फ़र्नांडो डुआर्ते, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस
दुनिया भर में मौसम के रिकॉर्ड टूट रहे हैं। कहीं बाढ़, कहीं गर्मी का कहर तो कहीं जंगलों की आग। इन आपदाओं ने लोगों को घेर रखा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इनमें से कई घटनाओं का संबंध मनुष्यों द्वारा किए गए 'जलवायु परिवर्तन' से है और चिंता इस बात की है कि आने वाले समय में इनकी भविष्यवाणी कर पाना और भी मुश्किल हो सकता है।
चीन के ज़ंगज़ाऊ शहर में यही हुआ, जहाँ 19 जुलाई को, एक ही दिन में 624 मिलीमीटर बारिश हुई जो वहाँ एक साल में होने वाली बारिश की मात्रा के बराबर है। इसकी वजह से दो लाख लोगों को सुरक्षित जगहों पर ले जाना पड़ा और 33 लोगों की मौत हो गई।
इससे एक सप्ताह पहले, पश्चिमी जर्मनी में बाढ़ ने भारी तबाही मचाई। वहाँ आधिकारिक तौर पर 177 लोगों की मौत हुई और सौ से ज़्यादा लोगों का पता नहीं चल पाया। इसके अलावा, बाढ़ का असर पड़ोसी देश बेल्जियम में भी देखा गया, जहाँ से बाढ़ के कारण 37 लोगों के मारे जाने की ख़बर आई।
'असामान्य रूप से अधिक' बारिश
चीन की तरह ही, दो यूरोपीय देशों ने अचानक ही 'असामान्य रूप से अधिक' बारिश का सामना किया। इन घटनाओं को लेकर दुनिया भर के नेताओं में चिंता देखी गई है। जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल ने भी इन दुखद घटनाओं के लिए जलवायु परिवर्तन को ही दोषी ठहराया है।
एक प्रसिद्ध भारतीय जलवायु विज्ञानी और सैन डिएगो में कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर वीरभद्रन रामनाथन कहते हैं कि "जर्मनी जैसे अत्यधिक उन्नत देश में बाढ़ से इतने लोगों की मौत को देखकर मुझे चिंता होती है कि ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने के लिए समाज आख़िर कितना तैयार है।"
रामनाथन मानते हैं कि अगले 20 वर्षों में मौसम से संबंधित घटनाएं 'उत्तरोत्तर ख़राब' होती जायेंगी। वे कहते हैं कि ख़राब मौसम से जुड़ी ये घटनाएं अब इतनी तीव्र और लगातार हो रही हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन को इनके लिए ज़िम्मेदार ठहराना मुश्किल नहीं है।
पर क्या वास्तव में मौसम ही इसके लिए ज़िम्मेदार है?
पिछले दो दशक से, वैज्ञानिक ख़राब मौसम की घटनाओं और ग्रीन-हाउस गैसों के मानव-उत्सर्जन द्वारा संचालित ग्लोबल वॉर्मिंग के बीच संभावित संबंधों का अध्ययन कर रहे हैं।
हालांकि, वैज्ञानिक समुदाय के बीच यह आम सहमति है कि ख़राब मौसम की घटनाओं के प्राकृतिक कारण बिल्कुल हो सकते हैं, पर इस बात के भी प्रमाण काफ़ी हैं कि मानव-जनित जलवायु परिवर्तन इन घटनाओं को अधिक संभावित और अधिक तीव्र बना सकता है। ये बात साफ़ है कि 2021 में दुनिया भर में मौसम के तमाम रिकॉर्ड लगातार टूटते रहे हैं।
पिछले महीने, अमेरिका और कनाडा के एक बड़े क्षेत्र में गर्मी के सारे रिकॉर्ड टूट गये और लोगों पर जून का महीना बहुत भारी बीता। कनाडा में तो एक जगह गर्मी के कारण जंगलों में आग लगने से ब्रिटिश कोलंबिया का एक पूरा गाँव जलकर तबाह हो गया।
दोनों देश अब भी हीट-वेव और उसके बाद के सूखे से जुड़ी 'रिकॉर्ड तोड़' जंगलों की आग का सामना कर रहे हैं। कैलिफ़ॉर्निया में इस साल 4,900 से ज़्यादा आग की घटनाएं दर्ज की जा चुकी हैं, जो पिछले साल (2020) की तुलना में 700 अधिक हैं।
