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कौन है दुनिया का सबसे पुराना जीव?

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, बुधवार, 15 जून 2016 (11:44 IST)
- जैसमीन फॉक्स-स्केली
क्या आपको मालूम है कि दुनिया में सबसे उम्रदराज़ जीव कौन सा है? अगर नहीं मालूम, तो चलिए आपके साथ हम भी इस सवाल का जवाब तलाशते हैं।
जानवरों में कछुए सबसे ज़्यादा उम्र तक जीने वाले माने जाते हैं। एक कछुआ ढाई सौ बरस की उम्र तक ज़िंदा रहा था। इसी तरह कुछ अमरीकी केकड़े करीब 140 साल तक जिए। कुछ मूंगे हज़ारों साल तक जीते रहते हैं। एक घोंघा जिसका नाम मिंग था, वो पांच सौ सात बरस का था, जब वैज्ञानिकों ने ग़लती से उसकी जान ले ली।
 
मगर, ये आंकड़े फीके लगेंगे, जब आप ये जानेंगे कि धरती पर ऐसे बहुत से जीव हैं जो लाखों बरस से ज़िंदा हैं।
 
साइबेरिया, अंटार्कटिका और कनाडा के भयंकर सर्द माहौल में बर्फ़ की परतों के नीचे, कई बैक्टीरिया हैं, जो दसियों लाख साल से वहीं, वैसे के वैसे पड़े हैं। बल्कि मज़े में रह रहे हैं। ये कीटाणु, इतने सर्द माहौल में कैसे जी रहे हैं, ये बात अब तक किसी की समझ में नहीं आई। मगर, ये ज़रूर है कि अगर वो राज़ पता चल जाए, तो इंसान को भी अमर रहने की कुंजी मिल जाएगी।
 
1979 में रूसी वैज्ञानिक सबित एबिज़ोव, अंटार्कटिका में रूसी स्टेशन वोस्टोक पर काम कर रहे थे। तब उन्होंने 3600 मीटर की गहराई में कुछ बैक्टीरिया, कुछ फफूंद और दूसरे छोटे जीव खोज निकाले थे। लाखों टन बर्फ़ के नीचे, इतनी गहराई में पड़े इन जीवों के बारे में एबिज़ोव ने अंदाज़ा लगाया कि ये हज़ारों साल से ऐसे ही ज़िंदा हैं। ये जीव, धरती की ऊपरी परत से तो वहां गए नहीं होंगे। इसलिए इनकी उम्र लाखों साल ही मानी जा रही है।
 
2007 में ये रिकॉर्ड भी टूट गया। डेनमार्क की कोपेनहेगेन यूनिवर्सिटी की एक टीम और इसके अगवुएस्के विलरस्लेव पांच लाख साल पुराने ज़िंदा बैक्टीरिया को अंटार्कटिका, साइबेरिया और कनाडा के बेहद सर्द इलाक़ों से खोज निकाला।
 
इसके दो साल बाद इससे भी पुराना एक जीवाणु मिला, क़रीब पैंतीस लाख साल की उम्र का। इसे रूसी वैज्ञानिक अनातोली ब्रोशकोव ने साइबेरिया में खोजा। ब्रोशकोव ने इस बैक्टीरिया को अपने शरीर में भी इंजेक्शन से डाल लिया। उन्हें लगा कि पैंतीस लाख साल से ज़िंदा ये बैक्टीरिया शायद उन्हें भी अमर बना दे। बाद में ब्रोशकोव ने दावा किया कि बैक्टीरिया का इंजेक्शन लेने के दो साल बाद तक उन्हें कभी ज़ुकाम-बुखार नहीं हुआ।
 
सवाल ये उठता है कि वैज्ञानिक कैसे दावा करते हैं कि ये बैक्टीरिया लाखों साल से ज़िंदा हैं। ये पहले के कीटाणुओं की नई पीढ़ी भी तो हो सकते हैं। मगर, हक़ीकत ये है कि जहां बर्फ़ीली परत में ये दबे मिले हैं, वहां इनके प्रजनन की कोई गुंजाइश नहीं। अगर किसी तरह इनके डीएनए नई कोशिकाएं बना भी लें, तो उनके लिए वहां जगह ही नहीं। इसीलिए कहा जाता है कि साइबेरिया या अंटार्कटिका में सैकड़ों मीटर बर्फ़ के नीचे दबे ये कीटाणु लाखों साल से ऐसे ही ज़िंदा वहां पड़े हैं।
 
इसी आधार पर कुछ वैज्ञानिक ये दावा करते हैं कि कुछ बैक्टीरिया करोड़ों साल से ऐसे ही बर्फ़ के नीचे दबे हुए ज़िंदा हैं। ये बैक्टीरिया, अमरीका के न्यू मेक्सिको इलाक़े में 600 मीटर की गहराई में मिलने वाले नमक के क्रिस्टल के भीतर पाए गए हैं। ये उस दौर के हैं जब धरती पर डायनासोर रहते थे।
 
