- विनीत खरे (बीबीसी संवाददाता)
पुणे पुलिस ने मंगलवार को पांच बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को देश के अलग-अलग हिस्सों से गिरफ़्तार किया। ये हैं वामपंथी विचारक और कवि वरवर राव, वकील सुधा भारद्वाज, मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुण फ़रेरा, गौतम नवलखा और वरनॉन गोंज़ाल्विस। गिरफ़्तार किए गए सभी लोग मानवाधिकार और अन्य मुद्दों को लेकर सरकार के आलोचक रहे हैं।
सुधा भारद्वाज वकील और ऐक्टिविस्ट हैं। गौतम नवलखा मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार हैं। वरवर राव वामपंथी विचारक और कवि हैं, जबकि अरुण फ़रेरा वकील हैं। वरनॉन गोंज़ाल्विस लेखक और कार्यकर्ता हैं।
गिरफ़्तारी पर पुणे पुलिस बहुत संभल कर बात कर रही है और जानकारी बहुत कम है। पुणे पुलिस के जॉइंट कमिश्नर ऑफ़ पुलिस (लॉ एंड ऑर्डर) शिवाजी बोडखे ने बीबीसी से बातचीत में गिरफ्तार लोगों को "माओवादी हिंसा का दिमाग़" बताया है।
उन्होंने कहा, ''ये लोग हिंसा को बौद्धिक रूप से पोषित करते हैं...अब अगला क़दम ट्रांज़िट रिमांड लेना है...हम अदालत में इनके ख़िलाफ़ सबूत पेश करेंगे... इन सभी को पुणे लाया जाएगा।"
गिरफ़्तारियों का बचाव
आलोचकों के मुताबिक़ इन बुद्धिजीवियों की गिरफ़्तारियों ने उस सोच को मज़बूत किया है कि मोदी सरकार को अपनी नीतियों की आलोचना बर्दाश्त नहीं। उधर भाजपा के राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा ने गिरफ़्तारियों का बचाव किया और कहा, "अमेरिका में पढ़े-लिखे लोग ही बम पटक रहे हैं। पढ़े-लिखे लोग ही जिहाद में आ रहे हैं।"
माना जा रहा है कि पुणे पुलिस की तरफ़ से मंगलवार की गिरफ़्तारियों का संबंध जनवरी में भीमा कोरेगांव हिंसा से है। तब दलित कार्यकर्ताओं और कथित ऊंची जाति के मराठों के बीच हिंसा हुई थी।
शिवाजी बोडखे के मुताबिक पुणे पुलिस जनवरी से ही मामले की जांच कर रही थी। जून महीने में मीडिया के एक हिस्से में एक चिट्ठी मिलने का दावा किया गया था जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की तर्ज पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साज़िश की बात की गई थी। इस चिट्ठी का स्रोत और विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है। शिवाडी बोडखे ने इस कथित पत्र पर कोई टिप्पणी करने से मना कर दिया।
'सरकार की आलोचना नक्सली नहीं बना देता'
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस पीबी सावंत ने इन ताज़ा गिरफ़्तारियों को "राज्य का आतंक" और "भयानक आपातकाल" बताया है। बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने कहा, "आज जो हो रहा है वो स्टेट टेररिज़्म है। आप विपक्ष और आलोचकों की आवाज़ कैसे दबा सकते हैं। सरकार के विरोध में अपनी बात रखना सबका अधिकार है। अगर मुझे लगता है कि ये सरकार आम लोगों की ज़रूरतों को पूरा नहीं करती तो सरकार की आलोचना करना मेरा अधिकार है, अगर तब मैं नक्सल बन जाता हूं तो मैं नक्सल हूँ।"
वो कहते हैं, "ग़रीबों के पक्ष में और सरकार के विरोध में लिखना आपको नक्सल नहीं बना देता। ग़रीबों के पक्ष में लिखने पर गिरफ़्तारी संविधान और संवैधानिक अधिकारों की अवहेलना है।"
लेखक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने मामले में "सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप" की मांग की है ताकि "इस अत्याचार और आज़ाद आवाज़ों के उत्पीड़न" को रोका जा सके। समाचार चैनल एनडीटीवी से बातचीत में रामचंद्र गुहा ने कहा, "कांग्रेस उतनी ही दोषी है जितनी भाजपा। जब चिदंबरम गृहमंत्री थे तब कार्यकर्ताओं को तंग करना शुरू किया गया था। इस सरकार ने उसे आगे बढ़ाया है।"
