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ब्लॉग- अटल बिहारी वाजपेयी ने 'हिंदू हृदय सम्राट' मोदी के लिए रास्ता ऐसे तैयार किया

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, शनिवार, 18 अगस्त 2018 (12:45 IST)
- राजेश प्रियदर्शी (डिजिटल एडिटर)
 
अटल बिहारी वाजपेयी की आलोचना उनके विरोधी भी नहीं करते। 'अजातशत्रु', 'सर्वप्रिय' और 'सर्वमान्य' जैसे विशेषण उनके नाम के साथ लगाए जाते हैं।

वाजपेयी की सबसे बड़ी ख़ासियत थी व्यक्तिगत व्यवहार में उनकी सह्रदयता, विपरीत विचार वाले लोगों को निजी शत्रु मानकर न चलना और ग़ज़ब का वाक्चातुर्य लेकिन, ये मानना नासमझी ही होगी कि इसका कारण सिर्फ़ उनका मधुर व्यवहार है। उनकी छवि ऐसी बनी या बनाई गई कि लोग ये तक भूल गए कि वे आख़िरकार एक राजनीतिक नेता थे।
 
राजनीति में छवि से बढ़कर कुछ नहीं, इसी छवि को जनसत्ता के पूर्व संपादक और नामी पत्रकार प्रभाष जोशी "संघ का मुखौटा" लिखते थे। वाजपेयी आजीवन संघ के प्रचारक रहे, इतने लंबे राजनीतिक जीवन में वे लगातार संघ के नुमाइंदे की ही तरह काम करते रहे। 2001 में प्रवासी भारतीयों को संबोधित करते हुए उन्होंने न्यूयॉर्क में कहा था, "आज प्रधानमंत्री हूँ, कल नहीं रहूँगा लेकिन संघ का स्वयंसेवक पहले भी था और आगे भी रहूँगा।"
 
उनकी ये बात बिल्कुल सच्ची, सही और पक्की है। वाजपेयी संघ के समर्पित प्रचारक थे, उन्हें आरएसएस ने जनसंघ में काम करने के लिए भेजा था, वे मोरारजी देसाई की सरकार में विदेश मंत्री बने जबकि आडवाणी सूचना-प्रसारण मंत्री। 1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया था।
 
आगे चलकर समाजवादी धड़े के लोगों, ख़ास तौर से जॉर्ज फर्नांडिस ने ये मुद्दा उठाया कि दोहरी सदस्यता नहीं होनी चाहिए, यानी जो लोग जनता पार्टी में हैं वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य नहीं होने चाहिए, संघ के प्रति ये वाजपेयी-आडवाणी का समर्पण ही था कि उन्होंने सरकार छोड़ दी लेकिन संघ छोड़ने को राज़ी नहीं हुए।
 
इसी के बाद 1980 में जनसंघ नए रूप में सामने आया। पार्टी का नाम रखा गया भारतीय जनता पार्टी। बात मुख़्तसर ये है कि बीजेपी की पैदाइश से पहले से वाजपेयी-आडवाणी संघ के निर्देश पर ताल-मेल के साथ राजनीति करते रहे हैं और 2004 में इंडिया शाइनिंग वाला चुनाव हारने तक ये जोड़ी बनी रही और हिंदुत्व को पुख़्ता बनाने में जुटी रही।
 
ये बात अहम इसलिए है क्योंकि संघ वह संगठन है जिसका घोषित लक्ष्य भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है, हिंदू वर्चस्ववाद के मॉडल में जिसका विश्वास है, वो ऐसा संगठन है जो किसी के प्रति किसी तरह से उत्तरदायी नहीं है बल्कि लोकतांत्रिक तरीक़े से चुना गया देश का प्रधानमंत्री अगर भाजपा से हो तो वह सरसंघचालक के आदेशों का पालन करता है।
 
