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शी जिनपिंग का कार्यकाल मोदी सरकार के लिए कैसा रहा

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BBC Hindi

, रविवार, 16 अक्टूबर 2022 (07:51 IST)
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का अधिवेशन 16 अक्टूबर से शुरू हुआ। इस अधिवेशन की सबसे ख़ास बात यह होगी कि चीन के मौजूदा राष्ट्रपति शी जिनपिंग को तीसरी बार सत्ता सौंपने पर मुहर लग सकती है। शी जिनपिंग साल 2012 से चीन के सर्वोच्च नेता हैं।
 
अब तक चीन के राष्ट्रपति अधिकतम दो बार बन सकते थे लेकिन साल 2018 में इसमें संशोधन कर दिया गया था जिसके बाद शी जिनपिंग आजीवन इस पद पर बने रह सकते हैं। राष्ट्रपति के साथ-साथ शी जिनपिंग कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव भी हैं और चीनी सेना के प्रमुख भी हैं।
 
कुछ लोग शी जिनपिंग चीन को कम्युनिस्ट क्रांति के नेता और चेयरमैन रहे माओ त्से तुंग से भी ज़्यादा शक्तिशाली कहने लगे हैं। तीसरी बार पार्टी महासचिव बन जाने के बाद शी जिनपिंग की सत्ता पर पकड़ और मज़बूत हो जाएगी। पूरी दुनिया की निगाहें इस समय चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अधिवेशन पर हैं।
 
भारत और चीन के मौजूदा संबंध भी बहुत ख़राब हैं और इसलिए भारत में भी सभी की निगाहें इस ओर हैं कि शी जिनपिंग का अगला क़दम क्या होगा और भारत और चीन के संबंधों पर क्या असर पड़ेगा।
 
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शी जिनपिंग के दस साल (2012-22) और भारत
लेकिन उससे पहले यह जानते हैं कि साल 2012 में शी जिनपिंग के सत्ता संभालने के बाद से पिछले दस वर्षों में भारत और चीन के संबंध कैसे रहें हैं।
 
शी जिनपिंग साल 2012 में पार्टी के महासचिव बने और फिर मार्च 2013 में राष्ट्रपति बन गए। उस समय भारत में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार थी और डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थी। फिर 2014 में हुए आम चुनाव के बाद बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार बनी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने।
 
दिल्ली यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान के अध्यापक रहे प्रोफ़ेसर मनोरंजन मोहंती का कहना है कि हू जिंताओ (चीन के राष्ट्रपति 2003-2013) और वेन जियाबाओ के कार्यकाल में भारत और चीन के संबंधों में काफ़ी प्रगति हुई थी।
 
उस समय के भारतीय प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह और चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने संबंधों को सुधारने और बेहतर करने में काफ़ी अहम रोल अदा किया था।
 
बीबीसी से बातचीत के दौरान प्रोफ़ेसर मोहंती कहते हैं कि शी जिनपिंग भी जब सत्ता में आए तो उन्होंने शुरू के कुछ सालों में भारत के साथ संबंध को लेकर वही रास्ता अपनाया जिस पर हू जिंताओ और वेन जियाबाओ चल रहे थे।
 
प्रोफ़ेसर मोहंती कहते हैं, "मोदी के प्रधानमंत्री (2014) के बाद भी शुरू के दो-तीन सालों में चीन और भारत के संबंध ठीक रहे थे। मोदी चीन गए, शी जिनपिंग भारत आए। 2016-17 तक दोनों के बीच कोई ख़ास कड़वाहट नहीं आई थी। लेकिन फिर डोकलाम (2018) और गलवान (2020) के बाद तो दोनों देशों के संबंध मनमोहन-जियाबाओ की तुलना में बहुत पीछे हो गए।"
 
डोकलाम: इसकी स्थिति भारत, भूटान और चीन के ट्राई-ज़ंक्शन जैसी है। डोकलाम एक विवादित पहाड़ी इलाक़ा है जिस पर चीन और भूटान दोनों ही अपना दावा जताते हैं।
 
डोकलाम पर भूटान के दावे का भारत समर्थन करता है। जून, 2017 में जब चीन ने यहां सड़क निर्माण का काम शुरू किया तो भारतीय सैनिकों ने उसे रोक दिया था। यहीं से दोनों पक्षों के बीच डोकलाम को लेकर विवाद शुरू हुआ।
 
