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जानें याददाश्त बढ़ाने और सफल होने का नुस्खा

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, मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018 (11:09 IST)
- डेविड रॉबसन (बीबीसी फ़्यूचर)
 
याददाश्त बढ़ाने के लिए लोग अक्सर एक ही नुस्खा सुझाते हैं। ज़्यादा से ज़्यादा याद करने की आदत डालिए। मगर, कई बार सब कुछ छोड़कर, यानी रट लगाना छोड़कर शांत बैठने से भी याददाश्त बढ़ सकती है।
 
कोशिश करें कि आप अपने कमरे की रोशनी कम कर दें। आराम से बस लेटे रहें। आंखें बंद कर लें और ख़ुद को रिलैक्स महसूस कराएं। ऐसा करने से भी कई बार आप देखेंगे कि आपने जो कुछ याद करने की कोशिश की है, वो आपको अच्छे से याद रह जाता है।
 
याददाश्त का ख़ज़ाना
आम तौर पर याददाश्त बेहतर करने के लिए यही कहा जाता है कि कम से कम वक़्त में हम ज़्यादा से ज़्यादा बातें सीखें, जानें, समझें। मगर, कुछ देर तक बिना किसी ख़लल के आराम से, शांति से बैठे रहना भी आपकी याददाश्त को तेज़ कर सकता है। इस दौरान आपका ख़ाली दिमाग, याददाश्त के ख़ज़ाने को भरता है। आपको इसके लिए आपके दिमाग़ को पूरा सुकून देना होगा, ताकि वो ख़ुद को रिचार्ज कर सके।
 
सुकून के पलों में ई-मेल चेक करना या सोशल मीडिया को खंगालना हमारे दिमाग़ के सुकून में ख़लल डालता है। कुछ न करना किसी आलसी छात्र के लिए भले ही एक बहानेबाज़ी हो। लेकिन जिनकी याददाश्त कमज़ोर है, उनके लिए ये नुस्खा बेहद कारगर हो सकता है। हम सब के अंदर ये क्षमता होती है कि हम शांत रहकर, ख़ाली बैठे या लेटे रहकर अपनी याददाश्त मज़बूत कर सकते हैं।
 
ये खोज सबसे पहले सन् 1900 में एक जर्मन मनोवैज्ञानिक ज्योर्ग एलियास म्यूलर और उनके शागिर्द अल्पोंस पिल्ज़ेकर ने की थी। याददाश्त जमा करने के अपने तमाम तजुर्बों के तहत पिल्ज़ेकर और म्यूलर ने लोगों से बिना मतलब वाले कुछ शब्द याद कराए। कुछ देर आराम के बाद उन्हें फिर से नए शब्द याद करने को दिए गए। वहीं कुछ लोगों को आराम का मौक़ा नहीं दिया गया।
 
डेढ़ घंटे बाद जब इन लोगों से पूछा गया, तो दोनों ही समूहों के लोगों के जवाब एकदम अलग थे। जिन्हें ब्रेक दिया गया था, उन्हें पहली सूची के आधे शब्द याद रहे थे। वहीं, जिन्हें बिना ब्रेक के दूसरी लिस्ट थमा दी गई थी, उन्हें पहली सूची के केवल 28 प्रतिशत शब्द याद रहे थे।
 
दिमाग़ कितना याद रखता है?
साफ़ है कि हमारा दिमाग़ लगातार नई चीज़ें याद नहीं कर पाता। हम दो चीज़ें याद करने के बीच अगर उसे कुछ आराम दें, तो हमारी याददाश्त बेहतर हो सकती है।
 
इन दो वैज्ञानिकों के तजुर्बे के बाद पिछली क़रीब एक सदी तक इस तरह के दूसरे रिसर्च भी हुए। साल 2000 की शुरुआत में स्कॉटलैंड की एडिनबरा यूनिवर्सिटी के सर्जियो डेला साला और अमरीकी की मिसौरी यूनिवर्सिटी के नेल्सन कोवान ने एक ज़बरदस्त रिसर्च की। ये दोनों ही टीमें ये जानना चाहती थीं कि ब्रेक दिए जाने पर क्या हमारा दिमाग़ ज़्यादा चीज़ें याद रख पाता है।
 
दोनों ही टीमों ने म्यूलर और पिल्फ़ाइज़र के तरीक़े को आज़माया। उन्होंने अपनी रिसर्च में शामिल लोगों को 15 शब्द दिए और दस मिनट बाद उनसे फिर से उन शब्दों के बारे में पूछा। इस दौरान कुछ लोगों को तो ब्रेक मिला। मगर कुछ को दूसरे रिसर्च में उलझाए रखा गया।
 
जिन्हें भी आराम का छोटा सा टुकड़ा मिला था, उन्हें लिस्ट के 49 फ़ीसद तक शब्द याद रह गए। जबकि बिना आराम के शब्द बताने वाले सिर्फ़ 14 प्रतिशत लफ़्ज़ याद रख सके।
 
इसी रिसर्च के तहत लोगों के दो समूहों को एक कहानी सुनाई गई। इनमें से कुछ को एक घंटे का ब्रेक दिया गया। वहीं, कुछ लोगों को आराम नहीं दिया गया। जिन लोगों को आराम नहीं दिया गया, वो कहानी से जुड़े सवालों के केवल 7 फ़ीसद जवाब सही दे सके। यानी वो 93 फ़ीसद कहानी भूल गए थे। वहीं, आराम का मौक़ा पाने वालों ने कहानी से जुड़े 79 फ़ीसद सवालों के सही जवाब दिए।
 
यानी आराम की वजह से याददाश्त 11 गुना तक बढ़ गई!
 
