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क्या सऊदी अरब अब तक के सबसे मुश्किल दौर में है?

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BBC Hindi

, गुरुवार, 14 मई 2020 (09:42 IST)
- फ्रैंक गार्डनर
कोरोना वायरस (Corona virus) कोविड-19 की वजह से पैदा हुए संकट से कच्चे तेल की क़ीमत में जबर्दस्त गिरावट आई है। इसने तेल के ऊपर निर्भर रहने वाले देशों की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर डाला है। कभी टैक्स फ्री होने के लिए मशहूर सऊदी अरब ने अपने यहाँ वैल्यू एडेड टैक्स (वैट) पाँच फ़ीसदी से बढ़ाकर 15 फ़ीसदी कर दिया है। हर महीने कर्मचारियों को दिया जाने वाला भत्ता भी ख़त्म कर दिया है।

वैश्विक स्तर पर तेल की क़ीमत एक साल पहले के मुक़ाबले में आधी से भी कम हो गई है। इससे सऊदी अरब के राजस्व में 22 फ़ीसदी की कमी हुई है। इसके बाद सऊदी अरब ने अपने सारे अहम प्रोजेक्ट्स पर फ़िलहाल रोक लगा दी है। कच्चे तेल की क़ीमत में गिरावट की वजह से सऊदी अरब की सरकारी तेल कंपनी अरामको की पहली तिमाही के मुनाफ़े में 25 फ़ीसदी की कमी आई है।

खाड़ी देशों के विश्लेषक माइकल स्टीफन्स कहते हैं, सऊदी की ओर से उठाए गए ये क़दम दर्शाते हैं कि खर्च पर लगाम लगाने और तेल की कमज़ोर होती क़ीमत को स्थिर करने की कितनी ज़रूरत है। देश की अर्थव्यवस्था बदतर स्थिति में है और इसे सामान्य स्थिति में लाने में अभी समय लगेगा। सऊदी के क्राउन प्रिंस अपने देश में तो काफ़ी लोकप्रिय हैं लेकिन पश्चिमी देशों में सऊदी पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या में उनकी कथित भूमिका को लेकर संदेह जताया जाता है।

इंस्ताम्बुल स्थित सऊदी दूतावास में 2018 में हुई जमाल की हत्या के बाद से अंतरराष्ट्रीय विनिवेश बाज़ार में उनकी साख फिर से बहाल नहीं हो पाई है। यमन में चले संघर्ष में बिना किसी फ़ायदे के सऊदी को मुंह की खानी पड़ी और क़तर के साथ हुए तक़रार ने छह देशों की खाड़ी-अरब कोऑपरेशन काउंसिल (जीसीसी) की एकता में दरार पैदा कर दी है।

तो क्या अब सऊदी अरब गंभीर संकट में फंस चुका है?
कोरोना वायरस की वजह से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था संकट में है तो सऊदी अरब भी इसका कोई अपवाद नहीं है। सऊदी अरब के पास अपना सार्वजनिक निवेश फंड है जो क़रीब 320 अरब डॉलर का है। सऊदी की सरकारी तेल कंपनी अरामको के पास पिछले साल तक 17 खरब डॉलर की संपत्ति थी जो गूगल और अमेज़न दोनों की संपत्ति मिलाने के बराबर होती है।

सऊदी अरब ने इसका बहुत ही छोटा सा हिस्सा क़रीब डेढ़ फ़ीसदी बेचकर 25 अरब डॉलर कमाया था। यह इतिहास में शेयर की सबसे बड़ी बिक्री थी। सऊदी में 2007 से लेकर 2010 तक ब्रिटेन के राजदूत रहे सर विलियम पैटी कहते हैं, सऊदी अरब ने बहुत संपत्ति बना रखी है। उसके पास इतना रिज़र्व है कि वो इस स्थिति में ख़ुद को संभाले रख सकता है और अब भी बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी को स्थिर रखते हुए तेल की क़ीमतों में गिरावट के इस दौर से बाहर निकल सकता है।