इनके अलावा, रूस की राजधानी मॉस्को ने भी इसी साल, 120 सालों में अपना सबसे गर्म जून रिकॉर्ड किया। मॉस्को के अलावा, सर्बिया जो कि दुनिया के सबसे ठंडे क्षेत्रों में से एक है - वहाँ भी जुलाई में गर्मी के सारे रिकॉर्ड टूट गये।
इससे पहले, भारतीय मौसम विभाग ने मई में रिपोर्ट दी थी कि राजधानी नई दिल्ली ने उच्च तापमान से लेकर बारिश तक का कोई ना कोई रिकॉर्ड बीते महीनों में तोड़ा है।
मौसम विशेषज्ञ और मौसम के इतिहासकार मैक्सिमिलियानो हेरेरा का दावा है कि 2021 में अब तक, 26 देशों में 260 से अधिक 'उच्च तापमान' के रिकॉर्ड बन चुके हैं।
जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करने वाले दुनिया के अग्रणी संस्थानों में से एक, रॉयल नीदरलैंड मौसम विज्ञान संस्थान के एक जलवायु शोधकर्ता गीर्ट जान वैन ओल्डनबर्ग कहते हैं कि "नये रिकॉर्ड्स की ये संख्या वास्तव में चौंकाने वाली है। हमने इतनी उम्मीद बिल्कुल नहीं की थी।"
उनके अनुसार, "सबसे बड़ी समस्या ये है कि हमने इसे इतनी तीव्रता से आते नहीं देखा है।"
क्या वैज्ञानिक मौसम में इस बदलाव की भविष्यवाणी करने में विफल हो रहे हैं?
बीबीसी के पर्यावरण विश्लेषक रॉजर हैराबिन के अनुसार, जलवायु वैज्ञानिकों ने वर्षों से सही चेतावनी दी है कि 'तेज़ी से गर्म होने वाली जलवायु दुनिया भर में भारी बारिश की संभावनाओं को बढ़ायेगी और अधिक हानिकारक हीटवेव पैदा करेगी।'
उदाहरण के लिए, 2004 में वैज्ञानिकों ने चिलचिलाती गर्मी का अध्ययन किया था, जिससे पूरे यूरोप में क़रीब 30,000 मौतें हुईं थीं और इसका निष्कर्ष यह निकला कि 20वीं शताब्दी के दौरान मानव-निर्मित उत्सर्जन ने उस तरह की चरम मौसम की घटनाओं की संभावना को दोगुना कर दिया है।
लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह की चरम सीमाओं की भविष्यवाणी करना कठिन होता जा रहा है और उन्होंने स्वीकार किया कि वो जर्मनी-बेल्जियम में आयी बाढ़ और उत्तरी अमेरिका में हीट-वेव की तीव्रता की भविष्यवाणी करने में विफल रहे हैं।
वैज्ञानिकों को चिंता है कि मौजूदा जलवायु मॉडल इतने शक्तिशाली नहीं हैं कि वो ख़राब मौसम की घटनाओं की गंभीरता का अनुमान लगा सकें।
ब्रिटेन के मौसम विभाग के पूर्व मुख्य वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर डेम जूलिया स्लिंगो ने कुछ वक़्त पहले बीबीसी से बातचीत में कहा था कि "हमें मौसम की जानकारी देने वाले मॉडल के मामले में एक बड़ी छलांग लगाने की ज़रूरत है, ताकि इन चरम परिस्थितियों की सही भविष्यवाणी की जा सके।"
उन्होंने कहा था कि "जब तक हम ऐसा नहीं करते, तब तक हम चरम सीमाओं की तीव्रता और उनकी आवृत्ति को कम करके ही आँकते रहेंगे।"
हर टूटता रिकॉर्ड जलवायु परिवर्तन से जुड़ा नहीं
हालांकि, यह नोट करना भी महत्वपूर्ण है कि मौसम की ख़राबी से जुड़ी हर चरम घटना को जलवायु परिवर्तन से नहीं जोड़ा जा सकता और जलवायु विज्ञान की एक शाखा जिसे एट्रिब्यूशन कहा जाता है, असामान्य मौसम की घटनाओं के कारणों को निर्धारित करने में माहिर है।
उदाहरण के लिए, 2013 में, ब्रिटेन के मौसम विभाग के शोधकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि 2007 और 2012 से यूके में वास्तव में गीली गर्मी का एक दौर उत्तरी अटलांटिक महासागर के तापमान में प्राकृतिक बदलाव से जुड़ा था।
दक्षिण अमेरिकी शोधकर्ताओं ने भी यह पाया कि अत्यधिक सूखे के पीछे भी प्राकृतिक कारण थे जिसने 2019-2020 में दुनिया के सबसे बड़े वेट-लैंड, पैंटानल में भारी जंगल की आग को जन्म दिया।
