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कश्मीर में हिंदू राज और गज़नी की अपमानजनक हार की कहानी

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BBC Hindi

- अव्यक्त (गांधी दर्शन और इतिहास के अध्येता)

भारत की तरह ही कश्मीर में भी इस्लाम के आगमन की कहानी इतिहास से पहले मिथकों के रूप में शुरू होती है। ख्वाजा मुहम्मद आज़म दीदामरी नाम के सूफी लेखक ने फारसी में 'वाक़यात-ए-कश्मीर' नाम से 1747 में एक किताब प्रकाशित की, जिसकी कहानियां पौराणिक कथाओं की तर्ज पर लिखी गई थीं। इसमें बताया गया है कि राक्षस जलदेव इस पूरे क्षेत्र को पानी में डुबाए रखता है। इस कहानी का नायक 'काशेफ' है, जिसे वह किसी मारिची का बेटा बताता है। काशेफ महादेव की तपस्या करता है और फिर महादेव के सेवक ब्रह्मा और विष्णु जलदेव का दमन कर काशेफ-सिर के नाम से इस क्षेत्र को रहने लायक बनाते हैं।

विद्वान मानते हैं कि यह काशेफ वास्तव में कश्यप ऋषि की कहानी है, जिसमें घालमेल कर उसे जाने-अनजाने मुस्लिम जैसा साबित करने की कोशिश हुई है। 'वाक़यात-ए-कश्मीर' लिखने वाले आज़म के बेटे बेदिया-उद-दीन इस मिथकीय कहानी को और भी दूसरे स्तर पर लेकर चले गए। उन्होंने तो इसे सीधे आदम की कहानी से जोड़ दिया। उसके मुताबिक कश्मीर में शुरू से लेकर 1100 साल तक मुसलमानों का शासन था जिसे हरिनंद नाम के एक हिंदू राजा ने जीत लिया। उसके मुताबिक कश्मीर की जनता को इबादत करना स्वयं हजरत मूसा ने सिखाया। उसके मुताबिक मूसा की मौत भी कश्मीर में ही हुई और उनका मकबरा भी वहीं है।

दरअसल, बेदिया-उद-दीन ने यह सब संभवतः शेख़ नूरुद्दीन वली (जिन्हें नुंद ऋषि भी कहा जाता है) के 'नूरनामा' नाम से कश्मीरी भाषा में लिखे गए कश्मीर के इतिहास पर आधारित करके लिख दिया। बहरहाल, इतिहासकारों ने चेरामन पेरूमल की कहानी की तरह इन कहानियों को भी कोई महत्व नहीं दिया है। पृथ्वीनाथ कौल बामज़ई एक प्रसिद्ध कश्मीरी इतिहासकार हुए हैं।
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कहा जाता है कि उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने उनसे कश्मीर का विस्तृत इतिहास लिखने का अनुरोध किया था। 1962 में प्रकाशित उनकी किताब 'ए हिस्ट्री ऑफ कश्मीर' की भूमिका स्वयं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी। तीन खंडों में लिखित 'कल्चर एंड पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ कश्मीर' इस प्रदेश के इतिहास को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत कहा जा सकता है।

इस्लाम से कश्मीर का पहला परिचय
बामज़ई के मुताबिक बिन-क़ासिम सिंध विजय के बाद कश्मीर की ओर बढ़ा ज़रूर था, लेकिन उसे कोई विशेष सफलता हाथ नहीं लगी। उसकी अकाल मृत्यु की वजह से उसका कोई दीर्घकालिक शासन भी स्थापित न हो सका। कश्मीर तक पहुंचने की दुर्गम भौगोलिक स्थिति की वजह से भी अरब वहां पहुंच पाने में असमर्थ रहे थे।

अरबों के साथ कश्मीरी हिंदू शासकों का पहला संपर्क कार्कोट राजवंश (625 से 885 ईस्वी) के दौरान हुआ था। मध्य एशिया और अफगानिस्तान के अपने अभियानों के दौरान इस वंश के प्रमुख राजाओं जैसे चंद्रपीड़ और ललितादित्य का सामना अरबों से हुआ और पहली बार उनका परिचय इस्लाम नाम के इस नए धर्म से हुआ। अरबों से उन्हें इतना खतरा महसूस हुआ कि ललितादित्य ने चीन के सम्राट के पास अपना राजदूत भेजकर मदद मांगी थी और अरबों के खिलाफ एक सैन्य गठबंधन बनाने का अनुरोध किया था।

