन्हें चेहरा बना सके। यूपी में बीजेपी इनकी जगह किसी अनुभवी व्यक्ति को विकल्प के तौर पर ढूंढ़ेगी।'
बीजेपी नेता बोल रहे हैं- 'सब ठीक ही चल रहा है'
बीजेपी में इस मुद्दे पर कोई नेता बोलने को तैयार नहीं हैं। यहां तक कि वो नेता भी नहीं, जो योगी सरकार पर उंगली उठाते रहे हैं और सार्वजनिक रूप से पत्र भी लिखते रहे हैं।
बीजेपी के प्रदेश उपाध्यक्ष जेपीएस राठौर तो कहते हैं कि 2 हफ़्ते बैठकों का जो दौर रहा, वह परिवर्तनों के लिए नहीं बल्कि सरकार और संगठन के बीच समन्वय के मक़सद से होने वाली सामान्य बैठकें थीं। बीबीसी से बातचीत में राठौर कहते हैं, 'निर्णय तो राष्ट्रीय नेतृत्व को करना है, बाक़ी परिवर्तन की कोई ज़रूरत तो है नहीं। सब ठीक ही चल रहा है। मीडिया के लोग ही यह सब क़यास लगा रहे हैं बाकी अभी यह कोई विषय भी नहीं है। नेतृत्व परिवर्तन जैसी न तो कोई क़वायद है न परिस्थिति है।'
'योगी ने लड़ के ली थी मुख्यमंत्री की कुर्सी'
बीजेपी के कुछ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि योगी आदित्यनाथ न तो आरएसएस में कभी रहे और न ही बीजेपी संगठन में कभी रहे, बावजूद इसके यदि उनका चयन मुख्यमंत्री के तौर पर किया गया तो कोई वजह ज़रूर रही होगी।
यूपी में बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, 'योगीजी आरएसएस में कभी रहे नहीं, रिश्ता भले ही रहा हो। आक्रामक हिन्दूवादी नेता के तौर पर वो आरएसएस और बीजेपी दोनों को भाते थे। ख़ुद की राजनीति में भी बीजेपी के भरोसे कभी नहीं रहे बल्कि हिन्दू युवा वाहिनी के तौर पर एक समानांतर संगठन उनके पास था।'
वे कहते हैं, 'साल 2007 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने बीजेपी से इस्तीफ़ा देने की भी धमकी दे दी थी। यहां तक कि साल 2017 में एक तरह से उन्होंने लड़कर मुख्यमंत्री की कुर्सी ली थी। तो इन सबके बावजूद यदि योगी आदित्यनाथ को पार्टी ने इतनी महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी है तो अब उसे वापस लेने में पार्टी को नुक़सान का भी अंदेशा है। लेकिन सच यह भी है कि साल 2017 में मोदी का चेहरा देखकर यूपी के लोगों ने वोट दिया था, योगी का नहीं।'
बीजेपी ने साल 2017 का चुनाव योगी को मुख्यमंत्री के रूप में पेश करके भले ही न लड़ा हो लेकिन यह भी सही है कि उसके बाद उन्होंने अपनी एक अलग पहचान ख़ुद बनाई है।
क्या वाकई बीजेपी के पास विकल्प नहीं या अभी पर्दा उठना बाकी?
समाजशास्त्री प्रोफ़ेसर बद्री नारायण कहते हैं, 'वजह और स्थितियां चाहे जो हों, यूपी बीजेपी में उनकी काट का दूसरा लीडर तो दिख नहीं रहा है। जिस तरह की आक्रामक शैली वाले नेता की दरकार पार्टी को है, उस रूप में शायद उनका विकल्प पार्टी के पास नहीं है। पर हां, यह कहना भी अतिशयोक्ति होगी कि बीजेपी में विकल्पहीनता की स्थिति है। यह ज़रूर है कि जिन मापदंडों पर पार्टी को नेतृत्व की ज़रूरत है, योगी आदित्यनाथ उस पर सबसे ज़्यादा खरे उतर रहे हैं।'
स्थितियां कुछ भी हों लेकिन यह सही है कि यूपी में बीजेपी के ऐसे कई नेता अब परिदृश्य से लगभग बाहर हैं जिन पर मुख्यमंत्री के तौर पर दांव लगाया जाता। चाहे वो मनोज सिन्हा हों, कलराज मिश्र हों, राजनाथ सिंह हों, ओमप्रकाश सिंह हों या फिर कोई और।
कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षकों का यह भी कहना है कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व विधानसभा चुनाव से पहले शायद उन परिस्थितियों की पुनरावृत्ति नहीं करना चाहता है जिन परिस्थितियों में कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री के पद से हटाया गया था और फिर कल्याण सिंह ने पार्टी से विद्रोह कर दिया था।
लेकिन शरत प्रधान कहते हैं कि मौजूदा समय में उस स्थिति की पुनरावृत्ति नहीं होगी। वे कहते हैं, 'कल्याण सिंह जिस स्तर के ज़मीनी नेता थे, संघ और पार्टी में उनकी जो पकड़ थी, वह योगी आदित्यनाथ की नहीं है। दूसरे, विद्रोह करने पर योगी आदित्यनाथ विधायकों या कार्यकर्ताओं का कितना समर्थन जुटा पाएंगे, इसका एहसास उन्हें भले न हो लेकिन केंद्रीय नेतृत्व को अच्छी तरह से है। तीसरी और सबसे अहम बात यह कि कल्याण सिंह अटल बिहारी वाजपेयी से मुक़ाबला कर रहे थे और योगी आदित्यनाथ यदि ऐसा करेंगे तो उन्हें मोदी-शाह के ख़िलाफ़ बग़ावत करनी पड़ेगी। दोनों में बड़ा अंतर है।'