राघवेंद्र राव, बीबीसी संवाददाता
भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी पर पिछले एक साल से भी अधिक समय से चल रहा विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है।
दोनों देशों के बीच कोर कमांडर स्तर की 11 बैठकें हो चुकी हैं और 12वीं बैठक के लिए चीन ने 26 जुलाई सोमवार की तारीख़ का सुझाव दिया था लेकिन भारत इस दिन कारगिल विजय दिवस मना रहा था इसलिए ये बैठक नहीं हो सकी और अब एक नई तारीख़ की घोषणा का इंतज़ार किया जा रहा है।
इस विवाद का ताज़ा अध्याय अप्रैल 2020 में शुरू हुआ था जब चीन ने विवादित एलएसी के पूर्वी लद्दाख और अन्य इलाकों में बड़ी संख्या में सैनिकों और हथियारों के साथ मोर्चाबंदी की जिससे गलवान घाटी, पैंगोंग त्सो और गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स जैसे इलाकों में दोनों देशों की सेनाएँ आमने-सामने आ गईं।
इस गतिरोध ने 15 जून को हिंसक रूप तब ले लिया जब लद्दाख की गलवान घाटी में हुए संघर्ष में 20 भारतीय सैनिकों की मौत हो गई।
कई महीनों बाद चीन ने इतना ही माना कि इस झड़प में उसके 4 सैनिकों की मौत भी हुई थी जबकि कई जानकार कहते हैं कि चीनी सैनिकों की मौत का आंकड़ा इससे कहीं ज़्यादा था।
समझौते की घोषणा
इस साल फरवरी में दोनों देशों ने एक समझौते की घोषणा की जिसके तहत उन्हें पैंगोंग त्सो के उत्तरी और दक्षिणी किनारे पर चरणबद्ध और समन्वित तरीके से तनाव को कम करना था।
इस समझौते के बावजूद एलएसी के कई इलाकों में तैनाती और गश्त से संबंधित कई बकाया मुद्दे हैं जिनका हल निकालने के लिए दोनों देश बातचीत करने की कोशिश कर रहे हैं।
दोनों देशों के बीच अब भी गोगरा और हॉट स्प्रिंग्स, डेमचोक और डेपसांग जैसे इलाकों को लेकर चल रहा विवाद सुलझा नहीं है। एलएसी पर भारत और चीन के बीच कई सालों से कम-से-कम 12 जगहों पर विवाद रहा है।
नई ख़बरों के मुताबिक़, पिछले साल गतिरोध शुरू होने के बाद पांच नए इलाकों में भी दोनों देशों का विवाद सामने आया है।
सैन्य गतिरोध
ये पांच इलाके हैं- गलवान क्षेत्र में किलोमीटर 120, पैट्रोलिंग पॉइंट 15, पैट्रोलिंग पॉइंट 17 और पैंगोंग त्सो के दक्षिणी किनारे पर रेचिन ला और रेज़ांग ला।
सोमवार को अंग्रेजी अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' ने एक ख़बर में वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के हवाले से कहा कि चीनियों ने पूर्वी लद्दाख के डेमचोक में चारडिंग नाला के भारतीय हिस्से में तंबू लगा लिए हैं।
इस ख़बर में कहा गया कि भारत ने इन लोगों को वापस जाने के लिए कहा है लेकिन फिर भी उनकी उपस्थिति वहां बनी हुई है। बीबीसी आधिकारिक तौर पर इस ख़बर की सत्यता की पुष्टि नहीं कर सका है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि एक साल से ज्यादा समय बीत जाने पर भी दोनों देशों के बीच चल रहा सैन्य गतिरोध ख़त्म होने के करीब नहीं है।
गतिरोध और बातचीत
हाल ही में ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में शंघाई कोऑपरेशन आर्गेनाईजेशन (एससीओ) के विदेश मंत्रियों की बैठक के दौरान भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने चीन के विदेश मंत्री वांग यी से मुलाकात की थी और ये याद दिलाया था कि दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हुए थे कि मौजूदा स्थिति को लंबा खींचना किसी भी पक्ष के हित में नहीं है और यह संबंधों को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है।