महमूद ग़ज़नी कभी कश्मीर को नहीं जीत सका
कश्मीर की दुरूह भौगोलिक स्थिति की वजह से वहां किसी तरह का बाहरी घुसपैठ आसान नहीं था। इसके अलावा कश्मीर के राजा भी अपनी सीमाओं को पूरी तरह बंद रखते थे और बाहरी संपर्क को हतोत्साहित करते थे। 1017 में भारत की यात्रा करने वाले अल बरूनी ने इस बारे में बहुत ही शिकायती लहजे में लिखा है- 'कश्मीरी राजा खास तौर पर अपने राज्य के प्राकृतिक संसाधनों के बारे में बहुत चिंतित रहते हैं। इसलिए कश्मीर तक पहुंचने वाले हर प्रवेश-मार्ग और सड़कों पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए वे बहुत सावधानी बरतते हैं। इस वजह से उनके साथ किसी भी तरह का व्यापार करना भी बहुत मुश्किल है। वे किसी ऐसे हिंदू को भी अपने राज्य में नहीं घुसने देते जिन्हें वे व्यक्तिगत रूप से जानते न हों।

ध्यान रहे कि अल बरूनी का काल महमूद ग़ज़नी का काल भी है। भारत पर किए गए ग़ज़नी के कई आक्रमणों से हम परिचित हैं। ग़ज़नी से करीब सौ साल पहले काबुल में लल्लिया नाम के एक ब्राह्मण मंत्री ने अपनी राजशाही स्थापित की थी जिसे इतिहासकार 'हिंदू शाही' कहते हैं। उसने कश्मीर के हिंदू राजाओं के साथ गहरे राजनीतिक और सांस्कृतिक संबंध कायम किए थे।

ग़ज़नी ने जब उत्तर भारत पर हमला करने की ठानी तो उसका पहला निशाना यही साम्राज्य बना। उस समय काबुल का राजा था जयपाल। जयपाल ने कश्मीर के राजा से मदद मांगी। मदद मिली भी, लेकिन वह ग़ज़नी के हाथों पराजित हुआ। पराजित होने के बाद भी जयपाल के बेटे आनंदपाल और पोते त्रिलोचनपाल ने ग़ज़नी के खिलाफ लड़ाई जारी रखी।

त्रिलोचनपाल को तत्कालीन कश्मीर के राजा संग्रामराजा (1003-1028) से मदद भी मिली, लेकिन वह अपना साम्राज्य बचा न सका। 12वीं सदी में 'राजतरंगिणी' के नाम से कश्मीर का प्रसिद्ध इतिहास लिखने वाले कल्हण ने इस महान साम्राज्य के पतन पर बहुत दुःख जताया है। ग़ज़नी ने इसके बाद आज के हिमाचल का हिस्सा कांगड़ा भी जीत लिया, लेकिन कश्मीर का स्वतंत्र हिंदू साम्राज्य उसकी आंख का कांटा बना रहा। 1015 में उसने पहली बार तोसा-मैदान दर्रे के रास्ते कश्मीर पर हमला किया, लेकिन दुर्गम भौगोलिक परिस्थिति और कश्मीरियों के जबरदस्त प्रतिरोध की वजह से उसे बहुत अपमान के साथ वापस लौटना पड़ा।

यह भारत में किसी युद्ध में उसके पीछे हटने का पहला मौका था। वापसी में उसकी सेना रास्ता भी भटक गई और घाटी में आए बाढ़ में फंस गई। अपमान के साथ-साथ ग़ज़नी का नुकसान भी बहुत हुआ। छह साल बाद 1021 में अपने खोए हुए सम्मान को अर्जित करने के लिए ग़ज़नी से फिर से उसी रास्ते कश्मीर पर हमला किया।

लगातार एक महीने तक उसने जबरदस्त प्रयास किया, लेकिन लौहकोट की किलाबंदी को वह भेद न सका। घाटी में बर्फबारी शुरू होने वाली थी और ग़ज़नी को लग गया कि इस बार उसकी सेना का हाल पिछली बार से भी बुरा होनेवाला है। वह कश्मीर की अजेय स्थिति को भांप चुका था। दोबारा अपमान का घूंट पीते हुए उसे फिर से वापस लौटना पड़ा। उसके बाद उसने कश्मीर के बारे में सोचना भी बंद कर दिया।