सर्जियो डेला साला और नेल्सन कोवान के रिसर्च में शामिल रहीं माइकेला डेवार ने ख़ुद भी बाद में कई तजुर्बे किए हैं। इनमें पता चला है कि अगर हम पढ़ने-लिखने के बीच थोड़ी देर आराम कर लेते हैं। दिमाग़ को सुकून से रहने देते हैं तो, हमारी याददाश्त काफ़ी बेहतर हो सकती है। इस दौरान याद की गई चीज़ें काफ़ी वक़्त तक हमारे ज़हन में रहती हैं। ये नुस्खा सिर्फ़ जवां लोगों के लिए नहीं, बल्कि उम्रदराज़ लोगों के लिए भी कारगर है।
 
माइकेला डेवार कहती हैं कि आराम के दौरान हमें अपने दिमाग़ के सुकून में कोई ख़लल नहीं डालना चाहिए। वरना याददाश्त पर बुरा असर पड़ सकता है। इस दौरान मोबाइल-लैपटॉप का इस्तेमाल न करें। टीवी न देखें। कोशिश करें कि दिमाग़ में कोई और ख़्याल न आए।
 
हालांकि अभी ये बात खुलकर साफ़ नहीं हुई है कि दिमाग़ स्मृतियों को कैसे सहेजता है। मगर रिसर्च ये बताते हैं कि दिमाग़ में कोई चीज़ दर्ज हो जाने के बाद वो अलग-अलग दौर से गुज़रती है। इस दौरान उस स्मृति को मज़बूती हासिल होती जाती है।
 
सुकून के हर पल का इस्तेमाल
पहले हम ये मानते थे कि आम तौर पर हमारा दिमाग़ यादों को सोते वक़्त सहेजता है। इस दौरान हमारे दिमाग़ के हिप्पोकैम्पस और कॉर्टेक्स हिस्से आपस में सूचनाओं का लेन-देन करते हैं। हमारे दिमाग़ के हिप्पोकैम्पस हिस्से में याददाश्त बनती है। वहीं, कॉर्टेक्स हिस्सा इन्हें सजेह कर रखता है।
 
शायद यही वजह है कि हम जो चीज़ें रात में जानते-समझते हैं, वो हमें ज़्यादा याद रह जाती हैं। लेकिन 2010 में न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की लीला दावाची ने एक रिसर्च में पाया कि याद रखने की ये ख़ूबी सिर्फ़ सोने के दौरान नहीं हासिल होती। हम सुकून के पल सोने के अलावा भी गुज़ारें, तो हमारी याददाश्त मज़बूत होती है।
 
लीला ने कुछ लोगों को कुछ तस्वीरें और आकृतियां दिखाकर उन्हें थोड़ी देर आराम करने दिया। फिर उन तस्वीरों को फिर याद करने को कहा गया। इस आराम के दौरान भी रिसर्च में शामिल लोगों के दिमाग़ के हिप्पैकैम्पस और कॉर्टेक्स के बीच संवाद होता देखा गया।
 
शायद हमारा दिमाग़ सुकून के हर पल का इस्तेमाल याददाश्त को मज़बूत करने में करता है। इस दौरान पड़ने वाला कोई भी ख़लल हमारी याददाश्त को कमज़ोर ही करता है। इस नुस्खे से अल्ज़ाइमर और दौरे के शिकार लोगों को भी मदद मिल सकती है।
 
कुछ मनोवैज्ञानिक इन रिसर्च को लेकर काफ़ी उत्साहित हैं। उन्हें लगता है कि ये कई दिमाग़ी बीमारियों के इलाज में कारगर साबित हो सकती हैं। यॉर्क यूनिवर्सिटी के एडियान हॉर्नर इन्हीं लोगों में से एक हैं।
 
हालांकि हॉर्नर का मानना है कि 'हम ये तय नहीं कर सकते कि कितने ब्रेक से हमारी याददाश्त शानदार हो जाएगी। लेकिन अल्ज़ाइमर बीमारी के शिकार लोगों को आराम के पल देकर हम उनकी काफ़ी मदद कर सकते हैं।
 
ब्रिटेन की नॉटिंघम ट्रेंट यूनिवर्सिटी के थॉमस बैगुले कहते हैं कि अल्ज़ाइमर के मरीज़ों को अभी भी ऐसे रेस्ट की सलाह दी जाती है ताकि उनका दिमाग़ तरो-ताज़ा महसूस कर सके। हालांकि थॉमस को लगता है कि डिमेंशिया यानी सब कुछ भूल जाने की बीमारी के शिकार लोगों को इससे फ़ायदा नहीं होगा।
 
कुल मिलाकर, सभी जानकार इस बात पर एक राय रखते हैं कि छोटे-छोटे ब्रेक लेने से हमें नई चीज़ें सीखने और याद रखने में काफ़ी मदद मिलेगी। इससे छात्रों की ग्रेड 10 से 30 प्रतिशत तक बेहतर हो सकती है। किसी भी सबक़ को दोबारा याद करने से पहले अगर ब्रेक ले लेते हैं। तो, उसे याद रखना ज़्यादा आसान होगा।
 
याद रखिए कि सूचना क्रांति के इस दौर में हमें सिर्फ़ स्मार्टफ़ोन नहीं, बल्कि अपने दिमाग़ को भी रिचार्ज करने की ज़रूरत है।

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