अटल बिहारी वाजपेयी के निकट मित्रों में जसवंत सिंह भी रहे हैं। 1996 में प्रधानमंत्री बनने पर वाजपेयी ने जसवंत सिंह को वित्त मंत्री बनाया था। जब 1998 में वाजपेयी अपने मंत्रियों की सूची तैयार कर चुके थे जिसे राष्ट्रपति भवन भेजा जाना था तभी उस वक़्त के सरसंघचालक केसी सुदर्शन ने अचानक वाजपेयी से मुलाक़ात की और उनके कहने पर जसवंत सिंह का नाम सूची से हटा दिया गया।
 
अपने मंत्रिमंडल का चुनाव प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार होता है लेकिन अगर पीएम का संबंध संघ से हो तो आजीवन पद पर रहने के लिए चुने गए सरसंघचालक के सामने यह विशेषाधिकार निरस्त हो जाता है, जसवंत सिंह की जगह यशवंत सिन्हा को वित्त मंत्री बनाया गया क्योंकि संघ सिंह को वित्त मंत्री के रूप में देखने को तैयार नहीं था। मोदी सरकार तो बाक़ायदा आयोजन करके अपनी सरकार की प्रोग्रेस रिपोर्ट संघ नेतृत्व को सौंप चुकी है।
 
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तब दो चेहरे लगाने पड़ते थे
अस्सी के दशक में अयोध्या आंदोलन की शुरूआत से लेकर 2004 तक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राम मंदिर, हिंदुत्व और गठबंधन सरकार सबको एक साथ साधने के लिए दो चेहरों की ज़रूरत महसूस की। सारे उग्र, कठोर और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण वाले काम लालकृष्ण आडवाणी कर रहे थे जबकि एनडीए को जोड़े रखने और शांति से सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी वाजपेयी की थी।
 
दोनों के बीच मतभेद और टकराव की बात को ज़्यादातर गंभीर पत्रकारों ने कभी गंभीरता से नहीं लिया, ये संघ के काम करने का तरीक़ा था। सच ये है कि आडवाणी और वाजपेयी मिलकर उस दिशा में काम करते रहे जिसे संघ की भाषा में 'परम लक्ष्य' कहा जाता है।
 
ये विशुद्ध रूप से छवि का मामला है। जान-बूझकर इस धारणा को बढ़ावा दिया गया कि वाजपेयी उदारवादी हैं और आडवाणी कट्टरपंथी। वक़्त-ज़रूरत के हिसाब से दोनों अपनी-अपनी भूमिका निभाते रहे हैं, वैसे दोनों में कोई ख़ास अंतर इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि संघ में वैचारिक भिन्नता की ख़ास गुंजाइश नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे मार्क्सवाद में विश्वास के बिना आप कम्युनिस्ट पार्टी में तो नहीं हो सकते, उसी तरह हिंदुत्ववादी हुए बिना संघ में भला कोई कैसे रह सकता है?
 
कई ऐसी घटनाएँ हैं जिनसे आप समझ सकते हैं कि वाजपेयी की छवि चाहे जो हो लेकिन हिंदुत्व के मामले में वे लौहपुरूष कहे जाने वाले आडवाणी से कम कट्टर नहीं थे। बहुत सारे लोगों को याद होगा कि 2002 में जब गुजरात में सांप्रदायिक दंगे हुए तो वाजपेयी प्रधानमंत्री थे और मोदी राज्य के मुख्यमंत्री। मोदी को "राजधर्म निभाना चाहिए" और अपने "नागरिकों में धर्म या जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए" वाला जुमला काफ़ी मशहूर हुआ था।
 
