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पूर्वांचल एक्सप्रेसवे से योगी को चुनाव में कितना फ़ायदा मिलेगा?

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BBC Hindi

, बुधवार, 17 नवंबर 2021 (07:57 IST)
सरोज सिंह, बीबीसी संवाददाता
पूर्वांचल में उत्तर प्रदेश विधानसभा की क़रीब 160 सीटें हैं। 2007 के विधानसभा चुनाव में इस इलाक़े में बीएसपी ने सबसे ज़्यादा सीटें जीतीं और सरकार बनाई। 2012 में समाजवादी पार्टी ने इनमें से तकरीबन सौ से ज़्यादा सीटें जीतीं और अखिलेश सत्ता में आए। 2017 में इस इलाक़े में बीजेपी को लगभग 115 सीटें मिलीं और योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।
 
इन आँकड़ों से साफ़ हो जाता है कि उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल को जिस पार्टी ने साध लिया, सत्ता की चाबी उन्हीं के हाथ लगी।
 
मंगलवार को एयर शो के साथ पूर्वांचल एक्सप्रेसवे का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। ज़ाहिर है पीएम मोदी उड़ान तो एक्सप्रेसवे पर हवा में भर रहे थे, लेकिन उनकी नज़र ज़मीन पर उन्हीं 160 सीटों पर रही होगी।
 
जिस हिसाब से इस एक्सप्रेसवे का श्रेय लेने की होड़ वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव में लगी है, उससे भी साबित हो जाता है कि दोनों पार्टियों का इस इलाक़े में बहुत कुछ दांव पर लगा है।
 
इस वजह से उत्तर प्रदेश चुनाव को समझने के लिए पूरब का समीकरण समझना ज़रूरी है। इस एक्सप्रेस-वे का फ़ायदा पूरब में योगी-मोदी को कितना मिलेगा?
 
उत्तर प्रदेश चुनाव में पूरब का समीकरण
इसका जवाब ढूंढने से पहले पूर्वांचल और एक्सप्रेसवे दोनों को समझना ज़रूरी है। वैसे पूर्वांचल की कोई सीमा आधिकारिक तौर पर काग़ज़ों में निर्धारित नहीं की गई है।
 
पूर्वांचल की राजनीति में संगठित माफ़िया सरगनाओं का हमेशा से दबदबा रहा है। लेकिन नरेंद्र मोदी के यहाँ से चुनाव लड़ने के एलान के बाद से ही सभी पार्टियों के फोकस का केंद्र बन गया।
 
पूर्वांचल एक्सप्रेसवे 341 किलोमीटर लंबा है और उत्तर प्रदेश के नौ ज़िलों लखनऊ, बाराबंकी, अमेठी, अयोध्या, आंबेडकर नगर, सुल्तानपुर, मऊ, आजमगढ़ और ग़ाज़ीपुर को जोड़ता है।
 
इस इलाक़े की राजनीति को लंबे समय से कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, "एक्सप्रेसवे, सेंट्रल उत्तर प्रदेश के ज़्यादातर ज़िलों को जोड़ता है। इनमें से तीन ज़िले ही हैं जो पूर्वांचल मेन में आते हैं - मऊ,आजमगढ़ और ग़ाज़ीपुर। ये तीन ज़िले ऐसे हैं, जो पिछले चुनाव में लहर के बावजूद बीजेपी साध नहीं पाई थी। इन तीनों ज़िलों में समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन भी अच्छा रहता है।"
 
"एक्सप्रेसवे के उद्घाटन से हो सकता है कि इन तीनों ज़िलों में बीजेपी को एक 'पुश' मिल जाए, जिससे कुछ सीटों का फ़ायदा विधानसभा चुनाव में भले ही हो, लेकिन एक एक्सप्रेसवे बनाकर कोई पार्टी आश्वस्त नहीं हो सकती की उसने पूरब का समीकरण साध लिया है।"
 
इस वजह से बीजेपी का दोनों पार्टियाँ यहाँ ज़्यादा जोर लगाती दिख रही है।
 
वैसे उत्तर प्रदेश में एक्सप्रेसवे का चुनावी इतिहास पुराना है। 2017 के चुनाव से पहले अखिलेश यादव ने आगरा एक्सप्रेसवे को चुनावी मुद्दा बनाया था। 2007 के चुनाव में मायावती ने यमुना एक्सप्रेसवे को अपने काम की उपलब्धि के तौर पर गिनाया, जिसका उद्घाटन अखिलेश यादव ने 2012 में किया था। ।
 
वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र पूर्वांचल से ताल्लुक रखते हैं।
 
वे कहते हैं, " एक एक्सप्रेसवे बनाकर अगर पूरे इलाक़े के समीकरण साध लिए जाते तो अखिलेश यादव भी आगरा एक्सप्रेसवे बना कर वहाँ की सभी सीटें जीत लेते। लेकिन 2017 में ऐसा नहीं हुआ। आगरा एक्सप्रेसवे जिस इटावा- मैनपुरी के इलाक़े को जोड़ता है, वो समाजवादियों का गढ़ भी माना जाता है। उस गढ़ में एक्सप्रेसवे बना कर भी 2012 का प्रदर्शन 2017 में सपा दोहरा नहीं पाई। उनकी पार्टी केवल 49 सीट ही जीत पाई।"
 
2017 में हार के बाद प्रेस कान्फ्रेंस संबोधित करते हुए अखिलेश यादव ने तंज कसते हुए कहा था, "मुझे लगता है कि नई सरकार लोगों को बेहतर एक्‍सप्रेसवे मुहैया कराएगी। शायद लोगों को हमारे बनाए रास्‍ते पसंद नहीं आए और अब यूपी में बुलेट ट्रेन लाई जाएगी।"
 
यहाँ एक तथ्य ये भी है कि अभी पूर्वांचल एक्सप्रेसवे पर टोल की व्यवस्था नहीं हो पाई, आस पड़ोस के इलाक़ों में पेट्रोल पंप, खाने पीने के आउटलेट्स का निर्माण होना बाक़ी है। साथ ही योगी सरकार की योजना इसके इर्द-गिर्द इंडस्ट्री बसाने की भी है। ये सभी काम अभी बाक़ी हैं।
 
योगेश मिश्र कहते हैं कि 90 के दशक में जब मंदिर लहर थी, उस वक़्त भी बीजेपी को पूर्वांचल में केवल 82 सीटें ही मिली थीं। लेकिन 2017 में 115 सीटों पर कामयाबी मिली। बीजेपी अपनी उस पकड़ को इस एक्सप्रेसवे के ज़रिए बनाए रखना चाहती है।
 
छोटी पार्टियाँ, बड़ा खेल
अखिलेश यादव ने 28 अक्टूबर को एक बड़ी जनसभा में विधानसभा के चार विधायकों वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता ओम प्रकाश राजभर के साथ अपने गठबंधन का एलान किया। पिछले चुनाव में राजभर बीजेपी के साथ थे।
 
माना जाता है कि पूर्वांचल के इलाक़े में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी की अच्छी पकड़ है। यहाँ के लगभग 45-50 सीटों पर उनको 7 से 20 हजार तक वोट मिल जाते हैं।
 
पिछले चुनाव में बीजेपी को उनके साथ गठबंधन का थोड़ा फ़ायदा मिला था और राजभर वोट उनके खाते में ट्रांसफर हुआ। लेकिन इस बार राजभर की पार्टी भी बीजेपी का साथ छोड़ चुकी है।
 
ये भी एक वजह है कि पूरब को साधने में बीजेपी की मुश्किलें थोड़ी बढ़ गई है।
 
इस वजह से अखिलेश यादव इन चुनावों में छोटी पार्टियों से समझौता करने की बात बार-बार दोहरा भी रहे हैं और अमल में भी ला रहे है
 
छोटी पार्टियों के बारे में कहा जाता है कि वो अकेले बड़ा कमाल नहीं करतीं, लेकिन किसी बड़ी पार्टी का पुश मिल जाए तो वोट ट्रांसफर से लेकर समीकरण प्रभावित करने और हार-जीत तय करने में अहम रोल अदा कर सकती हैं।
 
सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, "पश्चिमी उत्तर प्रदेश से उलट पूर्वांचल में छोटी-छोटी जातियों की बड़ी तादाद है। 12-14 जातियाँ ऐसी है, जो सीधे-सीधे चुनाव को प्रभावित कर सकती हैं। जैसे मल्लाह, राजभर, यादव, कुर्मी, प्रजापति आते हैं। इस वजह से बीजेपी और समाजवादी पार्टी दोनों की रणनीति इन जातियों को अपने खेमे में करने की है।"
 
