- रेहान फ़ज़ल
पिछले दिनों डोकलाम पर ढाई महीनों तक चले गतिरोध के दौरान चीनियों ने बार-बार भारत को याद दिलाया कि 1962 में चीन के सामने भारतीय सैनिकों की क्या गत हुई थी। लेकिन चीन के सरकारी मीडिया ने कभी भी पाँच साल बाद 1967 में नाथु ला में हुई उस घटना का ज़िक्र नहीं किया है जिसमें उसके 300 से अधिक सैनिक मारे गए थे जबकि भारत को सिर्फ़ 65 सैनिकों का नुक़सान उठाना पड़ा था।
1962 की लड़ाई के बाद भारत और चीन दोनों ने एक दूसरे के यहाँ से अपने राजदूत वापस बुला लिए थे। दोनों राजधानियों में एक छोटा मिशन ज़रूर काम कर रहा था। अचानक चीन ने आरोप लगाया कि भारतीय मिशन में काम कर रहे दो कर्मचारी भारत के लिए जासूसी कर रहे हैं। उन्होंने इन दो लोगों को तुरंत अपने यहाँ से निष्कासित कर दिया।
वो यहीं पर नहीं रुके। वहाँ की पुलिस और सुरक्षाबलों नें भारत के दूतावास को चारों तरफ़ से घेर लिया और उसके अंदर और बाहर जाने वाले लोगों पर रोक लगा दी। भारत ने भी चीन के साथ यही सलूक किया। ये कार्रवाई तीन जुलाई, 1967 को शुरू हुई और अगस्त में जाकर दोनों देश एक दूसरे के दूतावासों की घेराबंदी तोड़ने के लिए राज़ी हुए।
उन्हीं दिनों चीन ने शिकायत की कि भारतीय सैनिक उनकी भेड़ों के झुंड को भारत में हांककर ले गए हैं। उस समय विपक्ष की एक पार्टी भारतीय जनसंघ ने इसका अजीबो-ग़रीब ढंग से विरोध करने का फ़ैसला किया। उस समय पार्टी के सांसद अटल बिहारी वाजपेयी, जो बाद में भारत के प्रधानमंत्री बने, चीन के नई दिल्ली में शाँति पथ स्थित दूतावास में भेड़ों के एक झुंड को लेकर घुस गए।
चीन का नाथु ला खाली करने का अल्टीमेटम
इससे पहले 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध में जब भारत पाकिस्तान पर भारी पड़ने लगा तो पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खाँ गुप्त रूप से चीन गए और उन्होंने चीन से अनुरोध किया कि पाकिस्तान पर दबाव हटाने के लिए भारत पर सैनिक दबाव बनाए।
'लीडरशिप इन द इंडियन आर्मी' के लेखक मेजर जनरल वी। के। सिंह बताते हैं, ''इत्तेफ़ाक से मैं उन दिनों सिक्किम में ही तैनात था।' चीन ने पाकिस्तान की मदद करने के लिए भारत को एक तरह से अल्टीमेटम दिया कि वो सिक्किम की सीमा पर नाथु ला और जेलेप ला की सीमा चौकियों को खाली कर दे।''
जनरल सिंह आगे कहते हैं, ''उस समय हमारी मुख्य रक्षा लाइन छंगू पर थी। कोर मुख्यालय के प्रमुख जनरल बेवूर ने जनरल सगत सिंह का आदेश दिया कि आप इन चौकियों को खाली कर दीजिए। लेकिन जनरल सगत ने कहा कि इसे खाली करना बहुत बड़ी बेवकूफ़ी होगी। नाथू ला ऊँचाई पर है और वहाँ से चीनी क्षेत्र में जो कुछ हो रहा है, उस पर नज़र रखी जा सकती है।''
उन्होंने कहा, ''अगर हम उसे खाली कर देंगे तो चीनी आगे बढ़ आएंगे और वहाँ से सिक्किम में हो रही हर गतिविधि को साफ़-साफ़ देख पाएंगे। आप पहले ही मुझे आदेश दे चुके हैं कि नाथु ला को खाली करने के बारे में फ़ैसला लेने का अधिकार मेरा होगा। मैं ऐसा नहीं करने जा रहा।''
दूसरी तरफ़ 27 माउंटेन डिविज़न ने जिसके अधिकार क्षेत्र में जेलेप ला आता था, वो चौकी खाली कर दी। चीन के सैनिकों ने फौरन आगे बढ़कर उस पर कब्ज़ा भी कर लिया। ये चौकी आज तक चीन के नियंत्रण में है। इसके बाद चीनियों ने 17 असम रायफ़ल की एक बटालियन पर घात लगाकर हमला कर दिया, जिसमें उसके दो सैनिक मारे गए। सगत सिंह इस पर बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने उसी समय तय कर लिया कि वो मौक़ा आने पर इसका बदला लेंगे।