भारत को ये डर है कि अगर भविष्य में संघर्ष की कोई सूरत बनी तो चीनी सैनिक डोकलाम का इस्तेमाल भारत के सिलिगुड़ी कॉरिडोर पर क़ब्ज़े के लिए कर सकते हैं।
 
सिलिगुड़ी कॉरिडोर भारत के नक़्शे में मुर्गी के गर्दन जैसा इलाक़ा है और ये पूर्वोत्तर भारत को बाक़ी भारत से जोड़ता है। कुछ विशेषज्ञ ये कहते हैं कि ये डर काल्पनिक है।
 
हफ़्तों तक चली कूटनीतिक कसरतों के बाद 73 दिनों तक चला विवाद आख़िरकार सुलझ गया था। भारतीय सैनिक वापस बुला लिए गए थे।
 
गलवान: जून 2020 में भारत और चीन की सेना के बीच पूर्वी लद्दाख़ की गलवान घाटी में हिंसक झड़प हुई थी। इसमें भारत के 20 सैनिक मारे गए थे।
 
पहले ख़बर आई थी कि चीन के चार सैनिक मारे गए थे लेकिन बाद में एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि कम से कम 38 चीनी सैनिकों की मौत हुई थी।
 
चीनी मामलों के जानकार और फ़िलहाल शिव नाडर यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे प्रोफ़ेसर जबिन टी जैकब का मानना कुछ और है। उनके अनुसार सत्ता में आने के बाद शी ने बातचीत में भले ही सकारात्मक रवैया अपनाया था लेकिन ज़मीन पर उनका असर कभी नहीं दिखा।
 
मई 2013 में चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री ली कचीयांग भारत आए थे। जिनपिंग के सत्ता संभालने के बाद चीन के किसी भी बड़े राजनेता की यह पहली विदेश यात्रा थी। लेकिन यह यात्रा भी विवादों के बीच में हुई थी।
 
प्रोफ़ेसर जैकब कहते हैं कि कचीयांग की भारत यात्रा से ठीक पहले चीनी सैनिक एलएसी पर लद्दाख़ के डेपसांग में घुस गए थे और चीनी सैनिक तभी वापस गए थे जब भारत ने धमकी दे दी थी कि कचीयांग की भारत यात्रा रद्द कर दी जाएगी।
 
प्रोफ़ेसर जैकब के अनुसार जब नरेंद्र मोदी 2014 में भारत के प्रधानमंत्री बने तो चीन ने उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश किया जो व्यापार को बढ़ावा देना चाहते हैं और आर्थिक विकास उनका मुख्य एजेंडा है। लेकिन चीन ने अपने एजेंडे में कोई परिवर्तन नहीं किया।
 
इसका उदाहरण देते हुए प्रोफ़ेसर जैकब कहते हैं, "राष्ट्रपति शी जिनपिंग सितंबर 2014 में भारत आए थे। उस समय भी पूर्वी लद्दाख़ के चुमर सेक्टर में चीनी सैनिकों ने घुसपैठ किया था जिसके कारण तनाव बन गया था।"
 
प्रोफ़ेसर जैकब का मानना है कि भारत को लेकर चीन की नीति में एक साफ़ पैटर्न झलकता है और वही पैटर्न डोकलाम (2018) और गलवान (2020) में भी दिखता है।
 
डोकलाम में 73 दिनों तक चला गतिरोध तो ख़त्म हो गया लेकिन ठीक उसके बग़ल में चीन ने इन्फ़्रास्ट्रक्चर बना दिया और प्रोफ़ेसर जैकब के अनुसार वो जगह अब पूरी तरह चीन के नियंत्रण में आचुका है। उनके अनुसार भारत सरकार इस बात को सार्वजनिक तौर पर मानती भी नहीं है।
 
प्रोफ़ेसर जैकब भारत की विदेश नीति की आलोचना करते हुए कहते हैं कि डोकलाम की घटना के बाद भारत ने चीन के साथ अनौपचारिक सम्मेलन की शुरुआत की।
 
उनके मानना है कि चीन जैसे देश के लिए अनौपचारिक सम्मेलन तो सूट करता है लेकिन भारत जैसे लोकतंत्र के लिए इस तरह की अनौपचारिक बैठक का कोई फ़ायदा नहीं होता है।
 
