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मोदी ने रातोंरात यूं बदला मतदाताओं का मिज़ाज

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, मंगलवार, 19 दिसंबर 2017 (11:22 IST)
- संजय कुमार (डायरेक्टर, सीएसडीएस)
एक वक़्त ऐसा लग रहा था कि गुजरात में काफ़ी क़रीबी टक्कर है, लेकिन आख़िरकार बीजेपी ने बाजी मार ही ली। कांग्रेस इस चुनावी जंग में मजबूती से सामने आई और उसने अपने वोट शेयर में मामूली इज़ाफ़ा भी किया। हालांकि इसके बावजूद कांग्रेस मोदी और अमित शाह को उनके घर में पटकनी नहीं दे पाई।
 
बीजेपी ने हिमाचल प्रदेश में भी आसान जीत दर्ज़ की। इसके साथ ही बीजेपी ने अपने शासन के दायरे में एक और राज्य को शामिल कर लिया। बीजेपी का कांग्रेस शासित राज्यों पर जीत का सिलसिला थम नहीं रहा है। हिमाचल प्रदेश की जीत ने बीजेपी को 'कांग्रेस मुक्त भारत' मिशन के और क़रीब पहुंचा दिया है।
 
यह सच है कि बीजेपी ने दोनों राज्यों में जीत हासिल की है, लेकिन यह पार्टी से ज़्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत है। तथ्यों से साफ़ है कि कांग्रेस बीजेपी को चुनौती देती नज़र आती है तो नरेंद्र मोदी अकेले ही हालात को संभालते हैं और बीजेपी को जीत की दहलीज तक पहुंचा देते हैं।
 
गुजरात से हैरानी?
इस बात की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है कि मोदी के ख़िलाफ़ मणिशंकर अय्यर जैसे नेताओं की टिप्पणी कांग्रेस के चुनावी अभियान को दिशाहीन करती है।
 
हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की जीत को लेकर किसी को भी शक नहीं था। हिमाचल प्रदेश का इतिहास रहा है कि यहां पांच सालों में सरकारें बदलती हैं। प्रदेश के पांच सालों के शासन का स्वाभाविक रूप से बीजेपी पाले में जाना था, लेकिन गुजरात में बीजेपी की जीत से ज़्यादातर लोग हैरान हुए हैं।
 
गुजरात में बीजेपी के ख़िलाफ़ कई चीज़ें थीं। 22 सालों की सत्ता विरोधी लहर थी, हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पाटीदारों का आंदोलन था, जिग्नेश मेवाणी की अगुवाई में दलितों का आंदोलन था और पिछड़ी जाति ठाकोर की नाराज़गी थी जिसका नेतृत्व अल्पेश ठाकोर कर रहे थे।
 
गुजरात में नरेंद्र मोदी का नहीं होना भी बीजेपी के ख़िलाफ़ लग रहा था। लेकिन सारी समस्याओं को बीजेपी ने किनारा करते हुए एक बार फिर से गुजरात में जीत हासिल कर ली। हालांकि 2012 में बीजेपी को 115 सीटें मिली थीं और इस बार 99 सीटों पर ही जीत मिली है।
 
हालांकि इस बार बीजेपी के वोट शेयर में मामूली बढ़ोतरी हुई है। 2012 में बीजेपी का वोट शेयर 48।30 फ़ीसदी था और इस बार 49।1 फ़ीसदी है।
 
कैसे मिली बीजेपी को जीत?
बीजेपी के पक्ष में आख़िर ऐसे कौन से कारक थे जिससे जीत मिली? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आख़िर दो हफ़्तों में काफ़ी आक्रामक चुनाव प्रचार किया। इसका असर मतदान के बाद हुए सर्वे में भी साफ़ दिखा। सीएसडीएस के सर्वे में भी दिखा कि मोदी के चुनावी अभियान के कारण बीजेपी के पक्ष में वोटर लामबंद हुए।
 
जिन मतदाताओं ने कांग्रेस के पक्ष में वोट करने का मन शुरुआत में ही बना लिया था उसकी तुलना में बड़ी संख्या में मतदाताओं ने मतदान के ठीक पहले मोदी के पक्ष में वोट करने का फ़ैसला किया। मोदी के कैंपेन के बाद बीजेपी के पक्ष में मतदान का रुख़ बड़े स्तर पर शिफ़्ट हुआ।
 
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि गुजरात में क़रीब 35 फ़ीसदी मतदाताओं ने मतदान के कुछ दिन पहले अपना मन बनाया। शुरुआत के कुछ हफ़्तों में कांग्रेस ने आक्रामक चुनावी अभियान चलाया था।
 
कांग्रेस के इस कैंपेन के कारण बीजेपी बैकफुट पर नज़र आ रही थी, लेकिन जब नरेंद्र मोदी ने भी आक्रामक कैंपेन शुरू किया तो कांग्रेस के चुनावी अभियान पर भारी पड़ने लगा। मणिशंकर अय्यर की टिप्पणी के बाद मोदी के चुनावी कैंपेन को और गति मिली।
 
अय्यर की नीच वाली टिप्पणी के बाद बीजेपी पूरी तरह से हमलावर हो गई थी। मोदी ने मणिशंकर अय्यर के बयान को गुजराती गौरव और पहचान से जोड़ा। इसके बाद कांग्रेस चुनावी अभियान में बीजेपी के मुक़ाबले बैकफुट पर आई और उसने जो बीजेपी के ख़िलाफ़ माहौल बनाया था उसे धक्का लगा।
 
