तेजस वैद्य, बीबीसी गुजराती संवाददाता
गुजरात के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में 29 फीसदी डॉक्टर्स की कमी है। सर्जन, गायनोकोलॉजिस्ट, बाल रोग विशेषज्ञों की 90 फीसदी जगहें अभी भरी जानी हैं।
गुजरात के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में से 21.2 फ़ीसदी ही चौबीस घंटे काम करते हैं। सिर्फ़ 23.7 फ़ीसदी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में ही ऑपरेशन थिएटर की व्यवस्था है। वहीं गुजरात के 52 फीसदी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में और 41 फ़ीसदी कम्युनिटी हेल्थ सेंटर में स्टाफ़ के लिए अलग टॉयलेट तक की व्यवस्था नहीं है। मॉडल स्टेट कहे जाने वाले गुजरात के स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाती है।
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मामलों के केंद्रीय मंत्री अश्वनिकुमार चौबे ने कुछ सवालों के जबाव में 31 मार्च 2018 तक के ये आंकड़े लोकसभा में पेश किए थे।
गुजरात सरकार के कमीशनरेट कार्यालय में पब्लिक हेल्थ के एडीशनल डिरेक्टर और रूरल हेल्थ के डिप्टी डिरेक्टर डॉ. प्रकाश वाघेला से बीबीसी ने बात की।
डॉ. प्रकाश वाघेला ने कहा, "गुजरात में एमबीबीएस डॉक्टर्स की कमी नहीं है। बाल रोग विशेषज्ञ और गायनोकोलॉजिस्ट जैसे विशेषज्ञों की कमी हर स्तर पर है ये हम मानते है। जो आंकड़े पेश हुए है वो सही नहीं हैं। उन्होंने पुराना रूरल स्टेटिस्टिक्स देखा होगा। भारत सरकार का रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स देखेंगे तो वहीं पर सही डाटा मिल जाएगा।"
गुजरात में प्रत्येक ज़िले में कितने प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और सामूहिक स्वास्थ्य केन्द्र है इसकी पूरी जानकारी राज्य के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण की वेबसाइट पर है। हालांकि इसमें प्राथमिक और सामूहिक स्वास्थ्य केन्द्रों में आउटपेशेन्ट विभाग और इनपेशेन्ट विभाग के बारे में जो जानकारी दी गई है। ये रिपोर्ट 4 साल पुरानी यानी साल 2015-16 तक की है। प्राथमिक और सामूहिक स्वास्थ्य केन्द्र की सर्विस डिलीवरी रिपोर्ट भी पांच साल पुरानी यानी साल 2014-15 तक की ही है।
डॉ. प्रकाश वाघेला कहते हैं, "OPD- IPD के जो डिलीवरी रिपोर्ट अपडेट नहीं हुए है, उसकी कोई खास वजह नहीं है। मैं इस मामले को देखूंगा। बाद में जो रिपोर्ट्स नहीं है उस बारे में ऐसा निर्णय लिया गया होगा।"
कोरोना के संदर्भ में केरल और गुजरात में स्थिति
गुजरात में काम करने वाले समाजशास्त्री गौरांग जानी ने बीबीसी को बताया कि, "कोरोना से निपटने के मामले में केरल का उदाहरण दिया जा रहा है। केरल ने पंचायत मॉडल अपनाया है, वहां पंचायतों का नॅटवर्क मज़बूत है और इस कारण ज़िम्मेदारी सरपंच को दी गई। ऐसे में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र अपने आप सक्रीय हो जाते हैं।"
"लेकिन गुजरात में ये ज़िम्मेदारी बड़े अस्पताल संभाल रहे थे। केरल में गांव और शहर का फर्क उतना बड़ा नहीं है जितना दूसरे राज्यों में है। गुजरात में डॉक्टर्स और अन्य स्टाफ़ की कई जगह कमी है। ऐसे में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र कोरोना से कैसे लड़ते हैं ये अपने आप में बड़ा सवाल है।"
अहमदाबाद में अर्बन स्टडीज़, ह्यूमन एन्ड जेन्डर डेवेलपमेन्ट जैसे विषय पढ़ाने वाली दर्शिनी महादेविया भी गौरांग जानी के बात से सहमत हैं।
दर्शिनी ने बीबीसी को बताया कि, "कोरोना काल में केरल के स्वास्थ्य मॉडल की काफ़ी चर्चा हो रही है। देखा जाए तो केरल में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों से जुड़ी आशा वर्कर्स ने बड़ी भूमिका निभाई है। संक्रमितों की पहचान करना, उन्हें सलाह देना, संक्रमितों को क्वारंटीन में रखना जैसे काम उन्होंने किए। बड़ी तादाद में लोगों को महामारी के बारे में प्रशिक्षित करने के लिए स्थानीय स्वास्थ्यकर्मी अच्छी भूमिका प्रदान कर सकते हैं और यही केरल में देखा गया।