ईरान को लेकर ज़रूर सऊदी के लिए अभी रणनीतिक ख़तरा लगता है। पिछले सितंबर में ईरान ने सऊदी अरब की तेल रिफ़ाइनरी पर हमला किया था और इसके बाद जनवरी में अमरीकी हमले में ईरान के क़ुद्स फ़ोर्स के प्रमुख जनरल क़ासिम सुलेमानी मारे गए थे। इस महीने अमेरिका ने सऊदी अरब को भेजे पैट्रियट मिसाइल बैट्रीज वापस ले लिया है। हालांकि इस्लामिक स्टेट और अल-क़ायदा की ओर से चरमपंथी हमलों की संभावना बिल्कुल तो नहीं ख़त्म हुई है लेकिन वो कम ज़रूर हो गई है। इन सबके बावजूद सऊदी अरब के सामने अभी कुछ गंभीर चुनौतियां खड़ी हैं।

देश की अर्थव्यवस्था
इस सप्ताह लिए गए कुछ कठोर फै़सले सऊदी के लोगों के लिए कोई अच्छी ख़बर नहीं है। ख़ासकर जब सऊदी अरब आने वाले समय में अपनी अर्थव्यवस्था की निर्भरता तेल के अलावा दूसरे क्षेत्रों के ऊपर भी डालने की योजना बना रहा था।

सऊदी के वित्तमंत्री ने ख़ुद इन फै़सलों को 'तकलीफ़देह' बताया है। अनुमान के मुताबिक़ वो इन फैसलों की बदौलत 26 अरब डॉलर की बचत करने जा रहे हैं लेकिन कोरोना और तेल की गिरती क़ीमतों की वजह से जो नुक़सान हुआ है, ये रक़म सिर्फ़ मार्च महीने में हुए नुक़सान के बराबर है। इस साल की पहली तिमाही में बजट घाटा 9 अरब डॉलर का है। यह पहली बार नहीं है जब सऊदी अरब ने इन कटौतियों का सहारा लिया है।

मई 1998 में मैं जीसीसी की बैठक में शामिल हुआ था। वहां क्राउन प्रिंस अब्दुल्लाह ने खाड़ी देशों को स्पष्ट तौर पर कहा था कि अभी एक बैरल की क़ीमत नौ रुपए हैं। अच्छा समय ख़त्म हो चुका है और वापस नहीं आने जा रहा है। यह समय हमें अपनी कमर कस लेने की है। बाद में तेल की क़ीमत 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर चली गई थी। लेकिन ये तब हुआ था जब सरकार ने नौकरियाँ देनी बंद कर दी थीं और विनिर्माण क्षेत्र की गति देशव्यापी स्तर पर धीमी हो गई थी।

इस वक्त मामला थोड़ा ज्यादा गंभीर हो सकता है। कोरोना वायरस और तेल की क़ीमतों में हुई गिरावट ने अब यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्राउन प्रिंस की महत्वकांक्षी परियोजना विज़न 2030 क्या अब भी पूरी हो सकती है। इस परियोजना के तहत सऊदी अरब का मक़सद तेल से मिलने वाले राजस्व और प्रवासी मज़दूरों के ऊपर से अपनी ऐतिहासिक निर्भरता को ख़त्म करना है। इसके साथ ही 500 अरब डॉलर की लागत से रेगिस्तान में एक बेहद आधुनिक शहर तैयार करना है।

सरकारी अधिकारियों का कहना है कि इस परियोजना पर अब भी काम चल रहा है लेकिन ज़यादातर विश्लेषकों का मानना है कि मौजूदा हालात में इसकी लागत में कटौती और देरी को रोका नहीं जा सकता है। माइकल स्टीफन्स कहते हैं, सरकार की ओर से उठाए गए खर्च कटौती के फै़सले से निजी क्षेत्र सबसे ज़्यादा प्रभावित हुआ है। इससे नौकरियों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा और लंबे समय तक इस स्थिति से निकलने में मुश्किल होगी।

सऊदी अरब की वैश्विक स्थिति
सऊदी अरब की प्रतिष्ठा पर पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या के बाद गहरा असर पड़ा था। यहाँ तक कि लंदन में मौजूद सऊदी के राजदूत ने भी इसे अपनी प्रतिष्ठा पर लगा दाग़ बताया था। इसके बाद हुई सुनवाई और फै़सले की भी मानवाधिकार समूहों और संयुक्त राष्ट्र की ओर से आलोचना हुई थी क्योंकि कुछ संदिग्धों को आसानी से जाने दिया गया था। लेकिन सऊदी अरब एक बड़ी अर्थव्यवस्था है जिसे दुनिया के लिए नज़रअंदाज करना इतना आसान नहीं।