इन कीटाणुओं को खोजने वाले अमरीकी वैज्ञानिक, रसेल व्रीलैंड कहते हैं कि ये बिल्कुल वैसे ही बैक्टीरिया हैं जैसे कि आज डेड सी में पाए जाते हैं। वहां भी पानी इतना खारा है कि नमक के टुकड़े जैसे जम जाता है।
 
इनमें से कुछ कीटाणुओं को लैब में लाकर रखा गया। ये फिर से एक्टिव होकर बढ़ने लगे थे। वैसे जिस 2-9-3 बैक्टीरिया को करोड़ों साल पुराना बताया जा रहा है, उसे कुछ वैज्ञानिक उतना पुराना नहीं मानते। हालांकि रसेल व्रीलैंड अपने दावे पर क़ायम हैं। वो कहते हैं कि अब तो नमक के टुकड़ों के भीतर, कई जगह इन कीटाणुओं की नई नस्लें पाई गई हैं। ये तीन से पांच करोड़ साल पुराने बताए जाते हैं।
 
लेकिन इनमें से कोई भी पच्चीस करोड़ साल पुराने बैक्टीरिया के व्रीलैंड के दावे के क़रीब नहीं पहुंचता। बेहद मुश्किल माहौल में पड़े इन बैक्टीरिया के पास अपनी नई नस्ल पैदा करने का मौक़ा ही नहीं था। तो ये अपनी जान बचाए, चुपचाप लाखों साल से पड़े हुए हैं। इतने बुरे हालात में भी लाखों बरस ज़िंदा रहना ग़ैरमामूली बात है।
 
किसी भी जीव को ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी है कि उसकी कोशिकाओं को ख़राब माहौल से जो नुक़सान होता है, उसकी मरम्मत होती रहे। मगर जहां ये लाखों साल पुराने बैक्टीरिया मिले हैं। वहां कोशिकाओं की मरम्मत के लिए ज़रूरी, पानी और दूसरी अहम चीज़ें उपलब्ध नहीं। फिर ये कैसे ज़िंदा हैं अब तक?
 
वैज्ञानिक कहते हैं कि ख़राब माहौल से सामना होते ही बैक्टीरिया के इर्द-गिर्द एक खोल बन जाता है। इसे स्पोर कहते हैं। ये इतना मज़बूत होता है कि एटमी विस्फोट का भी इस पर मुश्किल से असर होता है।
 
1995 में अमेरिकी वैज्ञानिक राउल कैनो ने एक मक्खी के जीवाश्म के भीतर से निकालकर एक बैक्टीरिया में नई जान फूंक दी थी। ये क़रीब तीन करोड़ साल पुराने बैक्टीरिया थे। ये मक्खी, एक पेड़ की गोंद के भीतर चिपक गई थी। इसके साथ ही बैक्टीरिया भी वहीं जम गया था।
 
लेकिन कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि ये स्पोर भी किसी कीटाणु को 25 करोड़ साल नहीं ज़िंदा रख सकते। इतने सालों में किसी भी जीव का डीएनए टूटकर बिखर जाएगा। वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई भी डीएनए आसमानी बिजली की मार से नहीं बच सकता। किसी ख़ास इलाक़े में बिजली बार-बार कम ही गिरती है। मगर लाखों साल के दायरे की बात करें, तो धरती के कमोबेश हर हिस्से पर कभी न कभी बिजली गिरी होगी। ऐसे में ये कीटाणु करोड़ों साल से कैसे ज़िंदा हैं?
 
रसेल व्रीलैंड मानते हैं कि नमक के क्रिस्टल के अंदर बैक्टीरिया का ज़िंदा रहना आसान है। क्योंकि वहां पानी नहीं होता। वहां मौजूद बैक्टीरिया, आसमानी किरणों से ज़्यादा मज़बूती से निपट सकते हैं।
 
इतने सालों तक किसी कीटाणु के ज़िंदा रहना इंसानों के लिए अहम साबित हो सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि हमारी धरती पर ज़िंदगी किसी और ग्रह, किसी और आकाशगंगा से आई हो, किसी धूमकेतु या उल्कापिंड के ज़रिए। इसी नज़रिए से मंगल ग्रह पर ज़िंदगी की उम्मीदें भी जगी हैं।
 
वैज्ञानिकों को एक डर भी सता रहा है। उन्हें लगता है कि साइबेरिया या अंटार्कटिका के बेहद सर्द माहौल में कुछ ऐसे बैक्टीरिया या वायरस हो सकते हैं जिनसे इंसानों को नई बीमारी होने का डर हो। कुछ बीमारियों की पुरानी किस्मों के वायरस, बर्फ़ की परतों में छुपे हो सकते हैं। लेकिन, इससे धरती पर सबसे पुराने जीव की तलाश ख़त्म नहीं होती। ये बेहद सूक्ष्म जीव, आज की दुनिया पर गहरी और बड़ी छाप छोड़ रहे हैं।

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