गुजरात में आशा वर्कर्स और फ्रन्टलाईन वर्कर्स को कोरोना से बचने के लिए प्रोटेक्शन किट भी नहीं मुहैया कराई गई। बड़े शहरों के सरकारी अस्पतालों में भी ज़रूरत के मुताबिक़ पीपीई किट नहीं हैं तो बाकी जगहों के बारे में क्या बात कर सकते हैं।"
"ये भी समझना ज़रूरी है कि महामारी से निपटने की तैयारी तब नहीं होनी चाहिए जब महामारी आए। ये तैयारी पहले से होनी चाहिए। केरल में रातों रात कुछ नहीं हुआ है, वहां पहले से सिस्टम बना हुआ है। लेकिन यहां भले ही यह कहा गया कि मुसीबत में भी अवसर तलाश किए जा सकते हैं लेकिन कोई अवसर खड़े किए गए हों ऐसा नहीं देखा गया।"
वहीं डॉ. प्रकाश वाघेला बताते है, "यह समझना चाहिए कि कोरोना के मामलों की पहचान का काम प्राथमिक स्वास्थ्य केंन्द्र पर हेता है लेकिन कोरोना मरीजों का क्लिनिकल मैनेजमेन्ट इन केन्द्रों पर नहीं होता। हमारे यहां फ़िजीश्यन जैसी सुविधा उप-ज़िला और ज़िला अस्पताल जैसे ऊपरी स्तर पर ही होती है। ऐसे में ज़ाहिर है कि केरल ने प्राथमिक केन्द्रों में कोविड मैनेजमेन्ट के लिए फिजीश्यन की व्यवस्था की होगी। लेकिन जहां तक मैं जानता हूं वहां भी उतनी सुविधाएं नहीं है।"
गुजरात में स्वास्थ्य सेवा
गुजरात में स्वास्थ्य व्यवस्था को तीन हिस्सों में बांटा गया है। 3000 से 5000 लोगों के लिए सब-सेंटर है जबकि 20,000 से 30,000 लोगों की आबादी के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है और एक लाख की आबादी के लिए कम्युनिटी हेल्थ सेन्टर की व्यवस्था है।
गुजरात स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक़ मार्च 2020 तक गुजरात में 1477 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं, 348 सामूहिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं और 2153 कम्युनिटी हेल्थ सेन्टर हैं।
ग्रामीण इलाक़ों में 30 हज़ार की जनसंख्या पर एक प्राथमिक केंद्र है, जहां से रेफर कर मरीज़ को कम्युनिटी सेंटर भेजा जाता है। बीमारू कहे जाने वाले बिहार में भी गुजरात से ज़्यादा प्राथमिक केंद्र हैं। नीति आयोग के मुताबिक़ 2013-14 में बिहार में 1883 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र थे जबकि गुजरात में साल 2020 में 1477 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों अनुसार आबादी और डॉक्टर का अनुपात 1 बनाम 1000 होना चाहिए यानी प्रत्येक एक हज़ार लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। अख़बार डीएनए ने नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) के हवाले से सितंबर 2018 में एक रिपोर्ट छापी थी। इसमें कहा गया था कि गुजरात में यह अनुपात एक बनाम 2092 का है, यानी गुजरात में तक़रीबन दो हज़ार लोगों पर एक डॉक्टर है।
जहां दाहोद में 45 हज़ार लोगों पर एक डॉक्टर है, वहीं छोटा उदयपुर में 31 हज़ार लोगों पर एक डॉक्टर और जामनगर में 22 हज़ार लोगों पर एक डॉक्टर है।
महिला स्वास्थ्यकर्मी और मल्टी पर्पस हेल्थ वर्कर की कमी
राज्य के 33 ज़िलों में महिला स्वास्थ्यकर्मी की निर्धारित संख्या कितनी है कितने पदों पर नियुक्ति होना बाक़ी है? विधायक ललित कगथरा ने ये सवाल विधानसभा में पंचायत मंत्री से पूछा था। इसके उत्तर में बताया गया कि राज्य में 10,613 महिला स्वास्थ्यकर्मी के पद हैं जिनमें से 30 जून 2019 तक 2990 पद खाली हैं।
राज्य में मल्टीपर्पस हेल्थ वर्कर की संख्या के बारे में विधायक प्रवीण मुसाडिया के एक सवाल पर पंचायत मंत्री ने बताया था राज्य में इस पद पर 9257 हेल्थ वर्कर होने चाहिए लेकिन 30 जून 2019 तक 1794 जगहों को भरना बाकी है।
हालांकि डॉ. प्रकाश वाघेला के अनुसार महिला स्वास्थ्यकर्मी की निर्धारित संख्या में से 8503 पद भरे हुए हैं। वो कहते हैं कि जो खाली पद हैं वो नेशनल हेल्थ मिशन के ज़रिये भर दिए जाते हैं और उन पर स्वास्थ्यकर्मियों को 11 साल के क़रार पर लिया जाता है।
इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स नहीं, बल्कि गुजरात पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स
विधानसभा के 14वें सत्र में प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री नितिन पटेल ने कहा था कि प्राथमिक और कम्युनिटी स्वास्थ्य केन्द्रों पर इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स नहीं, बल्कि गुजरात पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स लागू करने का निर्णय लिया गया है।
