- जेसिका ब्राउन (बीबीसी फ़्यूचर)
हमारे शरीर के अंदर और बाहर हज़ारों क़िस्म के कीटाणु और दूसरे छोटे जीव आबाद होते हैं। इन्हें माइक्रोबायोम कहते हैं। कुछ ख़राब बैक्टीरिया हमें बीमार कर देते हैं। तो, कुछ हमें सेहतमंद रखने के लिए ज़रूरी हैं। हमारी बड़ी आंत में अरबों की तादाद में माइक्रो-ऑर्गेनिज़्म होते हैं।
इनमें कीटाणु, वायरस, फफूंद और जीवों की दूसरी क़िस्में होती हैं। वैज्ञानिक अब इस माइक्रोबायोम को इंसान के शरीर का एक अंग कहने लगे हैं। हर इंसान में अलग-अलग तरह के माइक्रोबायोम होते हैं। इनका ताल्लुक़ किसी इंसान के खान-पान, रहन-सहन, भूख और मूड से होता है।
हालांकि इस दिशा में काफ़ी रिसर्च हो चुकी हैं। लेकिन, इन माइक्रोबायोम का हमारी सेहत में कितना अहम रोल है, इस बारे में कोई ठोस नतीजा नहीं निकला है। रिसर्च में पाया गया है कि हमारा खान-पान माइक्रो-बायोम को बहुत हद तक असरअंदाज़ करता है।
पेट में जलन की शिकायत
मिसाल के लिए ज़्यादा प्रोटीन और कम फ़ायबर लेने से कैंसर जैसा मर्ज़ पैदा करने वाले सेल पैदा होने की गुंजाइश ज़्यादा होती है। ख़ास तौर से जानवरों का गोश्त इसके लिए अहम रोल निभाता है। वहीं, रेशेदार खाना लेने से पेट में जलन की शिकायत कम होती है।
पेट साफ़ रहता है जिससे रोगों से लड़ने की ताक़त बढ़ जाती है। इस संबंध में अभी तक जितनी रिसर्च की गई हैं, उन सभी का सैम्पल साइज़ बहुत छोटा रहा है। लिहाज़ा अब बड़ा सैंपल साइज़ लेकर बड़े पैमाने पर रिसर्च की जा रही है। मिसाल के लिए अमरीकन गट स्टडी प्रोजेक्ट के तहत क़रीब एक हज़ार अमरीकियों की आंत के माइक्रोबायोम पर रिसर्च की जा रही है।
प्रोबायोटिक्स के सप्लीमेंट
इस प्रोजेक्ट के साइंटिफिक डायरेक्टर डेनियल मैक्डोनाल्ड के मुताबिक़, "अभी तक की रिसर्च के मुताबिक़ जिन लोगों के खाने में फल और सब्ज़ियां ज़्यादा शामिल थीं...।"
"उनकी आंत में कई तरह के माइक्रोबायोम पाए गए जो कि काफ़ी सेहतमंद थे।" "हालांकि अभी ये कहना मुश्किल है कि अगर फल सब्ज़ी ज़्यादा खाने वालों को किसी दूसरी तरह का खाना दिया जाए तो उनके माइक्रोबायोम पर इसका क्या असर पड़ेगा।"
बीते कुछ वर्षों में प्रो-बायोटिक्स को लेकर लोगों में जागरूकता कुछ ज़्यादा ही बढ़ी है। बाज़ार में ना सिर्फ़ प्रोबायोटिक्स के सप्लीमेंट मौजूद हैं। बल्कि कई तरह के अन्य प्रोडक्ट भी उपलब्ध हैं जो ज़ायक़े के लिए खाए जाते हैं। जैसे कि प्रोबायोटिक दही। दरअसल, प्रोबायोटिक्स ऐसे बैक्टीरिया हैं जो रोगनिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं। कई तरह की पेट की बीमारियों, ख़ास तौर से अल्सर के इलाज में इनसे काफ़ी मदद मिलती है।
प्रोबायोटिक्स के साथ तालमेल
हालांकि इनका इस्तेमाल कितना और कब तक करना चाहिए, इस पर अभी रिसर्च जारी है। अपनी रिसर्च के आधार पर इसराइल के प्रोफ़ेसर एरन एलिनाव का कहना है कि हर इंसान को प्रोबायोटिक्स फ़ायदा ही करे, ये ज़रूरी नहीं।
उन्होंने 25 लोगों को दो ग्रुप में बांट कर ये रिसर्च की थी। एक वो ग्रुप था जिनकी बड़ी आंत में ऐसे माइक्रोबायोम मौजूद थे जो प्रोबायोटिक्स के साथ तालमेल बैठा सकते थे। ऐसे लोगों को प्रोबायोटिक्स लेने का फ़ायदा हुआ। लेकिन दूसरा वो ग्रुप था जिनकी बड़ी आंत में प्रोबायोटिक्स के साथ तालमेल बैठाने वाले जीवाणु नहीं थे। ऐसे लोगों को इसका कोई फ़ायदा नहीं हुआ। हालांकि इस रिसर्च का सैम्पल साइज़ बहुत छोटा था।
सेहतमंद ज़िंदगी
सटीक जवाब पाने के लिए ज़्यादा बड़े सैम्पल साइज़ पर रिसर्च की जा रही है। इसके बाद ये भी सुनिश्चित किया जा सकेगा कि किस शख़्स को कौन से प्रोबायोटिक्स लेने चाहिए। सेहतमंद ज़िंदगी जीने में शरीर के भीतर पलने वाले जीवाणुओं का बहुत बड़ा और अहम रोल होता है।