कश्मीर के हिंदू राजा हर्षदेव पर इस्लाम का प्रभाव
उत्पाल वंश के राजा हर्षदेव या हर्ष ने 1089 से 1111 (कुछ विद्वानों के अनुसार 1038-1089) तक कश्मीर पर शासन किया। उसके बारे में माना जाता है कि वह इस्लाम की सीखों से प्रभावित हो गया और इस कदर प्रभावित हो गया कि न केवल उसने खुद मूर्तिपूजा छोड़ दी, बल्कि कश्मीर में मौजूद मूर्तियों, हिंदू मंदिरों और बौद्ध मंदिरों को भी ध्वस्त करने लगा।

इस काम के लिए उसने 'देवोत्पतन नायक' नाम से एक विशेष पद का प्रावधान तक किया था। हर्ष ने अपनी सेना में तुरुष्क (तुर्क) सेनानायकों तक को नियुक्त किया था। 'राजतरंगिणी' के लेखक कल्हण उसके समकालीन थे। कल्हण के पिता चंपक को हर्ष का महामंत्री भी बताया जाता है। कल्हण ने मूर्तिभंजक हर्ष को अपमानजनक अंदाज में 'तुरुष्क' यानी 'तुर्क' की निंदात्मक उपाधि दी है। 1277 के आस-पास वेनिस के यात्री मार्को पोलो ने कश्मीर में मुसलमानों की मौजूदगी बताई है। इतिहासकारों का मत है उस दौरान कश्मीर के बाहरी हिस्सों में और सिंधु नदी के आस-पास बसे दराद जनजातियों के लोग बड़ी संख्या में धर्म-परिवर्तन कर इस्लाम स्वीकार कर रहे थे।

कश्मीर में इस्लाम का प्रचार तेजी से बढ़ रहा था और लोग इसे बड़ी संख्या में अपना रहे थे। इसका कारण था कि वहां की जनता वहां के राजाओं और सामंतों के आपसी झगड़े में पिस रही थी। खासकर किसानों पर दोहरी मार पड़ रही थी। एक तो उसे अपनी ज़मीन से कुछ भी उपज नहीं मिल पा रही थी, दूसरे एक के बाद एक प्राकृतिक आपदाएं जैसे- सूखा, भूकंप, बाढ़ और आगलगी ने उनके जीवन को दुःख और निराशा से भर दिया था। ठीक इसी दौर में उनका संपर्क मुस्लिम सैनिकों और सूफी धर्म-प्रचारकों से होना शुरू हुआ। इस्लाम एक ऐसा नया विचार था, जो उनके मन में विश्वास और आशा का संचार कर पा रहा था। इस्लाम उन्हें सदियों पुराने शोषणकारी कर्मकांडों से भी निजात दिला रहा था। इसे हाथों-हाथ लिया गया।

कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक : एक तिब्बती बौद्ध
कश्मीर में इस्लाम के प्रसार के पूरे कालक्रम में सबसे दिलचस्प मोड़ तब आया जब उसे अपना पहला मुस्लिम शासक मिला। एक ऐसा मुस्लिम शासक जो वास्तव में एक तिब्बती बौद्ध था और जिसकी रानी एक हिंदू थी।

1318 से 1338 के बीच के बीस साल कश्मीर में भारी उथल-पुथल के रहे। इस दौर में युद्ध, षड्यंत्र, विद्रोह और मार-काट का बोलबाला रहा। लेकिन इससे ठीक पहले के बीस साल यानी 1301 से 1320 तक राजा सहदेव के शासनकाल के दौरान बड़ी संख्या में कश्मीर की जनता सूफी धर्म-प्रचारकों के प्रभाव में और इन कारणों से इस्लाम को स्वीकार कर चुकी थी। अब उसे अपना पहला मुस्लिम शासक भी मिलने ही वाला था।

बामज़ई सहित कई इतिहासकारों ने इस महत्वपूर्ण प्रकरण का विस्तार से वर्णन किया है। इस कहानी के केंद्र में तुर्किस्तान से आया एक सूफी धर्म-प्रचारक है। इनका सबसे प्रचलित नाम बुलबुल शाह था जबकि इतिहासकारों ने कई अलग-अलग नामों से इनका वर्णन किया है जिनमें से कुछ नाम हैं- सैयद शरफ़ अल दीन, सैयद सरफुद्दीन अब्दुर्रहमान। बामज़ई ने एक स्थान पर इनका नाम बिलाल शाह भी बताया है।