प्रोफ़ेसर जैकब का कहना है कि 2019 के आम चुनाव को देखते हुए मोदी सरकार ने चीन पर दबाव कम कर दिया और सारा ध्यान पाकिस्तान पर लगा दिया क्योंकि पाकिस्तान का मुद्दा चुनावी गणित के हिसाब से मोदी के लिए ज़्यादा लाभदायक होता।
 
प्रोफ़ेसर जैकब का दावा है कि चीन पर अगर भारत उस समय कोई सैन्य कार्रवाई करने की सोचता तो शायद मोदी की छवि के लिए सही नहीं होता और उन्हें चुनाव (2019 लोकसभा चुनाव) में नुक़सान हो सकता था।
 
अपनी बातों को साबित करने के लिए प्रोफ़ेसर जैकब गलवान की मिसाल देते हैं। 2019 में मोदी दोबारा चुनकर आए और नवंबर, 2019 में चीन के साथ अनौपचारिक बैठक हुई और सिर्फ़ छह-सात महीने के बाद गलवान (जून 2020) की घटना हो गई।
 
प्रोफ़ेसर जैकब कहते हैं कि गलवान तो सिर्फ़ एक बिंदु है लेकिन सच्चाई यह है कि एलएसी पर ऐसी कई जगहें हैं जहां चीनी सैनिकों ने घुसपैठ कर रखी है। प्रोफ़ेसर जैकब का कहना है कि भारत-चीन का संबंध शुरू से ही सवालों के घेरे में था।
 
भारत-अमेरिका की निकटता और चीन की नाराज़गी
प्रोफ़ेसर मोहंती का मानना है कि भारत का अमेरिका के क़रीब जाना भारत और चीन के संबंधों में आई कड़वाहट की एक बड़ी वजह है।
 
उनके अनुसार प्रधानमंत्री वाजपेयी ने भारत को अमेरिका के नज़दीक ले जाने की जो शुरुआत की थी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी के दौर में उसको और रफ़्तार मिली।
 
प्रोफ़ेसर मोहंती के अनुसार भारत और अमेरिका के बीच रक्षा संधि (2008) और फिर परमाणु संधि ने चीन को चिंतित कर दिया।
 
प्रोफ़ेसर मोहंती का मानना है कि जिस तरह भारत का अमेरिका के क़रीब जाना चीन को नागवार गुज़र रहा है उसी तरह दक्षिण चीन सागर और सीपेक (चीन पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर) के कारण भारत की चिंताएं बढ़ी हैं।
 
सीपेक का कई हिस्सा पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर से होकर गुज़रता है जिसे भारत अपना क्षेत्र मानता है।
 
प्रोफ़ेसर मोहंती का कहना है कि धीरे-धीरे दोनों देशों के संबंध ख़राब होते चले गए लेकिन पिछले पाँच साल में क्वाड (क्वाड्रीलेटरल सुरक्षा समूह जिसमें भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं) और ऑकस (अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के बीच सुरक्षा साझेदारी को लेकर एक समझौता) के कारण भारत और चीन की दूरियां और बढ़ी हैं।
 
प्रोफ़ेसर जबिन टी जैकब का भी मानना है कि भारत अगर अमेरिका के क़रीब जाता हुआ दिखता है तो चीन को उससे परेशानी होती है।
 
उनके अनुसार चीन, अमेरिका को अपना प्रतिद्वंद्वी मानता है और इसलिए कोई भी अगर अमेरिका के क़रीब जाएगा तो चीन को उससे दिक़्क़त होगी।
 
विरोधाभास
एक तरफ़ भारत और चीन के बीच सीमा विवाद जारी है। एलएसी पर अभी भी दोनों देश के 60 हज़ार से ज़्यादा सैनिक तैनात हैं लेकिन दूसरी तरफ़ दोनों देशों के बीच व्यापार लगातार बढ़ रहा है।
 
2007 में दोनों देशों के बीच केवल तीन अरब डॉलर का व्यापार होता था। 2021-22 में यह बढ़कर 115 अरब डॉलर हो गया। 2021 में कोविड के बावजूद भारत-चीन व्यापार में 43 फ़ीसद इज़ाफ़ा हुआ। इसमें भारत और हॉन्ग कॉन्ग के बीच होने वाला व्यापार शामिल नहीं है जो कि क़रीब 34 अरब डॉलर है। हालांकि व्यापार घाटा (ट्रेड डेफ़िसिट) दोनों देशों के बीच एक बड़ा मुद्दा है।
 