कांग्रेस ने हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, अल्पेश ठाकोर और छोटू वसावा जैसे विभिन्न समुदाय के नेताओं के साथ गठबंधन की कोशिशें कीं जिसके परिणामस्वरूप पिछले चुनावों के विपरीत इन समुदायों के कुछ वोट कांग्रेस को अधिक मिले।
 
पाटीदारों के अधिकतर वोट बीजेपी को
हालांकि, यह बदलाव कांग्रेस को जीत का स्वाद नहीं चखा पाया। कांग्रेस को आशा थी कि पाटीदारों के वोट उसके पक्ष में जाएंगे, लेकिन चुनावों के बाद हुए सर्वेक्षणों से पता चला कि पाटीदारों के 40 फ़ीसदी से भी कम वोट कांग्रेस को मिले जबकि बीजेपी 60 फ़ीसदी पाटीदारों के वोट पानी में सफ़ल रही।
 
जिग्नेश मेवानी के साथ गठबंधन भी कांग्रेस के लिए काम नहीं कर सका। 47 फ़ीसदी दलितों के वोट कांग्रेस को मिले जबकि बीजेपी 45 फ़ीसदी दलित वोट पाने में सफल रही।
 
इसी तरह से ओबीसी वोट भी कांग्रेस और बीजेपी के बीच बंट गया। पाटीदारों के गए वोटों की भरपाई बीजेपी ने आदिवासी वोटों से की। 52 फ़ीसदी आदिवासी वोट बीजेपी को गए। वहीं, केवल 40 फ़ीसदी आदिवासियों के वोट कांग्रेस को गए।
 
यह बात ग़ौर करने वाली है कि पिछले चुनावों में आदिवासियों ने बड़ी संख्या में कांग्रेस को वोट दिया था। कांग्रेस ने अगर छोटू वसावा के साथ गठबंधन नहीं किया होता तो बीजेपी को और भी अधिक आदिवासियों के वोट मिलते। प्रचार के दौरान कांग्रेस ने आदिवासी वोटों को वापस पा लिया था।
 
वैसे तो बीजेपी को गुजरात में एक और चुनाव जीतने के लिए और कांग्रेस से हिमाचल प्रदेश को छीनने के लिए ख़ुश होना चाहिए, लेकिन इन जीतों का ये मतलब नहीं है कि गुजरात में सत्ताधारी पार्टी के भीतर सब ठीक चल रहा था।
 
कुल मिलाकर देखा जाए तो सरकार के विकास कार्यों का रिकॉर्ड संतोषजनक है, लेकिन अब भी अंसतोष और निराशा की आहट साफ़ देखी जा सकती है। गुजरात और हिमाचल, दोनों जगहों पर वोटरों की एक बड़ी संख्या है जो सरकार की नोटबंदी और जीएसटी जैसी नीतियों से असंतुष्ट है।
 
किसान सरकार से ख़फ़ा हैं क्योंकि वो उनकी मुश्किलें हल करने के लिए ज़रूरी कोशिशें नहीं कर रही है। युवा वर्ग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ़ उस तरह आकर्षित नहीं था जैसे कि 2014 के आम चुनावों के ठीक बाद।
 
पीएम मोदी से भी उनकी नाराज़गी देखी जा सकती थी। लेकिन इन सबके बावजूद एक बड़ी आबादी ने कांग्रेस को वोट नहीं दिया। जाहिर है, कांग्रेस लोगों की बीजेपी के प्रति निराशा को ग़ुस्से में तब्दील नहीं कर पाई। गुजरात में बीजेपी सरकार को हटाने के लिए वोटरों की नाराज़गी भर काफ़ी नहीं थी।
 
बीजेपी को हराने के लिए गुस्से की ज़रूरत
बीजेपी को हराने के लिए एक गुस्से की ज़रूरत थी, लेकिन लोगों की नाराज़गी इतनी ज्यादा भी नहीं थी कि इस्से ग़ुस्से में बदला जा सके। बीजेपी को हार्दिक पटेल की रैलियों में उमड़ी भीड़ देखकर लोगों के असंतोष का अंदाज़ा हो गया था, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी अपनी तमाम रैलियों में गुजराती आन-बान का दांव खेलने में कामयाब रहे। उन्होंने गुजरात की जिस अस्मिता का सवाल उठाया, वो उनकी नाराज़गी को दबाने में सफल रहा।
 
अगर बीजेपी गुजरात में 49 फ़ीसदी वोटों से जीती है तो कांग्रेस 42 फ़ीसदी वोटों के बावजूद चुनाव हारी है। वहीं, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस चुनाव ज़रूर हार गई लेकिन फिर भी 42 फ़ीसदी वोट बनाने में कामयाब रही है। यह सच है कि पीएम मोदी बीजेपी के पक्ष में हवा बनाने में सफल रहे, लेकिन इस जीत के बावजूद बीजेपी के पास चिंतित होने की कई वजहें हैं।
 
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से बढ़ती बेरोज़गारी गुजराती युवाओं को बीजेपी से दूर कर रही है। बीजेपी की रीढ़ माने जाने वाले व्यापारी और कारोबार समुदाय में भी नाराज़गी है। अपने वफ़ादार समर्थकों को इस तरह खोना आने वाले दिनों में पार्टी के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। 

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