दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ऐलान किया है कि एक अक्टूबर से दिल्ली में केवल उन्हीं लोगों को मुफ़्त बिजली मिलेगी जो लेना चाहेंगे। उनके मुताबिक़ जनता के सुझाव पर सरकार ने ये फ़ैसला लिया है। दिल्ली में फ़िलहाल हर महीने 200 यूनिट की बिजली मुफ़्त है, जबकि 400 यूनिट तक ख़पत करने पर 50 फ़ीसदी की सब्सिडी दी जाती है।
इसका नतीज़ा है कि मौजूदा वित्त वर्ष यानी 2022-23 के दौरान बिजली की सब्सिडी के लिए दिल्ली सरकार ने 3,340 करोड़ रुपए का आबंटन किया है।
गुरुवार के ऐलान के बाद केजरीवाल सरकार इसमें से कितना पैसा बचा पाएगी, ये तो बाद में पता चलेगा। लेकिन दिल्ली ही नहीं देशभर में उनके इस क़दम की चर्चा ज़रूर हो रही है।
पीएम मोदी की राह पर अरविंद केजरीवाल
अरविंद केजरीवाल के इस फ़ैसले को कई लोग मोदी के 'गिव इट अप' मॉडल की नकल बता रहे हैं तो राजनीति में उनके साथी 'वादे से मुकरना' करार दे रहे हैं।
साल 2015 के मार्च महीने में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में लोगों से स्वेच्छा से गैस सब्सिडी छोड़ने की अपील की थी। इस मुहिम को उन्होंने 'गिव इट अप' कैम्पेन का नाम दिया था। साल 2019 के जनवरी महीने तक 1 करोड़ लोगों ने प्रधानमंत्री की इस अपील पर गैस सब्सिडी छोड़ दी थी।
हालांकि आज केजरीवाल दिल्ली के लोगों से बिजली सब्सिडी छोड़ने के लिए नहीं कहा है, बल्कि वो कह हैं कि ये सब्सिडी उन्हीं को मिलेगी जो इसे लेना चाहेंगे।
केजरीवाल के फैसले को मोदी के मॉडल से जोड़ कर देखने वालों में वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी भी हैं। उनका मानना है कि मोदी के 'गिव इट अप' की तरफ़ ही केजरीवाल का ये फैसला है। वो इसे बिजली सब्सिडी ख़त्म करने की दिशा में पहला क़दम मानते हैं।
दिल्ली की राजनीति में दूसरे टर्म में भी 60 से ज़्यादा सीटों के साथ जब अरविंद केजरीवाल ने सत्ता में वापसी की, तो क्रेडिट इसी मुफ़्त बिजली पानी स्कीम को दिया गया। मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी स्कूलों में बेहतर शिक्षा को भी थोड़ा क्रेडिट दिया गया।
यही वजह है कि मुफ़्त बिजली पानी स्कीम को ख़ुद अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली मॉडल की तर्ज पर उन राज्यों में बेचा जहाँ जहाँ वो चुनाव में उतरे।
हाल ही में भारत में पाँच राज्य में चुनाव सम्पन्न हुए। उसमें से पंजाब में आम आदमी पार्टी सत्ता में लौटी है। वहाँ भी उन्होंने 300 यूनिट फ़्री बिजली देने का वादा किया है। इसके अलावा उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी 300 यूनिट फ़्री बिजली का वादा किया था। गोवा में आम आदमी पार्टी ने 18 साल से ज्यादा उम्र की महिलाओं को 1 हज़ार रुपये प्रति महीना देने की बात कही है। इसे भी केजरीवाल के मुफ़्त गवर्नेंस मॉडल का एक्सटेंशन माना जा रहा था।
दिल्ली पर असर
ऐसे में सवाल उठता है कि जिस मुफ़्त मॉडल का प्रचार प्रसार ख़ुद अरविंद केजरीवाल अब तक करते नहीं थकते थे, उनकी दिल्ली-पंजाब में जीत में जिस मॉडल का सबसे बड़ा हाथ था, उस मॉडल से एक क़दम पीछे हाथ क्यों खींच रहे हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल।
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, "ऐसा लगता है कि दिल्ली सरकार इस सब्सिडी वाली स्कीम को ज़्यादा दिन और चला नहीं सकती थी। इस वजह से ये फैसला लिया गया है। फिलहाल सरकार ने इसे ऑप्ट करने के लिए जनता से कहा है, लेकिन ये एक सोची समझी रणनीति जरूर है। इससे प्रतीत हो रहा है कि दिल्ली सरकार अपनी पुरानी नीतियों पर एक बार फिर से सोच-विचार करने की दिशा में है। आगे चलकर इसे ख़त्म करने पर भी किया जा सकता है। तब जनता को 'ज़ोर का झटका' ना लगे, इस वजह से 'धीरे से' ये फैसला लिया गया है।"