2001 में व्यापार घाटा 1.08 अरब डॉलर था जो कि साल 2021-22 में बढ़कर क़रीब 65 अरब डॉलर हो गया है।
 
व्यापार घाटे के अलावा भारत के लिए दूसरी चिंता है कि भारत ज़्यादातर कच्चा माल निर्यात करता है जबकि वो चीन से मनूफ़ैक्चर्ड गुड्स यानी तैयार माल आयात करता है
 
व्यापार घाटे को चीन स्ट्रक्चरल प्रॉब्लेम यानी संरचनात्मक समस्या कहता है जबकि भारत कहता है कि चीन उसे अपने बाज़ार तक पहुँच देने में आना कानी करता है। आईटी और फ़ार्मा के क्षेत्र में भारत को चीनी बाज़ार तक रिसाई की दिक़्क़त रही है।
 
जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन एक ऐसा मुद्दा है जहां कई मौक़ों पर चीन और भारत एक साथ खड़े दिखे हैं। हाल ही में ग्लास्गो सम्मेलन (नवंबर, 2021) में कोयला के फ़ेज़ आउट योजना के मामले में पश्चिमी देशों को चुनौती देने के लिए भारत और चीन एक साथ आ गए थे। यूक्रेन के मुद्दे पर हाल ही में दोनों देशों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया था।
 
प्रोफ़ेसर मोहंती जिस विरोधाभास को भारत-चीन संबंधों की एक विशेषता बताते हैं प्रोफ़ेसर जैकब उसको भारत की कमज़ोरी बताते हैं।
 
'भारत की ग़लतफ़हमी'
उनके अनुसार यह बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी है कि व्यापार और जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत और चीन एक साथ हैं।
 
प्रोफ़ेसर जैकब का मानना है कि चीन यह नहीं चाहता है कि भारत का आर्थिक विकास हो, चीन का असल मक़सद भारत जैसे बड़े बाज़ार का फ़ायदा उठाना है।
 
उनके अनुसार यह सच है कि कई चीनी कंपनियों ने भारत में अपना कारख़ाना लगाया है लेकिन वो ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से अपने मुनाफ़े को भारत से बाहर ले जा रही हैं जोकि भारत का सीधा नुक़सान है।
 
प्रोफ़ेसर जैकब के अनुसार 2008 में जलवायु परिवर्तन के मामले में भारत और चीन के हित कई मामलों में एकसमान थे लेकिन प्रदूषण को लेकर चीन अब बहुत आगे बढ़ चुका है।
 
चीन कई विकसित देशों के साथ आ रहा है क्योंकि कई विकसित देश भी जलवायु परिवर्तन को लेकर किसी तरह की ज़िम्मेदारी से बचना चाहते हैं।
 
'भारत की चीन नीति की ख़ामियां'
प्रोफ़ेसर जैकब के अनुसार चीन को लेकर भारत अभी भी संशय में है कि उसे क्या नीति अपनानी चाहिए। उनके अनुसार एक तरफ़ भारत सीमा विवाद को लेकर चीन पर हमले करता रहता है लेकिन दूसरी तरफ़ भारत ब्रिक्स जैसे संगठनों में चीन के साथ है।
 
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार काउंसिल में चीन के अंदर मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में वार्ता पर हुई वोटिंग में भारत तटस्थ रहा।
 
प्रोफ़ेसर जैकब ने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान के मामले में भारत ने वार्ता के पक्ष में वोट डाला था इसलिए चीन के मामले में उसकी तटस्थता दर्शाता है कि भारत को पता ही नहीं है कि चीन के साथ भविष्य में वो अपने रिश्ते कैसे चाहता है।
 
अब आगे क्या होगा?
अब तक हमने देखा कि भारत और चीन के बीच जहां सीमा विवाद जारी है वहीं व्यापार और जलवायु परिवर्तन जैसे कुछ मुद्दों पर आपसी सहमति भी है।
 
ऐसे में सवाल उठता है कि शी जिनपिंग के तीसरी बार पार्टी महासचिव और फिर अगले साल (2023) तीसरी बार राष्ट्रपति बन जाने के बाद स्थिति में क्या कुछ बदलाव आएगा।
 