वो कहते हैं, "गिरफ़्तार किए गए वो लोग हैं जो ग़रीबों, जिनके अधिकारों को छीन लिया गया है, उनकी मदद कर रहे थे। ये (सरकार) नहीं चाहती कि इन लोगों का ज़िला अदालत और हाई कोर्ट में कोई प्रतिनिधित्व हो। ये लोग पत्रकारों को भी परेशान करते हैं, उन्हें बस्तर से भगा देते हैं।"
याद रहे कि ऑपरेशन ग्रीनहंट की शुरुआत कांग्रेस के ज़माने में ही हुई थी। ये पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही थे जिन्होंने नक्सलवाद को देश का सबसे बड़ा आंतरिक ख़तरा बताया था।
राजनेताओं और कॉरपोरेट के बीच सांठगांठ का आरोप लगाते हुए रामचंद्र गुहा ने कहा, "मुझे नक्सलियों से नफ़रत है। वो लोकतंत्र के लिए ख़तरा हैं। नक्सल और बजरंग दल एक जैसे हैं- वो एक हिंसात्मक गुट हैं, लेकिन जिन लोगों को परेशान किया जा रहा है वो आदिवासियों, दलितों महिलाओं और भूमिहीनों की रक्षा कर रहे हैं।"
भाजपा का बचाव
पत्रकार और माओवाद पर किताब लिख चुके राहुल पंडिता ने ट्वीट कर कहा, "ये पागलपन है। सुधा भारद्वाज का माओवादियों से कोई लेना-देना नहीं है। वो एक कार्यकर्ता हैं और मैं उनके काम को सालों से जानता हूँ और आभारी रहा हूँ।"
एक अन्य ट्वीट में राहुल पंडिता ने लिखा, "अगर आपको माओवादियों के पीछे जाना है तो जाइए, लेकिन जो आपसे सहमत नहीं उनको गिरफ़्तार करना मत शुरू कर दीजिए। ये मानना मूर्खता होगी कि सुधा भारद्वाज जैसा कोई पीएम मोदी की हत्या की साज़िश में शामिल होगा।"
उधर राज्यसभा में भाजपा सदस्य और आरएसएस विचार राकेश सिन्हा कहते हैं कि जांच एजेंसियां मात्र अपना काम कर रही हैं। वो कहते हैं, "तर्क ये है कि उन पर जो आरोप लगाया जा रहा है वो ठीक है या नहीं। क्या एजेंसियां स्वतंत्र रूप से काम कर रही हैं या नहीं? अगर चार्ज लगाया जा रहा है तो क्या उन्हें अदालत जाने से रोका जा रहा है? एक को अदालत ने अभी स्टे दे दिया है।"
राकेश सिन्हा के अनुसार,, "इन बुद्धिजीवियों की मदद करने के लिए क़ानूनवेत्ता आएंगे और अदालत में जिरह करेंगे। सरकार की एजेंसियों से प्रमाण मांगेंगे। अगर उनके (एजेंसियों के) पास प्रमाण नहीं होगा तो अदालत उन्हें मुक्त कर देगी...प्रज्ञा ठाकुर के बारे में जो बातें जांच एजेंसियों ने जुटाई थीं, वो ग़लत साबित हुईं और वो आज बाहर हैं।"
आलोचकों के मुताबिक़ कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की गिरफ़्तारी कुछ नहीं मात्र उत्पीड़न है क्योंकि ऐसे मामलों में ज़मानत मिलने में भी महीनों लग जाते हैं। इस पर राकेश सिन्हा कहते हैं, "साईंबाबा के बारे में भी यही कहा जाता था। उन्हें आजीवन क़ैद मिली। वो दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे। मेरे साथी थे।"
भारत और भारत के बाहर कई हलकों में इन ताज़ा गिरफ़्तारियों को भारत में कम होती सहिष्णुता, महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों से जोड़कर भी देखा जा सकता है। सामाजिक और राजनीतिक विज्ञानी ज़ोया हसन ने इन गिरफ़्तारियों को लोकतंत्र पर हमला बताया और कहा कि "भारत में एक सिस्टमैटिक पैटर्न दिख रहा है कि जो लोग सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और आज़ादी और न्याय के लिए आवाज़ उठा रहे हैं उनके ख़िलाफ़ ऐसी कार्रवाई की जा रही है।"
इस पर राकेश सिन्हा कहते हैं, "हम चीन में नहीं हैं, जहां न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं है। हम भारत में हैं जहां न्यायपालिका स्वतंत्र है। जहां सर्वोच्च न्यायालय के जज भी प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर सकते हैं। इसलिए धारणा के आधार पर जांच एजेंसियों के ऊपर सवाल नहीं खड़ा करना चाहिए कि पूरी दुनिया में क्या कहा जा रहा है। हम अमरीका की अवधारणा के आधार पर भारत के लोकतंत्र को आगे नहीं बढ़ा सकते।"