"जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।" कवि को भारत में दृष्टा और ऋषि भी माना जाता है। जनतंत्र में विवेक की क्या परिभाषा हो सकती है? विशेषकर शासकों के लिए? उसके लिए किस-किस बात की दरकार है?
सबसे पहले यह ख़्याल कि जो सत्ता जनता ने उन्हें सौंपी है वह हमेशा के लिए नहीं है। दूसरे यह कि जनता प्रजा नहीं है, शासित नहीं है। शास्ति देना जनतंत्र के शासक का काम नहीं है। तीसरे, कि जो आज विपक्ष में है वह भी जनता का प्रतिनिधि है भले ही अल्पसंख्यक। इसलिए उसका पर्याप्त सम्मान और उसके मत का ध्यान, यह जनतंत्र में शासन चलाने का विवेकपूर्ण तरीका है।
यही कारण है कि जो बड़े मसले होते हैं उन पर संसद या विधानसभा में प्रायः एकमत बनाने की कोशिश की जाती है। इसीलिए जनतंत्र कुछ धीमे चलनेवाला तंत्र है। वह असहमति को विचार-विमर्श के ज़रिए सहमति तक लाने का प्रयास करता है।
बहुमत, चाहे कैसा भी हो, अल्पमत की उपेक्षा का कारण नहीं हो सकता। दुहरा दें कि जो दल अल्पमत में है उसे जनता के एक हिस्से का समर्थन प्राप्त है। इसलिए सत्ता न होते हुए भी उसकी बात का महत्त्व है।
आखिर कौन है विकास विरोधी?
ऐसा प्रतीत होता है कि यह सरकार इस जनतांत्रिक विवेक को पूरी तरह खो बैठी है। उसने जनता के एक बार किए गए चुनाव को हर काम के लिए कभी न ख़त्म होने वाला लाइसेंस मान लिया है। पूर्ण बहुमत से प्राप्त सत्ता का मद उस पर इस कदर सवार हो गया है कि उसका मुखिया यह भूल गया है कि यह जनतंत्र है और वह राजा नहीं है।
अगर यह याद रहता तो नरेंद्र मोदी गुजरात में यह धमकी न देते कि केंद्र का एक भी पैसा विकास विरोधियों को नहीं मिलेगा।
पहला सवाल यह है कि विकास विरोधी आखिर है कौन? विकास की अलग-अलग परिभाषाएँ और धारणाएँ हैं और जनतंत्र में हर किसी की जगह है। आखिर यह कोई चीन तो है नहीं जहाँ एक ही कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा तय कर दी गई लाइन पर पूरा मुल्क चलने को अभिशप्त है!
लेकिन नरेंद्र मोदी ने विकास को दो चीज़ों में शेष कर दिया है: नोटबंदी और जीएसटी। जो भी इन कदमों की आलोचना कर रहा है उसे विकास विरोधी ही नहीं राष्ट्र विरोधी तक घोषित कर दिया गया है।
गुजरात में प्रधानमंत्री मोदी का एलान एक से अधिक तरीके से ग़ैरज़िम्मेदाराना है। वह भारत के संघीय चरित्र और अलग-अलग राज्य की अपनी स्वायत्तता की पूरी तरह अवहेलना करता है।
'नहीं चल सकती मनमर्ज़ी'
यह ध्यान रहे कि राज्य सरकारें केंद्रीय सरकार की मातहत नहीं हैं। दूसरे, भारत बहुदलीय जनतंत्र है। अलग-अलग दलों की भिन्न-भिन्न विचारधाराएँ हैं। उन्हीं से विकास की उनकी अवधारणा भी विकसित होती है।
इसका फ़ायदा यह है कि एक राज्य को दूसरे राज्य से सीखने का मौक़ा मिलता है। यहाँ तक कि कई बार केंद्रीय योजनाएँ भी कई बार किसी राज्य की योजनाओं से प्रेरित होती हैं।