बच्चे की पैदाइश के चंद हफ़्तों बाद ही तय हो जाता है कि बच्चा कितना सेहतमंद रहने वाला है। लिंडसे हाल क्वाडरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ बायोसाइंस की माइक्रोबायोम रिसर्च लीडर हैं। लिंडसे हाल का कहना है कि बच्चे की पैदाइश के समय सबसे पहले उसका वास्ता बच्चेदानी से निकलने वाले पानी से होता है, जिसमें सबसे ज़्यादा बैक्टीरिया होते हैं।
"ये बैक्टीरिया बच्चे की सेहत के लिए ज़्यादा ज़रूरी होते हैं। इसीलिए क़ुदरती तौर पर पैदा बच्चों की रोग निरोधक क्षमता ऑपरेशन से पैदा बच्चों की तुलना में ज़्यादा होती है।"
बच्चे के पेट का सिस्टम
ऑपरेशन से पैदा बच्चे तमाम ज़रूरी माइक्रोबायोम हवा या त्वचा से लेते हैं और कुछ को उनका शरीर ख़ुद पैदा करता है। जबकि क़ुदरती तौर पर पैदा बच्चों की बड़ी आंत में मां के पेट से मिले ज़रूरी बैक्टीरिया और माइक्रोबायोम मौजूद होते हैं।
हाल की रिसर्च बताती हैं कि अगर शुरुआत में ही बच्चे के पेट का सिस्टम गड़बड़ हो गया तो उसे जीवन भर इसका भुगतान भरना पड़ता है। रिसर्च में ये भी पाया गया है कि ऑपरेशन से पैदा बच्चों में तमाम तरह की एलर्जी का शिकार होने की क्षमता ज़्यादा होती है।
साथ ही वो हरेक तरह के इको-सिस्टम में ख़ुद को आसानी से ढाल नहीं पाते और जल्दी-जल्दी बीमार हो जाते हैं। बाइफ़िडोबैक्टीरियम बच्चों की सेहत से जुड़ा कई तरह के बैक्टीरिया का ग्रप है जो उनकी बड़ी आंत में पाया जाता है।
कीटाणुओं से लड़ने में सक्षम
ये बैक्टीरिया बच्चे का पेट साफ़ रखने में मददगार होते हैं। मां के दूध में बाइफ़िडोबैक्टीरियम बड़ी संख्या में मौजूद रहते हैं। जबकि, फ़ॉर्मूला बेस्ड या डिब्बाबंद दूध पीने वाले बच्चों में ये नहीं होते। इसीलिए मां का दूध बच्चे के लिए बहुत ज़रूरी है।
वैज्ञानिक सेहतमंद आंत के माइक्रोबायोम को दूसरे लोगों में ट्रांसप्लांट से इलाज करने की कोशिश कर रहे हैं। माना जा रहा है कि ऐसा करने से नई तरह के बहुत से माइक्रोबायोम पैदा किये जा सकेंगे, जो शरीर में ही मौजूद ख़राब कीटाणुओं से लड़ने में सक्षम होंगे।
इसमें कोई शक नहीं कि एंटी-बायोटिक्स आंत के माइक्रोबायोटा को बदल देती हैं। आंत में ऐसे अनगिनत फ़ायदा पहुंचाने वाले बैक्टीरिया होते हैं, जो बीमारी देने वाले कीटाणुओं के संपर्क में आकर कई तरह के इन्फ़ेक्शन पैदा कर सकते हैं।
दिमाग़ का सही विकास
इन्हें एंटीबायोटिक के असर से बचाने के लिए वैज्ञानिक क़ुदरती तरीक़े तलाश रहे हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि हमारी आंत और दिमाग़ के काम करने के तरीक़े में गहरा रिश्ता है।
रिसर्च में पाया गया है कि अगर आंत में सही तादाद में अच्छे माइक्रोबायोम नहीं हैं, तो दिमाग़ का सही विकास होने में मुश्किल होती है। हालांकि अभी ये पता नहीं लग पाया है कि आंत के कौन से बैक्टीरिया दिमाग़ के विकास के लिए ज़रूरी हैं।
रिसर्चरों का कहना है कि आंत के माइक्रोब्स ऐसे न्योरोट्रांसमीटर्स पैदा कर सकते हैं जो इंसान के दिमाग़ में पाए जाते हैं। इसमें सेरोटोनिन भी शामिल हैं जो हमारा मूड तय करने में अहम रोल निभाते हैं।
हमारा खान-पान
उम्मीद की जा रही है कि बहुत जल्द माइक्रोब्स की मदद से बहुत तरह की दिमाग़ी और नफ़सियाती बीमारियां ठीक करने के उपाय खोल लिए जाएंगे। जानकार एक बात पर सहमत हैं कि एंटी-बायोटिक्स और हमारा खान-पान हमारे माइक्रोबायोम को सबसे ज़्यादा प्रभावित करते हैं।
लिहाज़ा फल, सब्ज़ियों और दही के ज़्यादा इस्तेमाल से हम आंत के जीवाणुओं की संख्या को सही रख सकते हैं। हमें फ़ायदा पहुंचाने वाले बैक्टीरिया को बचा सकते हैं।