Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

गुजरात में बीजेपी की ज़मीन कमज़ोर या कांग्रेस की ख़ुशफ़हमी

हमें फॉलो करें गुजरात में बीजेपी की ज़मीन कमज़ोर या कांग्रेस की ख़ुशफ़हमी
, गुरुवार, 2 नवंबर 2017 (11:12 IST)
- आर के मिश्र (वरिष्ठ पत्रकार, गांधीनगर से)
दो दशक से ज्यादा वक्त हो गया, कांग्रेस ने गुजरात में विधानसभा का चुनाव नहीं जीता है। लेकिन इस बार कांग्रेस गुजरात में उभरती हुई नज़र आ रही है। भारतीय जनता पार्टी बैकफ़ुट पर नज़र आ रही है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस के लिए कोई चुनौती नहीं है।
 
गुजरात में भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से सत्ता में है। मतदाताओं का एक हिस्सा ऐसा भी है जो इस सरकार से हताश है। नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बनने से पहले गुजरात के सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री भी रहे। वरिष्ठ नेता केशुभाई पटेल की बदौलत भारतीय जनता पार्टी पहली बार साल 1995 में गुजरात में सत्ता में आ पाई। उसी साल भाजपा नेता शंकर सिंह वाघेला ने बग़ावत की और कांग्रेस की मदद से उनकी क्षेत्रीय पार्टी सरकार बनाने में क़ामयाब रही। बाघेला मुख्यमंत्री बने।
 
लेकिन 16 महीने बाद क्षेत्रीय पार्टी, राष्ट्रीय जनता पार्टी का प्रयोग उस समय विफल हो गया जब शंकर सिंह वाघेला ने जल्द चुनाव कराने का फ़ैसला किया। साल 1998 में केशुभाई ने वापसी की और उसके बाद साल 2001 में नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री बने। मोदी ने पार्टी को तीन विधानसभा चुनाव जिताए और साल 2014 में प्रधानमंत्री बनने तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज रहे। इस दौरान वाघेला ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और अभी कुछ महीने पहले ही दोबारा अपनी अलग क्षेत्रीय पार्टी के ज़रिए विकल्प पेश करने की कोशिश की।
 
गुजरात में बीजेपी संकट में!
आइए पहले ये समझने की कोशिश करते हैं कि भारतीय जनता पार्टी गुजरात में मौजूदा हालात में कैसे पहुंची। मोदी उस दौर में मुख्यमंत्री बने थे जब गुजरात भूकंप के झटकों में बिखरा हुआ था और भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपनी विश्वसनीयता खो रही थी।
 
साल 2003 में चुनाव होने वाले थे। मुख्यमंत्री मोदी के पास समय कम था। उन्होंने अपने विधायकों से कहा कि टेस्ट मैच का समय नहीं है। उसके बाद गोधरा कांड होता है और पूरे राज्य में साम्प्रदायिक दंगे होते हैं। ध्रुवीकरण के माहौल में साल 2002 के चुनाव होते हैं और मोदी अपने तरीके से सत्ता में वापसी करते हैं। मोदी ने तीन चुनावों के ज़रिए गुजरात पर 4,610 दिन तक शासन किया।
 
एक दशक से अधिक समय तक गुजरात पर राज करने के दौरान मोदी ने राज्य में पार्टी के भीतर और पार्टी के बाहर हर तरह के विपक्ष को कुचल दिया। तब मोदी के विरोध की ज़िम्मेदारी केंद्र की यूपीए सरकार पर थी। इस दौरान मोदी ने गुजरात में अपने से ज़्यादा वरिष्ठ नेताओं को किनारे किया। इस कड़ी में केशुभाई पटेल, काशीराम राणा, चिमनभाई शुक्ला और हरेन पंड्या के नाम लिए जा सकते हैं। तब गुजरात में संघ परिवार भी दो हिस्सों में बंटा हुआ था- एक थे मोदी के वफ़ादार और दूसरे जो मोदी के प्रति बहुत अधिक वफ़ादारी नहीं रखते थे।
 