लेकिन वैश्विक शोध समूह, वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन के अनुसार, उत्तर अमेरिकी हीटवेव के मामले में ऐसा होने की संभावना नहीं है।
इसने तर्क दिया कि रिकॉर्ड तापमान इतना चरम पर था कि वो ऐतिहासिक रूप से देखे गये तापमान की सीमा से बहुत दूर था और अवलोकन और मॉडलिंग के आधार पर, क्षेत्र में देखे गये अधिकतम दैनिक तापमान के साथ एक हीटवेव की घटना मानवीय संलिप्तता के बिना लगभग असंभव थी, जो स्पष्ट रूप से जलवायु परिवर्तन का कारण बनी।
ये टीम जर्मनी और बेल्जियम की बाढ़ का भी विश्लेषण कर रही है जिसके परिणाम अगस्त के मध्य तक आने की उम्मीद है।
डॉक्टर वैन ओल्डनबर्ग, जो इस विश्लेषण में भाग लेंगे, वे कहते हैं कि वैज्ञानिक जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन से भारी वर्षा अधिक होती है और उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में चरम मौसम की अधिकांश घटनाओं में मानव निर्मित जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का प्रमाण पाया है।
जलवायु विज्ञान में नवीनतम विकास को कवर करने वाली ब्रिटेन स्थित एक वेबसाइट, 'द कार्बन ब्रीफ़' ने साल 2020 तक, पिछले दो दशकों में दुनिया भर में 405 ख़राब मौसम की घटनाओं और रुझानों को देखते हुए 350 से अधिक अध्ययनों के आधार पर एक विश्लेषण, इसी वर्ष की शुरुआत में प्रकाशित किया था।
उन घटनाओं में से लगभग 70 प्रतिशत को मानव-जनित जलवायु परिवर्तन ने अधिक संभावित या अधिक गंभीर बना दिया गया था।
'अब क़दम उठाने का समय है'
मौजूदा पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए, दुनिया भर के तमाम नेता इसी साल नवंबर में स्कॉटलैंड में होने वाले 'सीओपी-26 संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन' में मिलने वाले हैं जिसमें वो कार्बन-उत्सर्जन में कटौती की अपनी योजनाएं पेश करेंगे।
कई वैज्ञानिकों और राजनेताओं का मानना है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे और 1।5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने जैसी प्रतिबद्धताओं पर इस शिखर सम्मेलन से पहले ही पुनर्विचार किये जाने की आवश्यकता है।
प्रोफ़ेसर रामनाथन कहते हैं, "मेरा अनुमान है कि साल 2030 तक वॉर्मिंग 1।5 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाएगी, भले ही हम कुछ भी कर लें।"
"और यह प्रक्रिया लगभग 2040 तक जारी रहेगी और फिर वैश्विक स्तर पर जलवायु क्रियाओं के जवाब में कर्व (वक्र) झुकता हुआ दिखाई देने लगेगा। मुझे लगता है कि साल 2040 के बाद यह ठंडा होना शुरू हो जाएगा, बशर्ते हम अभी से इस पर काम करें।"
संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन मामलों की कार्यकारी सचिव, पेट्रीसिया एस्पिनोसा ने भी हाल ही में इसी तरह की चेतावनी दी थी।
एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि "नंबर ही अब हमें और क्या दिखा सकते हैं, जिसे हम पहले ही नहीं देख पा रहे हैं। मैं नहीं जानती कि हमें अब और क्या प्रमाण चाहिए। बाढ़, जंगल की आग, सूखा और तूफ़ान समेत अन्य घातक घटनाओं के बारे में आँकड़े और क्या कह सकते हैं?"
उन्होंने कहा, "संख्या और आँकड़े अमूल्य हैं। लेकिन दुनिया को अब जो चाहिए, वो है जलवायु के मामले में पुख्ता एक्शन।"