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जनरल जैकब ने कराया था 93 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण

हमें फॉलो करें जनरल जैकब ने कराया था 93 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण
, शनिवार, 13 जनवरी 2018 (12:18 IST)
- रेहान फ़ज़ल बीबीसी संवाददाता
 
16 दिसंबर, 1971 की दोपहर। ढाका में पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय पर हथियार डालने से पहले पाकिस्तानी सेना के चोटी के अफ़सर दिन का खाना खा रहे थे। 'ऑब्ज़रवर' अख़बार के संवाददाता गाविन यंग मेस के बाहर खड़े थे। उन्होंने वहीं खड़े हुए जनरल जैकब से पूछा, 'सर मुझे बहुत भूख लगी है। क्या मैं भी अंदर आ सकता हूँ?'

 
सब लोग अंदर पहुंचे। जैकब ये देख कर दंग रह गए कि वहाँ करीने से कई मेज़ लगी हुई थीं। कांटे, छूरी और नैपकिन सजे हुए थे। जैकब को खाने की दावत दी गई, लेकिन जनरल जैकब का खाने का मन नहीं हुआ। वो उसी कमरे में एक कोने में खड़े हो कर अपने सहायक कर्नल खाड़ा से बात करने लगे। पाकिस्तानी अफ़सरों ने बहुत लुत्फ़ ले कर 'रोस्टेड चिकन' खाया। बाद में गाविन यंग ने अपने अख़बार में एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था 'सरेंडर लंच।'
 
 
उसी दिन की सुबह पूर्वी कमान के स्टाफ़ ऑफ़िसर जनरल जे एफ़ आर जैकब के फ़ोन की घंटी बजी। दूसरे छोर पर भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल सैम मानेक शॉ थे।
 
जब मानेक शॉ के कहने पर सरेंडर लेने गए जैकब
कुछ साल पहले मुझसे बात करते हुए जनरल जैकब ने बताया था, 'मानेक शॉ ने मुझे फ़ोन किया, जैक जाओ और जा कर सरेंडर लो। मैंने कहा मैं आपको पहले ही आत्मसमर्पण का मसौदा भेज चुका हूँ। क्या मैं उसके धार पर पाकिस्तानियों से बात करूँ? सैम बोले तुम्हें मालूम है तुम्हें क्या करना है। बस तुम वहाँ चले जाओ।
 
 
*मैं वही दस्तावेज़ ले कर ढाका पहुंचा। ढाका हवाई अड्डे पर संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधि मार्क हेनरी ने मेरा स्वागत किया। उन्होंने पेशकश की कि वो सरकार पर नियंत्रण करने में मेरी मदद कर सकते हैं।
 
*मैंने उनका शुक्रिया अदा किया, लेकिन उनकी पेशकश स्वीकार नहीं की। पाकिस्तानी सेना ने भी एक ब्रिगेडियर को मुझे लेने के लिए एक कार के साथ भेजा हुआ था। जैसे ही हम पाकिस्तानी कार में आगे बढ़े, मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों ने हमारी कार पर गोली चलाई।
 
 
*मैं कार का दरवाज़ा खोल कर चिल्लाया, इंडियन आर्मी!
 
*उन्होंने फ़ायरिंग तो रोक दी, लेकिन वो मेरे साथ चल रहे ब्रिगेडियर को मार डालना चाहते थे। हम किसी तरह उन्हें समझाबुझा कर नियाज़ी के दफ़्तर पहुंचे। जैसे ही मैंने उन्हें आत्मसमर्पण का दस्तावेज़ पकड़ाया, नियाज़ी बोले कौन कह रहा है कि मैं आत्मसमर्पण कर रहा हूँ?
 