यह सदा सच बोलो, अपना काम मेहनत से करो, किसी का दिल मत दुखाओ जैसी ही बात थी। इस सुंदर वचन के अलावा उन्होंने कुछ ठोस नहीं किया, और तो और, गोवा में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में 12 अप्रैल को वाजपेयी ने जो भाषण दिया था वो बताता है कि मुसलमानों के बारे में इस 'उदार' नेता की सोच क्या थी। उन्होंने गोवा में दिए गए भाषण में कहा, "मुसलमान जहाँ कहीं भी हैं, वे दूसरों के साथ सह अस्तित्व पसंद नहीं करते, वे दूसरों से मेलजोल नहीं चाहते, अपने विचारों को शांति से प्रचारित करने की जगह वे अपने धर्म का प्रसार आतंक और धमकियों के ज़रिए करते हैं।"
 
ये भी तय रणनीति का ही हिस्सा था कि आडवाणी, उमा भारती और मुरली मनोहर जोशी बाबरी मस्जिद विध्वंस का नेतृत्व करेंगे और वाजपेयी को इससे अलग रखा जाएगा। इस तरह ये भ्रम बना रहेगा कि वे उदारवादी हैं। ये भी तय किया गया कि वे विध्वंस के समय वहाँ नहीं होंगे, लेकिन उससे पहले 5 दिसंबर को उन्होंने लखनऊ में जो भाषण दिया उसे आप यहाँ सुन सकते हैं। इस भाषण में वाजपेयी आडवाणी से कम कट्टर कहाँ लगते हैं? वे अयोध्या में कारसेवा के दौरान "ज़मीन समतल" करने की बात करते सुने जा सकते हैं।
 
ऐसी ही एक पुरानी मिसाल है असम की जहाँ नल्ली में भयंकर जनसंहार हुआ। आज जबकि पूरे देश में एनआरसी का मुद्दा गर्म है, असम में 1983 में अटल बिहारी वाजपेयी ने एक विवादास्पद और भड़काऊ भाषण दिया था। इस भाषण में उन्होंने क्या कुछ कहा था आप यहाँ सुन सकते हैं।
 
इस भाषण से बीजेपी ने पल्ला झाड़ लिया, लेकिन 28 मार्च 1996 को अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान तत्कालीन गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्त ने संसद में वाजपेयी के भाषणों के अंश पढ़कर सुनाए जिनमें कथित बांग्लादेशियों को बर्दाश्त न करने और उनके साथ हिंसक व्यवहार की बातें कही थीं।
 
सतत परम लक्ष्य की ओर
हिंदुत्व की राजनीतिक यात्रा में कई दशकों के सफ़र में अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका बहुत अहम रही है। धीरे-धीरे ख़ामोशी से हिंदुत्व के लिए ज़मीन तैयार करना वाजपेयी के बग़ैर मुश्किल था, वे 1996 से 2004 तक तीन बार देश के पीएम बने, वे पहले ग़ैर-कांग्रेसी नेता थे जिन्होंने पाँच साल का कार्यकाल पूरा किया।
 
वाजपेयी पार्टी की वफ़ादारी से परे देश के करोड़ों लोगों का प्यार पाने वाले नेता तो हैं ही, लोगों ने प्यार उस उदार, सरल और किसी व्यक्ति से बैर न रखने वाले नेता को दिया, उस नेता का सियासी कौशल ऐसा था कि दो सीटों वाली पार्टी को उसने आडवाणी के साथ मिलकर कांग्रेस का विकल्प बना दिया।
 
ये वो वक़्त था जब संघ को सत्ता का पोषण मिला, उसने अपनी जड़ें मज़बूत कीं, उग्र आडवाणी एक तरफ़ थे तो दूसरी तरफ़ स्थायित्व देने और गठबंधन धर्म का हवाला देकर हलचलों को थामने वाले वाजपेयी। आज नरेंद्र मोदी, साक्षी महराज और गिरिराज सिंह जैसे लोगों से आडवाणी वाला काम ले लेते हैं और अब दो चेहरों की ज़रूरत नहीं रह गई है। वाजपेयी वो मुखौटा थे जिसकी ज़रूरत अब संघ को नहीं है लेकिन जब थी तब वे बहुत काम आए।

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