प्रोफ़ेसर मोहंती कहते हैं कि सीमा विवाद इतनी जल्दी हल होने वाला नहीं है। उनके अनुसार इसके लिए दोनों देशों के बीच जब तक एलएसी के मामले में राजनीतिक समझदारी नहीं होगी यह संभव नहीं है।
 
प्रोफ़ेसर मोहंती कहते हैं, "चीन को लगता है कि भारत पूरी तरह अमेरिकी ख़ेमे में चला गया है। लेकिन सच्चाई यह है कि भारत थोड़ा बहुत अमेरिका का समर्थन लेता है, रूस से बहुत मदद लेता है और चीन के साथ भी संपर्क रखना चाहता है। विश्व राजनीति में आपको व्यवहारिक होना होता है।"
 
प्रोफ़ेसर मोहंती का मानना है कि सीमा विवाद के मामले में तो चीन भारत के साथ किसी भी तरह की रियायत नहीं बरतेगा लेकिन यह भी तय है कि शी जिनपिंग एलएसी पर विवाद को मैनेज करने की पूरी कोशिश करेंगे ताकि मामला हद से आगे नहीं बढ़ जाए।
 
उनके अनुसार निकट भविष्य में सीमा पर किसी बड़ी हिंसा की भी कोई आशंका नहीं है क्योंकि दोनों देशों को इस बात का एहसास है कि इस तरह की हिंसक झड़प में किसी की भी जीत संभव नहीं है और ऐसा करके चीन दुनिया में और भी अलग-थलग पड़ सकता है।
 
प्रोफ़ेसर मोहंती के अनुसार यूक्रेन के मामले ने दुनिया के देशों को एक बार फिर एहसास दिला दिया है कि विकास और मानव भलाई के लिए सभी एक दूसरे पर निर्भर हैं।
 
प्रोफ़ेसर मोहंती कहते हैं कि रूस-यूक्रेन युद्ध इस बात का उदाहरण है कि भारत भी पूरी तरह अमेरिकी ख़ेमे में कभी नहीं जाएगा क्योंकि उसे रूस की ज़रूरत है। पिछले कुछ समय से रूस और पाकिस्तान भी क़रीब आ रहे हैं।
 
प्रोफ़ेसर मोहंती कहते हैं, "मध्यपूर्व, अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका में चीन और भारत के हितों का टकराव होता रहेगा।"
 
प्रोफ़ेसर जबिन टी जैकब का मानना है कि शी जिनपिंग के तीसरी बार सत्ता हासिल करने के बाद निकट भविष्य में भारत-चीन के संबंधों में सुधार की कोई उम्मीद नहीं है।
 
'पीआरसी पर सीसीपी भारी'
इसके लिए वो चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को ज़िम्मेदार मानते हैं। वो कहते हैं, "चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का स्वभाव ऐसा है कि वो किसी भी लोकतांत्रिक देश को अपने राजनीतिक सिस्टम का विरोधी मानती है। इसलिए वो किसी भी दूसरे लिबरल लोकतांत्रिक देश के ख़िलाफ़ अभियान चलाती रहेगी जिसमें अमेरिका और भारत का विरोध भी शामिल है।"
 
लेकिन क्या इस बात की कोई गुंजाइश है कि आने वाले दिनों में शि जिनपिंग, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और चीन की सेना में किसी तरह का कोई मतभेद पैदा हो जाएं?
 
प्रोफ़ेसर जैकब इन सभी अटकलों को ख़ारिज करते हैं। इसका कारण बताते हुए वो कहते हैं, "कुछ छोटे-छोटे मामलों में तीनों के एप्रोच में भले ही फ़र्क़ हो लेकिन यह सोचना ग़लत होगा कि चीनी राजनीतिक सिस्टम के अंदर इन मतभेदों के कारण चीन की विदेश नीति प्रभावित हो सकती है।"
 
वो कहते हैं, "चीन एक पार्टी स्टेट है जहां एक पार्टी शासन करती है। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के हित को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (पीआरसी) के मुक़ाबले में हमेशा प्राथमिकता दी जाएगी और यही कुछ हमें कम्युनिस्ट पार्टी के अधिवेशन में देखने को भी मिलेगा।"

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