*मैंने उन्हें कोने में बुला कर कहा, मैंने आपको बहुत अच्छी शर्तें दी हैं। अगर आप हथियार डालते हैं तो हम आपका और आपके परिवार वालों का ध्यान रखेंगे। नियाज़ी ने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने कहा मैं आपको सोचने के लिए तीस मिनट का समय देता हूँ। यह कह कर मैं कमरे से बाहर चला आया।
 
 
*फिर मैंने सोचा ये मैंने क्या कर दिया उनके पास ढाका में छब्बीस हज़ार चार सौ से अधिक सैनिक थे, जबकि हमारे पास सिर्फ़ तीन हज़ार और वो भी ढाका से तीस किलोमीटर की दूरी पर।'
 
'नियाज़ी, क्या आप आत्मसमर्पण की शर्तों को मानते हैं?'
जब जैकब आधे घंटे बाद कमरे में घुसे तो वहाँ पर अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ था।
 
आत्मसमर्पण का दस्तावेज़ मेज़ पर रखा हुआ था। जनरल जैकब ने बताया, 'मैंने सोचा कि अगर ये न कहते हैं तो मैं क्या करूंगा? एक घंटे में वहाँ अरोड़ा लैंड करने वाले थे। मैंने नियाज़ी से पूछा क्या आप आत्मसमर्पण की शर्तों को स्वीकार करते हैं? उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने तीन बार उनसे यही सवाल किया। तब भी कोई जवाब नहीं आया। जब मैंने आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ ऊपर उठा कर कहा कि आपके जवाब न देने का मतलब है कि आप इसे स्वीकार करते हैं।'
 
 
जैकब ने नियाज़ी से कहा कि आत्मसमर्पण समारोह रेसकोर्स मैदान में ढाका की जनता के सामने होगा। नियाज़ी इसके लिए तैयार नहीं हुए। फिर जैकब ने नियाज़ी से कहा कि वो तलवार का सरेंडर करें।
 
'सरेंडर करते ही भीड़ नियाज़ी को मारना चाहती थी'
जैकब ने बताया, 'नियाज़ी ने कहा मेरे पास तलवार नहीं है। जब मैंने कहा फिर आप अपनी पिस्टल सरेंडर करें। उन्होंने अपनी पिस्टल निकाली और उसे भरी हुई आँखों के साथ अरोड़ा को सौंप दिया। जब दस्तख़त करने का समय आया तो नियाज़ी के पास कलम नहीं था। वहीं बैठे हुए ऑल इंडियो रेडियो के संवाददाता सुरजीत सेन ने अपना कलम पेश किया। इस बीच दोनों जनरलों के बीच एक भी शब्द का आदान प्रदान नहीं हुआ। दस्तख़त होते ही वहाँ मौजूद भीड़ उनको मार डालना चाहती थी। हमने उनके चारों तरफ़ एक घेरा बना दिया और फिर एक जीप में बैठा कर एक सुरक्षित स्थान पर भेज दिया।'
 
 
1923 में कोलकाता में जन्मे जनरल जैकब एक यहूदी परिवार से आते हैं। 1942 में भारतीय सेना में आए जनरल जैकब ने मध्य पूर्व, बर्मा और सुमात्रा की लड़ाई में भाग लिया था। 15 कोर की कमान संभाल चुके जनरल सैयद अता हसनैन, जनरल जैकब को बचपन से जानते थे और उन्हें अंकल जैक कह कर पुकारते थे।
 
'केयरफ्री लेकिन प्रोफ़ेशनलिज़्म के पक्के थे जैकब'
जनरल हसनैन बताते हैं, ''पहली दफ़ा जब मैं उनसे मिला था 1961 की बात है। लेकिन इससे पहले 1951 से ही उनका नाता मेरे परिवार से जुड़ गया था, जब वो अहमद नगर में मेरे वालिद साहब के साथ पोस्टेड थे।
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बाद में 1961 में वेलिंग्टन में एक बार फिर दोनों की एक साथ पोस्टिंग हुई। मैं अपने माता-पिता के साथ वहाँ रहता था। जनरल जैकब ने विवाह नहीं किया था। उनके साथ उनके एक मित्र थे जनरल हरि शिंगल। इन दोनों का हर वक्त हमारे घर आना जाना होता था। ये दोनों तो बैचलर क्वार्टर्स में रहते थे और मेस का खाना खाते थे लेकिन अक्सर शाम को ये दोनों हमारे घर आ जाते थे।
 