तमिलनाडु की सामाजिक कल्याण की योजनाओं में काफ़ी कुछ अनुकरणीय था। वैसे ही केरल के विकास के मॉडल में दूसरे राज्यों को सीखने को था। अगर एक ही प्रकार का विकास का मॉडल हर राज्य में लागू किया गया तो उसके असफल होने की कीमत भी बहुत अधिक होगी।
नरेंद्र मोदी न सिर्फ़ संघीय गणतंत्र में प्रधानमंत्री रहने की नज़ाकत को समझ नहीं पाए हैं वे यह भी भूल गए हैं कि संसाधनों का बँटवारा मनमर्ज़ी नहीं किया जा सकता। साधनों के बँटवारे में विभिन्न राज्यों की ज़रूरत और उनके बीच संतुलन का प्रश्न अलग है।
राज ठाकरे ने यह सवाल ठीक उठाया था कि आखिर देश के बाकी राज्यों के मुक़ाबले गुजरात में क्या ख़ास है कि हर महत्त्वपूर्ण योजना में उसका नाम रहे- मसलन, बुलेट ट्रेन मुंबई और अहमदाबाद के बीच ही क्यों चले? शायद मोदी अभी तक गुजरात को अपनी पकड़ के भीतर रखने के मोह से उबर नहीं पाए हैं।
लेकिन यह भी है कि उन्हें लग रहा है कि गुजरात में उनकी और उनके उत्तराधिकारों की सरकार का रिकॉर्ड ऐसा नहीं रहा है कि इस बार चुनाव में वे उसके बल पर वापस आने की सोच सकें।
इसलिए वे परोक्ष रूप से गुजरात की जनता को धमकी दे रहे हैं कि अगर उनके दल के बदले किसी और दल को चुना तो उसे केन्द्रीय संसाधन नहीं मिलेंगे। यह इसलिए कि उन्होंने हर उस दल को जिसने उनकी आलोचना की है, विकास विरोधी घोषित कर रखा है।
भाजपा मोदी से डरती है?
याद कीजिए, इस तरह की धमकी मोदी ने 2015 में दिल्ली की जनता को दी थी। उन्होंने कहा था कि बेहतर हो कि वह भाजपा को चुनें क्योंकि राज्य की भाजपा सरकार उनके डर से काम करेगी।
यह दीगर बात है कि मोदी की इस बात का बुरा खुद भाजपा को लगना चाहिए था क्योंकि यह कहकर कि उनकी पार्टी उनके भय से काम करती है उन्होंने पूरी पार्टी को अपना मातहत बना डाला था। भाजपा में किसी से गैरत की उम्मीद करना बेमानी था। जो ज़रा गर्दन उठाता है उसकी लानत मलामत करने को जेटली और रविशंकर प्रसाद जैसे लोग बैठे हैं।
''अहंकार फिर गूँज रहा है''
दिल्ली ने मोदी को सुना और उनके अहंकार को जगह दिखा दी। जिस दल को लोकसभा में सात की सात सीटें मिली थीं, उसे विधानसभा की सत्तर में सिर्फ तीन से संतोष करना पड़ा।
मोदी को इससे सबक न मिला। बिहार में इस एकाधिकारी मद ने फिर सर उठाया। आरा में उन्होंने बिहार की बोली ही लगानी शुरू कर दी जैसे किसी नीलामी बाज़ार में खड़े हों। झूम-झूम कर वे पूछते रहे, कितना दूं? कितना दूँ? और बोली एक लाख पचीस हजार करोड़ रुपये पर तोड़ी। बिहार की जनता ने इसे सुना और नतीजों में भाजपा को ज़मीन दिखा दी।
2015 का अहंकार फिर गूँज रहा है। लेकिन इस बार उसका खोखलापन भी बज रहा है। इस दहाड़ में पाँव के नीचे से ज़मीन खिसकने की बदहवासी है। क्या गुजरात की जनता भी कुछ तय कर रही है जो पैसे, लोभ और धमकी से नहीं खरीदा जा सकेगा?