भारतीय और चीनी सैनिकों में धक्का-मुक्की
उस समय नाथु ला में तैनात मेजर जनरल शेरू थपलियाल 'इंडियन डिफ़ेस रिव्यू' के 22 सितंबर, 2014 के अंक में लिखते हैं, "नाथु ला में दोनों सेनाओं का दिन कथित सीमा पर गश्त के साथ शुरू होता था और इस दौरान दोनों देशों के फ़ौजियों के बीच कुछ न कुछ तू-तू मैं-मैं शुरू हो जाती थी।
चीन की तरफ़ से सिर्फ़ इनका राजनीतिक कमीसार ही टूटी-फूटी अंग्रेज़ी बोल सकता था। उसकी पहचान थी कि उसकी टोपी पर एक लाल कपड़ा लगा रहता था। दोनों तरफ़ के सैनिक एक दूसरे से मात्र एक मीटर की दूरी पर खड़े रहते थे। वहाँ पर एक नेहरू स्टोन हुआ करता था। ये वही जगह थी जहाँ से होकर जवाहर लाल नेहरू 1958 में ट्रेक करते हुए भूटान में दाखिल हुए थे। थोड़े दिनों बाद भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हो रही कहासुनी धक्का-मुक्की में बदल गई और 6 सितंबर, 1967 को भारतीय सैनिकों ने चीन के राजनीतिक कमिसार को धक्का देकर गिरा दिया, जिससे उसका चश्मा टूट गया।"
तार की बाड़ लगाने का फ़ैसला
इलाके में तनाव कम करने के लिए भारतीय सैनिक अधिकारियों ने तय किया कि वो नाथु ला से सेबु ला तक भारत चीन सीमा को डिमार्केट करने के लिए तार की एक बाड़ लगाएंगे। 11 सितंबर की सुबह 70 फ़ील्ड कंपनी के इंजीनियर्स और 18 राजपूत के जवानों ने बाड़ लगानी शुरू कर दी, जबकि 2 ग्रेनेडियर्स और सेबु ला पर आर्टिलरी ऑब्ज़रवेशन पोस्ट से कहा गया कि वो किसी अप्रिय घटना से निपटने के लिए सावधान रहें।
जैसे ही काम शुरू हुआ चीन के राजनीतिक कमिसार अपने कुछ सैनिकों के साथ उस जगह पर पहुंच गए जहाँ 2 ग्रेनेडियर्स के कमांडिंग ऑफ़िसर लेफ़्टिनेंट कर्नल राय सिंह अपनी कमांडो प्लाटून के साथ खड़े थे। कमिसार ने राय सिंह से कहा कि वो तार बिछाना बंद कर दें लेकिन उनको आदेश थे कि चीन के ऐसे किसी अनुरोध को स्वीकार न किया जाए। तभी अचानक चीनियों ने मशीन गन फ़ायरिंग शुरू कर दी।
चीनियों पर तोपों से गोलाबारी
भारतीय सेना के पूर्व मेजर जनरल रंधीर सिंह जिन्होंने जनरल सगत सिंह की जीवनी लिखी है, बताते हैं, "लेफ़्टिनेट कर्नल राय सिंह को जनरल सगत सिंह ने आगाह किया था कि वो बंकर में ही रहकर तार लगवाने पर निगरानी रखें, लेकिन वो खुले में ही खड़े होकर अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ा रहे थे।
7 बजकर 45 मिनट पर अचानक एक सीटी बजी और चीनियों ने भारतीय सैनिकों पर ऑटोमेटिक फ़ायर शुरू कर दिया। राय सिंह को तीन गोलियाँ लगीं। उनके मेडिकल अफ़सर उन्हें खींचकर अपेक्षाकृत सुरक्षित जगह पर ले गए। मिनटों में ही जितने भी भारतीय सैनिक खुले में खड़े थे या काम कर रहे थे, धराशाई कर दिए गए। फ़ायरिंग इतनी ज़बरदस्त थी कि भारतीयों को अपने घायलों तक को उठाने का मौका नहीं मिला।
हताहतों की संख्या इसलिए भी अधिक थी क्योंकि भारत के सभी सैनिक बाहर थे और वहाँ आड़ लेने के लिए कोई जगह नहीं थी। जब सगत सिंह ने देखा कि चीनी असरदार फ़ायरिंग कर रहे हैं तो उन्होंने तोप से फ़ायरिंग का हुकुम दे दिया। उस समय तोपख़ाने की फ़ायरिंग का हुक्म देने का अधिकार सिर्फ़ प्रधानमंत्री के पास था। यहाँ तक कि सेनाध्यक्ष को भी ये फ़ैसला लेने का अधिकार नहीं था। लेकिन जब ऊपर से कोई हुक्म नहीं आया और चीनी दबाव बढ़ने लगा तो जनरल सगत सिंह ने तोपों से फ़ायर खुलवा दिया। इससे चीन को बहुत नुक्सान हुआ और उनके 300 से अधिक सैनिक मारे गए।"
ऊँचाई का फ़ायदा