हालांकि गुजरात पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स क्या हैं इस बारे स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग की वेबसाइट पर कोई जानकारी हमें नहीं मिल पाई।
इस सिलसिले में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत गुजरात के एडीशनल डायरेक्टर डॉ. नीलम पटेल से हमने संपर्क किया। उन्होंने बताया कि "जो मानक हैं वो इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स हैं, गुजरात पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स जैसे कोई मानक नहीं है।"
ग़ौरतलब है कि ग्रामीण इलाकों के लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन शुरू किया गया था और इसके लिए इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स तय किए गए थे।
इनमें अलग-अलग राज्यों के मुताबिक़ फ्लेक्सीबिलिटी भी थी, लेकिन कहा गया कि राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों को इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स का पालन करके स्वास्थ्य के अच्छे मानदंड सेट करने चाहिए।
स्वास्थ्य के लिए केवल 5 फीसदी का आवंटन
स्वास्थ्य के लिए राज्य के बजट में कितना आवंटन किया जाता है इससे स्वास्थ्य के प्रति प्रदेश का रवैया पता चलता है। इस बार के गुजरात के बजट में 2,27,287 करोड़ रुपए में से 11,225 करोड़ रुपए का आवंटन स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के लिए किया गया है। यानी करीब 5 फ़ीसदी का कुल आवंटन स्वास्थ्य के लिए है।
दर्शिनी महादेविया बताती हैं, "इससे पहले कई बार बजट में इससे भी कम राशि स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए आवंटित की गई थी। लेकिन राशि आवंटित होने के बाद उसे ख़र्च भी करना पड़ता है। हमारे यहां पर स्वास्थ्य सेवाओं की हालत में सुधार दिखता नहीं है जो बताता है कि इस मामले में ख़र्च हुआ नहीं है।"
गुजरात के सिर्फ़ 5.77 फ़िसदी डॉक्टर्स रजिस्टर्ड है। जुलाई महीने में विधानसभा में पेश किए गए आंकड़ों का हवाला देते हुए अख़बार अहमदाबाद मिरर ने एक रिपोर्ट में कहा था कि देश में 11 लाख डॉक्टर्स रजिस्टर्ड है जिसमें से गुजरात के 66,944 डॉक्टर्स हैं। इस संख्या के साथ गुजरात देश में सातवें नंबर पर है जबकि 14.96 फ़िसदी रजिस्टर्ड डॉक्टर्स के साथ महाराष्ट्र पहले नंबर पर है।
क्या नए डॉक्टर्स गांव में प्रैक्टीस करना नहीं पसंद करते?
गौरांग जानी बताते है कि "इस दलील में कोई दम नहीं है। गुजरात के प्राथमिक और सामूहिक स्वास्थ्य केन्द्रों में डॉक्टरों की जगह खाली पड़ी हैं। सरकार वहां नियुक्तियां नहीं कर रही। इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि डॉक्टर गांव नहीं जाना चाहते। गुजरात के युवाओं ने हाल में जो आंदोलन किया था उसमें एक बड़ा मुद्दा था सरकारी अस्पतालों में खाली जगहों भरने का था। अगर युवा गांव नहीं जाना चाहते तो वो ये मुहिम ही क्यों करते?"
वो कहते हैं कि एक बार के लिए अगर ये मान भी लिया जाए कि डॉक्टर गांव नहीं जाना चाहते तो महिला स्वास्थ्यकर्मी और अन्य हेल्थ वर्कर्स की पोस्ट का क्या जो खाली पड़ी हैं। ये जगहें सरकार क्यों नहीं भरती?
पिछले साल अगस्त में गुजरात सरकार ने घोषणा की थी कि एमबीबीएस डॉक्टर्स को एक साल ग्रामीण इलाको में काम करना होगा। अगर वो ऐसा नहीं करते तो उन्हें 20 लाख पेनल्टी भरनी पड़ेगी।
2013 की समाचार एजेंसी पीटीआई की एक रिपोर्ट में सीएजी की रिपोर्ट के हवाले से बताया गया था कि गुजरात में डॉक्टर्स और आधुनिक उपकरणों की कमी के चलते अस्पतालों के हालत ख़राब हैं और कुछ केसेस में विशेषज्ञ डॉक्टर्स की जगह तकनीकी कर्मचारी मरीज़ों को ऑपरेट करते हैं।
दर्शिनी महादेविया बताती हैं कि "इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि राज्य में हेल्थ सेन्टर्स तो बने हैं, लेकिन पब्लिक हेल्थ सिस्टम में डॉक्टर्स से लेकर स्टाफ़ पर्याप्त नहीं है। ढांचा बन जाता है लेकिन व्यवस्था को चलाने के लिए ख़र्च नहीं होता।"