बुलबुल शाह सुहरावर्दी मत के सूफी खलीफा शाह नियामतुल्ला वली फारसी के शिष्य थे। बुलबुल शाह ने कई देशों की यात्रा की थी और बगदाद में काफी समय बिताया था। इनका निजी जीवन और संवाद का तरीका कश्मीरी लोगों को बहुत प्रभावित करता था। इन्होंने कश्मीर की पहली यात्रा राजा सहदेव के समय ही की थी। सहदेव एक कमजोर शासक थे और वास्तव में उनके नाम पर उनके प्रधानमंत्री और सेनापति रामचंद्र ही वास्तविक शासन चला रहे थे। रामचंद्र की सुंदर और मेधावी बेटी कोटा भी इस काम में उनकी मदद करती थी।

इसी दौरान तिब्बत से भागा हुआ एक राजकुमार रिंचन या रिनचेन (पूरा नाम लाचेन रिग्याल बू रिनचेन) कुछ सौ सशस्त्र सैनिकों के साथ कश्मीर पहुंचा। रिंचन के पिता तिब्बती राजपरिवार और कालमान्य भूटियाओं के बीच छिड़े गृहयुद्ध में मारे जा चुके थे, लेकिन रिंचन अपनी जान बचाकर ज़ोजिला दर्रे के रास्ते कश्मीर की ओर भागने में सफल रहा था। रामचंद्र ने रिंचन को शरण दी।

इसी बीच स्वात घाटी से शाह मीर नाम का एक मुस्लिम सेनानायक भी अपने परिवार और सगे-संबंधियों के साथ कश्मीर पहुंचा। उसे किसी फकीर ने कहा था कि वह एक दिन कश्मीर का शासक बनेगा। वह अपने इसी सपने को साकार करने यहां पहुंचा था। रामचंद्र और सहदेव ने उसे भी शरण दे दी। इस तरह अब रामचंद्र, कोटा, रिंचन और शाह मीर मिलकर कश्मीर का शासन देखने लगे।

उसी दौरान मध्य एशिया के एक तातार शासक दुलचु ने झेलम घाटी के रास्ते कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। लड़ने की बजाय राजा सहदेव भागकर किश्तवाड़ चला गया। दुलचु ने आठ महीने तक कश्मीर में भयंकर उत्पात मचाया। रसद के अभाव में वह दर्रों के रास्ते भारत के मैदानी हिस्सों की ओर चल पड़ा, लेकिन बर्फीले तूफान में फंसकर वह और उसके हज़ारों सैनिक मारे गए।

अब शासन की बागडोर रामचंद्र ने संभाल ली। दुलचु ने कश्मीर को पूरी तरह बर्बाद कर दिया था। रामचंद्र को राजा बनते देख रिंचन की भी महत्वाकांक्षा जाग उठी और उसने मौका देखकर विद्रोह कर दिया। उसके आदमियों ने धोखे से रामचंद्र की हत्या कर दी, अब रिंचन खुद कश्मीर की गद्दी पर काबिज हो गया। कोटा के सामने कोई चारा नहीं बचा और उसने बहुत मनुहार के बाद मन मारकर रिंचन से विवाह कर लिया।

रिंचन ने कोटा के भाई यानी रामचंद्र के बेटे रावणचंद्र को भी शासन में प्रमुख स्थान देकर संभवतः उसे सेनापति नियुक्त किया। लेकिन रिंचन अब भी खुद को लामा ही मानता था जबकि कोटा रानी चाहती थी कि वह हिंदू बन जाए। रिंचन के समक्ष भी कश्मीरी जनता से वैधता हासिल करने की चुनौती थी ही। वह एक बार को हिंदू धर्म अपनाने को राजी भी हो गया।

लेकिन यह इतना आसान नहीं था। कहा जाता है कि उस समय के कश्मीरी शैव गुरु ब्राह्मण देवस्वामी ने उसे हिन्दू धर्म में शामिल करने से इनकार कर दिया। इसके कम-से-कम तीन कारण गिनाए जाते हैं- पहला कि रिनचेन तिब्बती बौद्ध था। दूसरा कि वह अपने श्वसुर और एक हिन्दू राजा रामचंद्र का हत्यारा था। और तीसरा कि यदि उसे हिन्दू धर्म में अपनाया जाता तो उसे उच्च जाति में शामिल करना पड़ता।