बीएसईएस के आँकड़ों के मुताबिक साल 2019-20 में 52 फ़ीसदी जनता को दिल्ली में बिजली सब्सिडी का लाभ मिला। एक साल बाद ये संख्या बढ़ कर 53।5 फीसदी हो गई। यानी हर साल ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस स्कीम के अदंर आने के लिए बिजली की खपत कम करने की कोशिश में जुटे हैं।
दिल्ली सरकार के लिए आर्थिक रूप से ये फैसला कितना बोझ बढ़ाने वाला था, इसके लिए हमने राज्य सरकार की देनदारी खंगालने की कोशिश की।
आरबीआई के आँकड़ों के मुताबिक़ साल 2018, 2019, 2020 तक तो दिल्ली सरकार के बजट में देनदारी कम होती नज़र आई। लेकिन साल 2021 और 2022 में इसमें अचानक से इजाफ़ा देखने को मिला।
हालांकि जाने माने अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर अरुण कुमार इस फैसले का एक दूसरा पहलू भी समझाते हैं। वो कहते हैं, कोरोना के कारण राज्य सरकारों का बजट गड़बड़ा हुआ है। ऊपर से रूस-यूक्रेन के बीच जंग ने स्थिति को और ख़राब कर दी है। इस वजह से हर सरकार अपना ख़र्चा बहुत सोच समझ कर रही है। केजरीवाल सरकार अपने ताज़ा फैसले के ज़रिए बिजली सब्सिडी के ज़रिए एक ख़ास वर्ग को टारगेट करना चाहती है। इससे वो कुछ सेविंग भी कर लेंगे और बिगड़ती आर्थिक स्थिति को सुधारने का एक मौका मिलेगा।
पंजाब पर असर
प्रोफ़ेसर कुमार एक और बात इसमें जोड़ते हैं। अब आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली में ही नहीं पंजाब में भी है। चूंकि केजरीवाल दिल्ली मॉडल को पंजाब में लागू करना चाहते हैं, तो जहाँ जहाँ वो सत्ता में आएंगे, वहाँ उन्हें बिजली-पानी पर सब्सिडी देनी होगा। पंजाब की आर्थिक हालात पहले से बहुत ख़राब है, क़र्ज़ काफ़ी है, इसलिए पहले ही क़दम पीछे खींच लिए।
पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार के एक महीना पूरे होने पर उन्होंने 300 यूनिट फ्री बिजली स्कीम वहाँ भी लागू किया। लेकिन दिल्ली जैसा नहीं। उन्होंने उसमें एक पेंच लगाया। उन्हीं लोगों को 300 यूनिट फ्री बिजली मिलेगी, जिन घरों में दो महीने में बिजली की खपत 600 यूनिट से कम हो। साथ ही इस सब्सिडी को लेने के लिए घरों में लगा मीटर 1 किलोवाट का होना चाहिए।
पंजाब में ज़्यादातर घर इस दायरे के बाहर हैं। इस वजह से पंजाब में विपक्ष ने भी उन पर वादा खिलाफी का आरोप लगाया। दिल्ली की तरह ही पंजाब सरकार की देनदारी देखें तो वहाँ का ग्राफ़ भी लगातार बढ़ता जा रहा है।
इसलिए प्रोफ़ेसर अरुण कुमार कहते हैं हो सकता है भविष्य में दिल्ली में जैसे बिजली सब्सिडी को वैकल्पिक किया गया, आने वाले दिनों में दूसरे राज्यों में ऐसा ही हो। इस वजह से प्रमोद जोशी कहते हैं कि पंजाब में भी 'मुफ़्त बिजली स्कीम' कितने दिन चल पाएगी। ये देखने वाली बात होगी।
केजरीवाल ने जब बिजली पर सब्सिडी देने की घोषणा की थी तब ये वोट बैंक की राजनीति थी, लेकिन अर्थव्यवस्था पर इसका कितना असर पड़ता है, वो शायद अब उन्हें ज़्यादा पता चल रहा है जब दो राज्यों में उनकी सरकार बन गई है। और दूसरे राज्यों में कई पार्टियां उनकी देखा देखी इसी तरह के चुनावी वादे कर रही है।
ऐसा ही वादा समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में किया था। कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल ने भी महिलाओं को मुफ्त में हर महीने पैसा देने की घोषणा की।