मोदी के गुजरात छोड़ने का असर
मोदी गुजरात में एक के बाद एक चुनाव जीतते रहे, इसका मतलब ये है कि वो जनता की नब्ज़ पहचानते थे। गुजरात में सत्ता में रहने के दौरान मोदी ही पार्टी थे और मोदी ही सरकार। लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनकर गुजरात से जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी के साथ भ्रम तेज़ी से टूटने लगे। मोदी ने गुजरात में आनंदीबेन पटेल को अपना वारिस चुना। फिर आनंदीबेन की जगह विजय रूपाणी को लाया गया। दोनों मोदी का जादू बरकरार रखने में बुरी तरह विफल हुए। मोदी के सियासी जूते में किसी का पैर फ़िट नहीं हुआ।
 
मज़े की बात ये है कि पाटीदार आंदोलन भारतीय जनता पार्टी के भीतर से ही शुरु हुआ जो एक पाटीदार महिला मुख्यमंत्री से छुटकारा पाना चाहता था। लेकिन शेर की सवारी करना कब आसान होता है। तथ्य ये है कि भारतीय जनता पार्टी गुजरात में आज जिन बड़ी बाधाओं से जूझ रही है, उनमें से कुछ ख़ुद उसने ही खड़ी की हैं।
 
25 अगस्त 2015 को हार्दिक पटेल की राजनीति ख़त्म होने की कगार पर थी। लेकिन अहमदाबाद में पाटीदार रैली पर देर रात पुलिस के बल प्रयोग के बाद पटेल आंदोलन में नई जान आई। इसी तरह ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर को भारतीय जनता पार्टी के ही एक कैबिनेट मंत्री ने खड़ा किया था। उना में दलितों पर जो बीती और आनंदीबेन सरकार ने जिस तरह कार्रवाई की उससे जिग्नेश मेवानी की राजनीति का जन्म हुआ। जिग्नेश, अल्पेश और हार्दिक ये तीनों आज गुजरात सरकार के लिए सिरदर्दी हैं।
 
गुजरात में पिछले कुछ महीनों का घटनाक्रम इस ओर इशारा करता है कि भारतीय जनता पार्टी के गढ़ में सेंध लग सकती है और यही वजह है कि कांग्रेस इसे सिर्फ़ एक चुनाव मानकर नहीं चल रही है। हालांकि ये सवाल अपनी जगह है कि जनता का मूड इस बार कांग्रेस के पक्ष में है या वो भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ जाना चाहती है।
 
गुजरात में साल 2015 में हुए स्थानीय निकाय के चुनाव के नतीजे भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ गए हैं। ग्रामीण और अर्धशहरी इलाकों में कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी को धूल चटाई है। भारतीय जनता पार्टी की गुजरात में मौजूदा दशा को प्रधानमंत्री मोदी से बेहतर कोई नहीं समझ सकता।
 
चुनाव नहीं जंग
जंग में सब जायज़ होता है और मोदी के लिए हर चुनाव जंग की तरह ही होता है। मोदी ने अपने ज़ख़ीरे का हर हथियार निकाल लिया है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल और दो संदिग्ध चरमपंथियों के तार जोड़ने की कोशिश भी इसी जंग का हिस्सा है। कांग्रेस नेता पी चिदम्बरम को भी इसी तर्ज़ पर उनके कथित कश्मीरी बयान की वजह से निशाने पर लिया गया।
 
गुजरात विधानसभा चुनाव में मोदी का बहुत कुछ दांव पर लगा है। साल 2019 का लोकसभा चुनाव जीतना है तो मोदी 2017 में गुजरात किसी कीमत पर नहीं हारना चाहेंगे।
 
(ये लेखक के निजी विचार हैं)

हमारे साथ WhatsApp पर जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें
Share this Story:

वेबदुनिया पर पढ़ें

समाचार बॉलीवुड ज्योतिष लाइफ स्‍टाइल धर्म-संसार महाभारत के किस्से रामायण की कहानियां रोचक और रोमांचक

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

कांग्रेस किस दम पर देख रही है गुजरात में सत्ता का ख़्वाब?