वहाँ पर शेर-ओ-शायरी होती थी और चुटकुले सनाए जाते थे। अक्सर रात को ये पिक्चर वगैरह देख कर आते थे तो मेरी माँ से विनती करते थे कि उन्हें थोड़ा खाना दे दीजिए। मेरी उनकी शुरुआती यादें एक मज़ाकिया शख़्स की हैं। वो बहुत केयरफ़्री थे लेकिन उनके प्रोफ़ेशनलिज़्म में कोई कमी नहीं थी। वो बहुत सारे खेल जानते थे। उनसे ही मैंने सीखा कि मछली किस तरह पकड़ी जाती है।''
 
शौक़ीन मिजाज़़ थे जनरल जैकब
जैकब बहुत अच्छे चित्रकार थे और उन्हें पुरानी एंटीक चीज़ें जमा करने का बहुत शौक था। उनको कविताएं पढ़ना भी बहुत पसंद था और वो ब्रिज खेलने के भी बहुत शौकीन थे।
 
 
जनरल अता हसनैन बताते है, ''उन दिनों भी कलाकृतियाँ या जिन्हें हम आर्टीफ़ैक्ट कहते हैं, जमा करने का उन्हें बहुत शौक था। वो बहुत घूमने फिरने वाले शख़्स थे, इसलिए उनके पास दुनिया भर की चीज़ें हुआ करती थी। ईरानी कालीनों का उनका संग्रह बहुत ज़बरदस्त हुआ करता था।
 
*बाद में रिटायर होने के बाद जब वो सोम विहार में रहने लगे, तो मुझे उनका वो संग्रह नहीं दिखाई दिया। हो सकता है उन्होंने उसे या तो बांट दिया हो, या कहीं रखवा दिया हो। लेकिन ये दुनिया की हर अच्छी चीज़ की तारीफ़ ज़रूर किया करते थे। एक बार वो पुणे में पोस्टेड थे।
 
 
*हमारे वालिद का वैलिंगटन से लैंसडाउन ट्रांसफ़र हो गया था। हम कार से वहाँ जाते हुए रास्ते में पुणे रुके थे। वो मुझे खाने के लिए उस ज़माने के मशहूर पारसी रेस्तराँ तोराबजी ले गए, जहाँ मैंने ज़िंदगी की पहली नान खाई। जो भी बेहतरीन नॉन वेजेटेरीयन खाना हो सकता था, वहाँ मौजूद था।
 
*फ़ौज में ब्रिज को एक बौद्धिक खेल माना जाता है और ख़ासतौर से जनरलों को ये खेल बहुत पसंद होता है। जैकब और पिता करीब करीब रोज़ ब्रिज खेला करते थे।''
 
 
बिना आदेश भारतीय सेना ने ढाका पर किया कब्ज़ा?
1997 में जब उनकी एक किताब 'सरेंडर एट ढाका' छपी तो उनकी एक टिप्पणी से बहुत बवाल मचा। उनका कहना था कि जनरल मानेक शॉ ने ढाका पर कब्ज़ा करने का लक्ष्य भारतीय सेना को दिया ही नहीं। मैंने एक बार जनरल जैकब से पूछा भी था कि इसके पीछे क्या कारण हो सकते थे।
 
जैकब का जवाब था, 'मैं नहीं जानता था कि इसके पीछे कारण क्या थे। मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि मुझे सिर्फ़ खुलना और चटगाँव पर कब्ज़ा करने के आदेश मिले थे। मेरी उनसे लंबी बहस हुई। मेरा कहना था कि खुलना एक छोटा सा नदी बंदरगाह है और चटगाँव का भी कोई ख़ास सामरिक महत्व नहीं है।
 