आखिरकार हार कर उसने इस्लाम धर्म कबूल कर लिया। कई विद्वान उसके इस्लाम धर्म अपनाने के पीछे मुस्लिम बहुल होती जा रहे रियासत में उसकी राजनीतिक सुरक्षा और महत्वाकांक्षा भी बताते हैं। सचाई जो भी हो, इस्लाम में दीक्षित होने के बाद रिंचन को बुलबुल शाह ने 'सदर अल दीन' का नाम दिया। इस तरह वह कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक बना। सदर-अल-दीन का अर्थ है- धर्म (इस्लाम) का मुखिया।

बुलबुल शाह ने जल्दी ही मारे गए राजा रामचंद्र के भाई रावणचंद्र को भी इस्लाम मे दीक्षित कर लिया। शासन के कई उच्चाधिकारी भी बुलुबुल शाह के प्रभाव में इस्लाम में दीक्षित हुए। वहीं रिंचन के साथ आए तिब्बती भी इस्लाम में दीक्षित हुए। इस तरह बुलबुल शाह एक प्रकार से इस्लाम को कश्मीर का राजकीय धर्म बनाने के अपने मिशन में सफल रहे।

श्रीनगर के पांचवे पुल के नीचे कश्मीर की पहली मस्जिद भी रिंचन ने ही बनवाई। उस स्थान को अब भी बुलबुल लांकर कहा जाता है। 1327 में जब बुलबुल शाह की मृत्यु हुई तो उन्हें उसी मस्जिद के पास दफनाया गया। बुलबुल शाह को कई बार 'बुलबुल-ए-कश्मीर' के रूप में भी याद किया जाता है। रिंचन की मृत्यु जल्दी ही हो गई। लेकिन इसके बाद कश्मीर ने इस्लामी सल्तनत का एक पूरा दौर देखा। इतना सबके बावजूद कश्मीरी अवाम में 'इस्लामियत' जैसी चीज कभी देखने को नहीं मिली। उसकी एक कहानी अलग से लिखी जा सकती है।

जिस तरह भारतीय इतिहास को हिंदू बनाम मुस्लिम के नज़रिए से देखने-दिखाने वाला नैरेटिव झूठा है। ठीक उसी तरह कश्मीर घाटी के वे तंजीम जो इस्लाम को कश्मीरियत का एक्सक्लूसिव और अनिवार्य घटक मानते हैं, वह भी एक प्रकार का छलावा है। ठीक इसी तरह शेष भारत में भी कश्मीरियों के प्रति फैल चुका और फैलाया जा रहा धर्मोन्मादी पूर्वाग्रह बेबुनियाद है।

हाल में कश्मीर के ऊपर लिखी गई बहुचर्चित पुस्तक 'कश्मीरनामा' के लेखक अशोक कुमार पांडेय ने इस किताब में एक महत्वपूर्ण बात कही है। उन्होंने लिखा है- 'कश्मीर मानस का निर्माण बौद्ध, कश्मीर शैव तथा इस्लाम की सूफ़ी परम्पराओं के समन्वय से निर्मित हुआ है और इसके प्रभाव वहां के सामाजिक-राजनीतिक जीवन पर स्पष्ट हैं।'

हालांकि वह स्वीकार करते हैं कि एक तरफ कश्मीर में दोनों समुदायों के अंतर्विरोधों पर पर्दा डालकर कश्मीरियत का आभासी संसार प्रदर्शित करना या फिर दूसरी तरफ इसे हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के इकलौते रंग में देखना, ये दोनों ही अतिरेकी आयाम घातक हैं।

पांडेय ने लिखा है- 'बौद्ध, शैव और सूफ़ी इस्लाम के मिश्रण से जो एक विशिष्ट कश्मीरी संस्कृति बनी है उसे समझने के लिए बहुत उदार और गहन दृष्टि की आवश्यकता है।' अफसोस कि देशभर में वह उदार और गहन दृष्टि पैदा करने में हम फिलहाल बुरी तरह नाकाम होते दिख रहे हैं। इतिहास को पलटना और दिखाना कई बार इसलिए भी ज़रूरी हो जाता है।

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