मेजर जनरल वी।के। सिंह बताते हैं, "जैसे ही ग्रेनेडियर्स ने अपने सीओ को गिरते हुए देखा, वो गुस्से से पागल हो गए। वो अपने बंकरों से बाहर निकले और उन्होंने कैप्टन पी।एस। डागर के नेतृत्व में चीनी ठिकानों पर हमला बोल दिया। इस एक्शन में कैप्टन डागर और मेजर हरभजन सिंह दोनों मारे गए और चीनी सैनिकों की मशीन गन फ़ायरिंग ने कई भारतीय सैनिकों को धराशाई कर दिया।
इसके बाद तो पूरे स्तर पर लड़ाई शुरू हो गई जो तीन दिन तक चली। जनरल सगत सिंह ने नीचे से मध्यम दूरी की तोपें मंगवाईं और चीनी ठिकानों पर ज़बरदस्त गोलाबारी शुरू कर दी। भारतीय सैनिक ऊँचाई पर थे और उन्हें चीनी ठिकाने साफ़ नज़र आ रहे थे, इसलिए उनके गोले निशाने पर गिर रहे थे। जवाब में चीनी भी फ़ायर कर रहे थे। लेकिन उनकी फ़ायरिंग अंधाधुंध थी क्योंकि वो नीचे से भारतीय सैनिकों को नहीं देख पा रहे थे।'
ब्लडी नोज़
जनरल वी।के। सिंह आगे बताते हैं, "जब युद्ध विराम हुआ तो चीनियों ने भारत पर आरोप लगाया कि उसने चीनी क्षेत्र पर हमला किया है। एक तरह से उनकी बात सही भी थी, क्योंकि सारे भारतीय जवानों के शव चीनी इलाके में पाए गए थे, क्योंकि उन्होंने चीनी इलाके में हमला किया था।"
भारतीय सेना के इस करारे जवाब को भारतीय सेना के उच्चाधिकारियों ने पसंद नहीं किया और कुछ ही दिनों के भीतर लेफ़्टिनेंट जनरल सगत सिंह का वहाँ से तबादला कर दिया गया। लेकिन इस झड़प ने भारतीय सैनिकों को बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक फ़ायदा पहुंचाया।
जनरल वी.के. सिंह याद करते हैं, "1962 की लड़ाई के बाद भारतीय सेना के जवानों में चीन की जो दहशत हो गई थी कि ये लोग तो सुपर मैन हैं और भारतीय इनका मुकाबला नहीं कर सकते, वो हमेशा के लिए जाती रही। भारत के जवान को पता लग गया कि वो भी चीनियों को मार सकता है और उसने मारा भी। एक रक्षा विश्लेषक ने बिल्कुल सही कहा 'दिस वाज़ द फ़र्स्ट टाइम द चाइनीज़ हैड गॉट अ ब्लडी नोज़।''
1962 का ख़ौफ़ निकला
भारत के कड़े प्रतिरोध का इतना असर हुआ कि चीन ने भारत को यहाँ तक धमकी दे दी कि वो उसके ख़िलाफ़ अपनी वायु सेना का इस्तेमाल करेगा। लेकिन भारत पर इस धमकी का कोई असर नहीं हुआ। इतना ही नहीं 15 दिनों बाद 1 अक्तूबर 1967 को सिक्किम में ही एक और जगह चो ला में भारत और चीन के सैनिकों के बीच एक और भिड़ंत हुई।
इसमें भी भारतीय सैनिकों ने चीन का ज़बरदस्त मुकाबला किया और उनके सैनिकों को तीन किलोमीटर अंदर 'काम बैरेक्स' तक ढकेल दिया। दिलचस्प बात ये है कि जब 15 सितंबर, 1967 को जब लड़ाई रुकी जो मारे गए भारतीय सैनिकों के शवों को रिसीव करने के लिए सीमा पर इस समय पूर्वी कमान के प्रमुख सैम मानेक शॉ, जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और जनरल सगत सिंह मौजूद थे। चार साल बाद 1971 में यही तीनों लोग पाकिस्तान के ख़िलाफ़ लड़ाई में जीत में मुख्य भूमिका निभाने वाले थे।
इंडियन एक्सप्रेस के एसोसिएट एडिटर सुशाँत सिंह बताते हैं, "1962 की लड़ाई में चीन के 740 सैनिक मारे गए थे। ये लड़ाई करीब एक महीने चली थी और इसका क्षेत्र लद्दाख़ से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक फैला हुआ था। अगर हम माने कि 1967 में मात्र तीन दिनों में चीनियों को 300 सैनिकों से हाथ धोना पड़ा, ये बहुत बड़ी संख्या थी। इस लड़ाई के बाद काफ़ी हद तक 1962 का ख़ौफ़ निकल गया। भारतीय सैनिकों को पहली बार लगा कि चीनी भी हमारी तरह हैं और वो भी पिट सकते हैं और हार सकते हैं।"