सऊदी अरब हाल में हाई-प्रोफ़ाइल निवेश के अवसर की तलाश में रहा है। जैसे कि उसने हाल ही में न्यूकैस्टल यूनाइटेड फ़ुटबॉल टीम में अस्सी फ़ीसदी शेयर हासिल किया है। इस सौदे का जमाल ख़ाशोज्जी की पत्नी ने नैतिकता के आधार पर विरोध किया था। अमेरिका और ब्रिटेन की ओर से दिए गए लड़ाकू विमान की मदद से युद्ध के दौरान किए गए सऊदी हमले की ख़ूब आलोचना हुई थी।

इसे युद्ध अपराध की तरह देखा गया था। इस हमले में नागरिकों की मौत हुई थी जिसकी अमेरिका और दूसरी जगहों पर भी आलोचना हुई थी। इस लड़ाई में ज्यादा कुछ नहीं हासिल हुआ। उल्टे अमेरिका से मिलने वाली मदद कम हो गई। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन दोनों ही क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के बड़े सहयोगियों के साथ अच्छे रहे हैं। लेकिन इस साल तेल के भंडार खोलकर और उनकी अर्थव्यवस्था को नुक़सान पहुँचाकर उन्होंने इन दोनों की ही नाराज़गी मोल ली है।

ईरान के साथ रिश्ते भी सऊदी अरब के साथ तनावपूर्ण रहे हैं, दोनों एक तरह के शीत युद्ध में उलझे हुए हैं। क़तर के साथ ईरान के रिश्ते फिर भी थोड़े बेहतर स्थिति में है। सऊदी अरब में कई सामाजिक सुधार के क़दम उठाकर मोहम्मद बिन सलमान ने अपने देश में ख़ासी लोकप्रियता अर्जी है। इसमें महिलाओं के ड्राइविंग की इजाज़त देना, औरत-मर्दों दोनों की शिरकत वाले कंर्सट करवाना, सिनेमा और कार रैली करवाने जैसे क़दम शामिल हैं। लेकिन राजनीतिक दमन बढ़ा भी है जो कोई भी क्राउन प्रिंस की नीतियों पर सवाल खड़ा करता है उसे देश की सुरक्षा पर खतरा बताकर जेल में डाल दिया जाता है।

मानवाधिकार समूह अभी भी सऊदी अरब को मानव अधिकारों के लिहाज़ से सबसे बुरे देशों में मानते हैं। सऊदी अरब आज पहले से जिस स्थिति में है, वो उसके लिए उतने माकूल नहीं है जितने हमेशा से हुआ करते थे। इन सबके बावजूद सऊदी अरब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ा दांव रखता है। इसी साल नवंबर में यहाँ जी-20 का सम्मेलन भी होने वाला है। इसके सहयोगी उसे एक ऐसा पार्टनर मानते हैं जिसकी उपस्थिति परेशान करने वाली तो है लेकिन वो उसे नज़रअंदाज नहीं कर सकते।

ताक़तवर शासक
34 वर्षीय मोहम्मद बिन सलमान की सत्ता को कोई चुनौती नहीं दे सकता। उन्हें अपने पिता 84 वर्षीय किंग सलमान का समर्थन प्राप्त है और वो अपने किसी भी प्रतिद्वंदी को आसानी से किनारा करने का माद्दा रखते हैं।
उनके चचेरे भाई जो कभी क्राउंन प्रिंस के दावेदार थे वो 2017 में हुए तख्तापलट में हिरासत में ले लिए गए थे। उनकी सारी शक्तियां छीन ली गई थीं।

पुराने रूढ़ीवादी सऊदी लोगों का मानना है कि मोहम्मद बिन सलमान के सुधारात्मक और ग़ैर-परंपरागत कदम देश को ख़तरनाक रास्ते पर ले जाएंगे लेकिन उनके डर से कोई उनके सामने मुंह खोलने की हिम्मत नहीं करता है। विदेशों में जो क्राउन प्रिंस की छवि है उससे विपरीत देश की युवाओं में वो खासे लोकप्रिय है। विलियम पैटी का मानना है, उन्हें अपने उदारवादी कदमों का भरपूर लाभ मिला है।

लेकिन उदारवादी कदमों की वजह से मिली लोकप्रियता के अलावा एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जो यह मानता है कि मोहम्मद बिन सलमान सऊदी की अर्थव्यवस्था को एक नया और सुनहरा भविष्य दे सकते हैं। अगर उनकी ये उम्मीद टूटती है तो फिर सऊदी की शाही सल्तनत की अपराजेय ताकत को झटका लग सकता है।

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