डॉ. जयशंकर ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि साल 1988 से सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति बनाए रखना दोनों देशों के संबंधों के विकास का आधार रहा है।
उन्होंने यह भी कहा था कि पिछले साल यथास्थिति को बदलने के प्रयास ने दोनों देशों के संबंधों को प्रभावित किया है और यथास्थिति बदलने की ये कोशिश दोनों देशों के बीच 1993 और 1996 के समझौतों की अवहेलना भी थी।
कोर कमांडर स्तर की 11वीं बैठक
इस मुलाकात के बाद दोनों देशों के विदेश मंत्री इस बात पर सहमत हुए कि अगले दौर की कमांडर स्तरीय वार्ता जल्द से जल्द बुलाई जानी चाहिए जिसमें दोनों पक्षों को शेष सभी मुद्दों पर चर्चा करनी चाहिए और पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समाधान की तलाश करनी चाहिए।
एक समझ यह भी थी कि दोनों पक्ष ज़मीन पर स्थिरता सुनिश्चित करना जारी रखेंगे और कोई भी पक्ष कोई एकतरफा कार्रवाई नहीं करेगा जिससे तनाव और बढ़े।
भारत-चीन कोर कमांडर स्तर की 11वीं बैठक 9 अप्रैल को चुशुल-मोल्दो सीमा पर आयोजित की गई थी। दोनों पक्षों ने पूर्वी लद्दाख में एलएसी पर चल रहे गतिरोध के समाधान के लिए विस्तृत बातचीत की थी। इस बैठक के बाद भारत ने कहा था कि दोनों पक्ष मौजूदा समझौतों और प्रोटोकॉल के अनुसार बकाया मुद्दों को शीघ्रता से हल करने की आवश्यकता पर सहमत हुए।
'ये मसला लंबा खिंचेगा'
डॉक्टर अलका आचार्य जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के पूर्वी एशियाई अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर हैं। बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने कहा कि इस मसले में बहुत से ऐसी बातें हैं जिनके बारे में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है।
वे कहती हैं, "मसलन, हमें यह नहीं पता कि लद्दाख में क्या स्थिति है। भारत का आधिकारिक तौर पर ये कहना है कि पहले की स्थिति बहाल की जानी चाहिए। जो हुआ है वो भारत के खिलाफ गया है। हमारी ज़मीन पर चीन आकर बैठ गया है लेकिन भारत की तरफ से ऐसा कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है जिसमे ये साफ़ तौर पर कहा गया है कि भारत का क्या गया है।"
प्रोफेसर आचार्य का मानना है कि ये मामला आसानी से हल नहीं होने वाला है। वे कहती हैं, "ये सोचना कि कमांडर स्तर पर बात करके इसका हल निकाल लिया जाएगा, मुझे नहीं लगता कि ऐसा होगा। उच्चतम स्तर पर राजनीतिक हस्तक्षेप की ज़रूरत है लेकिन वो होता दिख नहीं रहा है। भारत के प्रधानमंत्री ने इस मसले पर शुरू में कहा था कि किसी ने भारतीय क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया और न ही भारतीय चौकियों पर कब्जा किया गया है। उसके अलावा प्रधानमंत्री की तरफ से कुछ भी नहीं बताया गया है।"
प्रोफेसर आचार्य कहती हैं कि वे इस समय इस मसले को लेकर बहुत आशावादी नहीं हैं। वो कहती हैं, "चीन का अपने कब्ज़े वाली ज़मीन को खाली कर देना आसान नहीं दिख रहा है। पर भारत के पास अभी शायद ऐसे संसाधन नहीं है कि वो इतनी संख्या में सैनिक वहां ले जाए और बलपूर्वक ये ज़मीन वापस हासिल कर ले। ये अगर होना होता तो अब तक किया जा चुका होता। ये न हो पाना दिखाता है कि वहां गंभीर कठिनाइयाँ हैं। सर्दियों में ये कठिनाइयाँ और बढ़ जाएँगी।"