 
अगर हमें युद्ध जीतना है तो हमें ढाका पर कब्ज़ा करना ही होगा। मानेक शॉ बोले अगर हम खुलना और चटगाँव ले लेते हैं, तो ढाका अपने आप ही गिर जाएगा। मैंने पूछा कैसे? ये तर्क चलते ही रहे और आख़िर में हमें खुलना और चटगाँव पर कब्ज़ा करने के ही लिखित आदेश मिले। एयर चीफ़ मार्शल पी सी लाल भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि ढाका पर कब्ज़ा करने का लक्ष्य भारतीय सेना के सामने कभी रखा ही नहीं गया। हमारा लक्ष्य था बांग्लादेश की निर्वासित सरकार के लिए ज़्यादा से ज़्यादा ज़मीन पर कब्ज़ा करना।''
 
 
'मानेक शॉ के पसंदीदा थे जनरल जैकब'
बाद में जनरल जैकब की कई हल्कों में काफ़ी आलोचना हुई कि शायद वो 1971 की जीत की सारी वाहवाही खुद लूट लेना चाहते थे और फ़ील्ड मार्शल मानेक शॉ के योगदान को कम करके आंकना चाहते थे।
 
जनरल अता हसनैन इस बात को सही नहीं मानते। वो कहते हैं, 'चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ और चीफ़ ऑफ़ द आर्मी स्टाफ़ की कमान के बीच ज़मीन आसमान का फ़र्क होता है। अगर मैं कैप्टन हूँ तो किसी विषय पर मेरा सेनाध्यक्ष से मतांतर हो सकता है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि मैं सही हूँ और वो ग़लत हैं। अगर जैनरल जैकब कुछ कह रहे हैं तो हमें इसे उनके निजी विचार के तौर पर लेना चाहिए।
 
 
अगर आप किताब में अपने विचार लिख रहे हैं, तो इसमें कोई ग़लत बात नहीं है। बाद में मीडिया ने इस मामले को बहुत तूल दे दिया। आपको एक बात बताऊं, जनरल जैकब मानेक शॉ के सबसे पसंदीदा अफ़सर थे। जब मानेक शॉ पूर्वी कमान के प्रमुख थे तो उन्होंने ही जनरल जैकब को चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ के तौर पर मांगा था और तभी जनरल जैकब को वहाँ तैनात किया गया था।
 
उनके निजी संबंध बहुत अच्छे थे। सामरिक मामलों में इस तरह के प्रोफ़ेशनल मतभेद जनरलों के बीच होते ही रहते हैं।'
 
 
इसराइली सैनिक म्यूज़ियम में जैकब की वर्दी
जनरल जैकब की मौत से कुछ दिनों पहले मैंने उनसे पूछा कि 16 दिसंबर, 1971 की रात को जब वो ढाका से कोलकाता वापस लौटे तो उनके मन में क्या ख़्याल आ रहे थे?
 
जनरल जैकब का जवाब था, 'उस समय मेरा सारा ध्यान उन जवानों के साथ था, जिन्होंने भारत की जीत में अपने प्राणों की आहूति दे दी। इस ऐक्शन में हमारे 1400 जवान मारे गए थे और करीब 4000 सैनिक घायल हुए थे। उनकी बहादुरी से ही बांग्लादेश आज़ाद हो पाया था।'
 
 
जनरल जैकब 1978 में सेना से रिटायर हुए। बाद में उन्हें गोआ और पंजाब का राज्यपाल बनाया गया। जैकब की जितनी इज़्ज़त भारत में थी, उतनी ही इसराइल में भी। जॉन काल्विन की यहूदी सैनिक हीरोज़ पर लिखी किताब लायंस ऑफ़ जूदा में जनरल जैकब का भी ज़िक्र है।
 
इसराइल के सैनिक म्यूज़ियम में भी जनरल जैकब की वर्दी अभी तक टंगी हुई है। वो भारत और इसराइल के बीच मज़बूत रिश्तों के पक्षधर थे, लेकिन उन्होंने इसराइल जा कर बसने के सभी ऑफ़र्स को नामंज़ूर कर दिया और अपनी अंतिम सांस भारत की धरती पर ही ली।

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