बीजेपी और सपा का गेम प्लान
बीजेपी अलग-अलग जातियों के छोटे-छोटे 32 सम्मेलन करके उन्हें साधने में जुटी है। इनमें से तक़रीबन दो दर्ज़न सम्मेलन हो भी चुके हैं। उसी क्रम में कैबिनेट विस्तार से लेकर गठबंधन तक में बीजेपी का फोकस इसी जातिगत समीकरण को साधने में रहा। बीजेपी ने 2022 का विधानसभा चुनाव निषाद पार्टी के साथ मिल कर लड़ने का एलान किया है।
 
जुलाई में हुए कैबिनेट विस्तार में भी सबसे ज़्यादा मंत्री यूपी से ही बनाए गए। इस बार के कैबिनेट में शामिल हुए मंत्री हैं महाराजगंज से सांसद और छह बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले पंकज चौधरी, अपना दल की अनुप्रिया पटेल, आगरा से सांसद एसपी बघेल, पाँच बार सांसद रहे भानु प्रताप वर्मा, मोहनलालगंज सांसद कौशल किशोर, राज्यसभा सांसद बीएल वर्मा और लखीमपुर खीरी से सांसद अजय कुमार मिश्र। एक ब्राह्मण को छोड़कर बाकी छह का ताल्लुक ओबीसी और दलित समाज से है और वो भी ग़ैर-यादव और ग़ैर-जाटव समाज के हैं।
 
वहीं अखिलेश की समाजवादी पार्टी की बात करें तो इस बार चुनाव से पहले उन्होंने जनवादी क्रांति पार्टी, महान दल, अपना दल (कृष्णा पटेल) को साथ ले लिया है। बाबू सिंह कुशवाहा की पार्टी जन अधिकार पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी के साथ बातचीत चल रही है। साथ ही छोटे जनाधार वाली जातियों के ज़िला स्तर के बड़े नेताओं को अपने साथ मिलाकर रखने के काम में जुट गए हैं।
 
कुल मिला कर देखें तो पूर्वांचल में दलितों के साथ-साथ अति पिछड़ी जातियों को अपने खेमें में करने की लड़ाई चल रही है। इनमें बीजेपी ने पिछले चुनाव में ठीक-ठाक अपनी पैठ बना ली थी। अब समाजवादी पार्टी ने बीजेपी का वो गेमप्लान समझ लिया है और कड़ी टक्कर देने के लिए मैदान में कूद पड़ी है।
 
इस इलाक़े में फ़िलहाल मुख्य मुक़ाबला बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच ही दिखाई पड़ रहा है। हालांकि कुछ जानकार इस निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले उम्मीदवारों के नाम और गठबंधन के एलान का इंतज़ार करने की भी सलाह दे रहे हैं।
 
दूसरी योजनाओं का कितना लाभ
जातियों के अलावा बीजेपी ने कुछ और काम भी इस इलाक़े में किए हैं, जिसका लाभ उन्हें आने वाले चुनाव में मिल सकता है।
 
इसके उदाहरण में योगेश मिश्र कई योजनाएँ गिनाते हैं। मसलन गोरखपुर में एम्स का निर्माण, 'वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट' योजना के तहत पूर्वांचल में किया गया काम, कोरोना के दौरान ग़रीब कल्याण योजना से लोगों को मिला फ़ायदा, किसान सम्मान निधि से मिले पैसे शामिल है।
 
उत्तर प्रदेश के इस इलाक़े में किसान तो हैं लेकिन आंदोलन का असर उतना नहीं। ये किसान पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के मुक़ाबले ग़रीब हैं, छोटी जोत पर काम करते हैं।
 
वो कहते हैं बीजेपी इन सभी योजनाओं को जोड़ कर पूर्वांचल में अपना जीत का प्लान तैयार करती है, तो उसे लाभ मिल सकता है।
 
हालांकि सिद्धार्थ कलहंस को लगता है कि ये योजनाएँ एक्सप्रेस वे की तरह की शो-केस वाली हैं, जिनमें दिखाने के लिए भले ही बहुत कुछ लगता हो, लेकिन धरातल पर लाभ कम ही लोगों को हुआ है।
 

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