उनका मानना है कि "ये मसला लंबा खिंचेगा" और "उस दौरान दोनों देशों के रिश्तों में खटास बढ़ती जाएगी।"
प्रोफेसर आचार्य के अनुसार ये देखना होगा कि वो कौन से कारण या परिस्थितियाँ होंगी जो दोनों देशों को इस मामले में समझौता करने के लिए प्रेरित करेंगी।
'चीन रियायत देने के मूड में नहीं'
भारतीय सेना के सेवानिवृत मेजर जनरल एसबी अस्थाना सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं। उनका मानना है कि भारत के पास लीवरेज की कमी के कारण उसे सैन्य स्तर की वार्ता पर बहुत अधिक उम्मीद नहीं रखनी चाहिए।
वे कहते हैं, "कैलाश रेंज पर भारत के कब्जे से चीन असहज था। इसका एक कारण यह था कि इससे चीन के मोल्डो गैरीसन को खतरा था, लेकिन इससे भी अधिक उनकी अंतरराष्ट्रीय छवि को खतरा था। वो खतरा ये था कि भारत ने इतनी बड़ी कार्रवाई की और चीन कुछ न सका। इसलिए वे चाहते थे कि भारत किसी तरह कैलाश रेंज से नीचे उतर जाए। एक बार जब भारत कैलाश रेंज से नीचे उतर गया, तो चीन ने बात करना बंद कर दिया।"
वे कहते हैं, "अब चीन भारत से कह रहा है कि सीमा को भूल जाइए और हमेशा की तरह व्यापार करना शुरू कर दीजिए। अगर भारत हमेशा की तरह कारोबार शुरू करता है, तो पांच-छह साल बाद चीन भारत से सीमा को उस तरह से तय करने के लिए कहेगा जिस तरह से दोनों देश साल 2020 में एलएसी पर खड़े थे।"
अस्थाना कहते हैं, "चीन निश्चित तौर पर डेपसांग पर अपनी पकड़ नहीं छोड़ने वाला है। जहां तक गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स का संबंध है, चीन कुछ किलोमीटर पीछे हटने के लिए सहमत हो सकता है अगर भारत भी ऐसा ही करने को राज़ी हो जाए। ऐसी स्थिति में एक ऐसा बफर ज़ोन बन जाएगा जो एलएसी के भारत की तरफ होगा। मुझे लगता है कि चीनी पक्ष यही कोशिश करेगा। यह देखना बाक़ी है कि दोनों देशों की बातचीत में क्या होता है।"
अस्थाना के अनुसार भारत का लक्ष्य अप्रैल 2020 में जो स्थिति थी उसे बहाल करना ही रहा है। वे कहते हैं, "जहां तक पैंगोंग त्सो सेक्टर की बात है तो भारत ने वह स्थिति हासिल कर ली है जो अप्रैल 2020 में थी।"
दोनों देशों के बीच होने वाली कोर कमांडरों की 12वीं बैठक को लेकर अस्थाना कहते हैं कि भारत को बहुत अधिक उम्मीदें नहीं लगानी चाहिए।
वे कहते हैं, "तथ्य यह है कि शी जिनपिंग तिब्बत गए हैं, तथ्य यह है कि उन्होंने लगभग 680 गांवों को एलएसी के साथ स्थापित करने के लिए मंजूरी दे दी है, तथ्य ये भी है कि चीन एलएसी के पास पहले की तुलना में और भी अधिक बुनियादी ढांचे का निर्माण कर रहा है, इसका मतलब है कि चीन कोई रियायत देने के मूड में नहीं है।"
अस्थाना मानते हैं कि इस बात की कोई संभावना नहीं है कि चीनी वापस चले जाएंगे या वे डेपसांग में उन्होंने जो कुछ भी बनाया है वे उसे नष्ट कर देंगे। उनके अनुसार केवल गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स में कुछ हद तक विवाद के सुलझने की उम्मीद है। वे कहते हैं, "डेपसांग चिंता का विषय है क्योंकि यह दौलत बेग ओल्डी हवाई पट्टी के लिए खतरा है।"