क्या केजरीवाल की वोट बैंक पर लगेगी सेंध
दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष आदेश गुप्ता ने केजरीवाल के नए फैसले को 'फ़्री मॉडल' का फेल होना करार दिया है। उन्होंने केजरीवाल पर बिजली कंपनियों से साथ मिलकर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया और कहा कि अब जब पैसा खत्म हो गया तो केजरीवाल फ्री बिजली की योजना को वैकल्पिक करने की बात कर रहे हैं। हालांकि मोदी सरकार की भी इस तरह से कई योजनाएँ हैं जिनमें फ्री राशन स्कीम एक हैं।
प्रोफ़ेसर अरुण कुमार के मुताबिक़ वक़्त आ गया है सभी सरकारें इस बारे में सोचें। वो ये मानते हैं कि एक बार सब्सिडी की लत जनता को लगाने के बाद इसे वापस लेने में सरकारों को और जनता को दिक़्क़त ज़रूर होती है। लेकिन अब दिल्ली में अगले चुनाव में समय है, तब तक कोई नया रास्ता केजरीवाल सरकार ढूंढ सकती है।
प्रोफ़ेसर अरुण कुमार उन अर्थशास्त्रियों की टीम में शामिल थे जिन्हें 2012 में आम आदमी पार्टी के लिए मेनिफेस्टो में आर्थिक रोड मैप बनाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी।
200-250 पन्ने की अपनी रिपोर्ट में उन्होंने सब्सिडी की जगह बड़े स्तर पर रोज़गार पैदा करने की बात की थी, ताकि लोग ख़ुद ही आर्थिक रूप से इतने सम्पन्न हो कि उन्हें सब्सिडी की ज़रूरत कुछ वक़्त के बाद ना पड़े।
लेकिन सच्चाई ये भी है कि बिजली सब्सिडी की वजह से दिल्ली में एक बड़ा तबका आम आदमी पार्टी को वोट करता था। तो क्या केजरीवाल फिलहाल उस तबके की नाराज़गी मोल लेने का जोखिम उठा सकते हैं?
प्रमोद जोशी कहते हैं, " जो तबका आम आदमी पार्टी को वोट देता है, वो इस फैसले से नाराज़ नहीं होगा। जिन कुछ लोगों पर थोड़ा असर पड़ेगा, उनको रोजगार के ज़रिए खुश करने का भी एक चलन हाल में देखने को मिला है। हर चौक-चौराहे पर आपको नौजवान तख्तियां लिए नज़र आते हैं। सब्सिडी ना दे कर, लोगों को रोज़गार देने का ये नया तरीका है। ये नौजवान भी आस पास की बस्तियों से आते हैं। फ्री राशन स्कीम के ज़रिए भी वो वोट बैंक वाला तबका साध पाएंगें, जिन्हें पहले वो बिजली पर सब्सिडी दे कर साधने की कोशिश कर रहे थे।
प्रमोद जोशी आगे कहते हैं, रोज़गार के नए तरीके के बाद भी अगर उनके पुराने वोट बैंक के कुछ लोग छूट जाते हैं, तो उनको साधने के लिए 'सॉफ़्ट हिंदुत्व' वाला ऐजेंडा तो है ही। वो कहते हैं कि पहले आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में कांग्रेस के वोट बैंक को अपने साथ किया। अब बीजेपी के वोट बैंक को साथ लेने के लिए वो 'सॉफ़्ट हिंदुत्व' के एजेंडे को फॉलो करते दिख रहे हैं।
अरविंद केजरीवाल पहले नेता थे जिन्होंने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का समर्थन किया। अरविंद केजरीवाल ने सीएए और एनआरसी के ख़िलाफ़ चल रहे विरोध-प्रदर्शनों से ख़ुद को दूर रखा। इतना ही नहीं अरविंद ने शाहीन बाग़ को अपने चुनावी कैम्पेन से इतना दूर रखा कि मानो वो दिल्ली का इलाक़ा ही नहीं है। हाल ही में दिल्ली की जहांगीरपुरी में जो कुछ हुआ उसमें भी उनकी पार्टी बीजेपी के लाइन पर बोलते नज़र आए। इस वजह से उन्हें कई मामलों में मोदी जैसा ही कहा जाता है।
एक और बात यहाँ गौर करने वाली है कि सुप्रीम कोर्ट में मुफ़्त योजनाओं को लेकर एक जनहित याचिका दायर है, जिसमें दो मांगे की गई हैं। पहली मांग है कि केंद्र को निर्देश दिया जाए कि वो क़ानून लाकर मुफ़्त की घोषणाएं करने वाले राजनीतिक दलों को नियंत्रित करे। दूसरी मांग है कि जो पार्टियां मुफ़्तखोरी का वादा कर रही हैं उनका चुनाव चिह्न रद्द हो।