प्रेरणा, बीबीसी संवाददाता
बिहार एनडीए में एक बार फिर तनातनी की ख़बरें हैं। प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से नीतीश कुमार की कथित दूरी का मुद्दा ज़ोर पकड़ रहा है। वहीं पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह के इस्तीफ़े के बाद हुई जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह की प्रेस कॉन्फ्रेंस की भी ख़ूब चर्चा है।
मंगलवार को जेडीयू, हम और आरजेडी ने विधानमंडल की अहम बैठक बुलाई है। कांग्रेस ने भी अपने विधायकों को 3 दिनों तक पटना में रहने का निर्देश दिया है।
नवभारत टाइम्स ने सूत्रों के हवाले से लिखा है कि BJP-JDU के टूट की ख़बरों के बीच नीतीश कुमार ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से फ़ोन पर बात की है। दोनों के बीच काफ़ी देर तक बातचीत हुई। अख़बार के अनुसार ऐसी भी ख़बरें हैं कि 15 दिनों में नीतीश कुमार और सोनिया गांधी ने तीन बार बात की है।
अब कुछ लोग इसे प्रदेश में होने जा रहे बड़े सियासी उलटफेर से जोड़कर देख रहे हैं। हालांकि ये पहली बार नहीं हो रहा। बिहार के सियासी गलियारे में हर कुछ दिनों पर ये सवाल सिर उठाने लगता है कि मौजूदा एनडीए सरकार अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा करेगी या नहीं?
सियासी उलटफेर की आहट?
बीते कुछ दिनों में बिहार के जो भी सियासी घटनाक्रम रहे हैं, उन्हें देखते हुए इस बार, इन दावों को कितनी गंभीरता से लेना चाहिए?
इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी कहते हैं, ''इसकी पूरी संभावना है कि नीतीश कुमार अब बीजेपी से अपने संबंध तोड़ लेंगे, क्योंकि उन्हें ये समझ आ गया है कि बीजेपी उनकी पार्टी को कमज़ोर करने की कोशिश में जुटी है।''
साल 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू को सीटों का भारी नुकसान हुआ था। 2015 में मिली 71 सीटों की तुलना में पार्टी को केवल 43 सीटें मिलीं।
पार्टी का मानना है कि इसके पीछे सबसे बड़ी वजह चिराग पासवान रहे। चिराग पासवान ने साल 2020 के विधानसभा चुनाव में 134 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। इनमें से ज़्यादातर प्रत्याशी जेडीयू के ख़िलाफ ताल ठोकते नज़र आए थे।
चुनाव के दौरान चिराग की पार्टी ने 'मोदी से कोई बैर नहीं, नीतीश तेरी खैर नहीं' जैसे जुमले भी उछाले। नतीजा ये हुआ कि जेडीयू को 25 सीटों पर एलजेपी के चलते हार का सामना करना पड़ा।
कन्हैया भेलारी कहते हैं, ''चुनाव परिणामों के बाद पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नीतीश कुमार ने कहा भी था कि चुनाव के दौरान उन्हें पता नहीं चला कि उनका दोस्त कौन है और दुश्मन कौन?''
नीतीश कुमार को दूसरा झटका तब लगा, जब उनके सबसे क़रीबी रहे आरसीपी सिंह के तेवर बदलने लगे। नीतीश कुमार, जो आरसीपी सिंह पर आंख बंद कर के भरोसा करते थे, वो केंद्रीय मंत्री बनते ही नीतीश मॉडल की जगह गुजरात मॉडल का गुणगान करने लगे।
वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी का मानना है कि बीजेपी बिहार को महाराष्ट्र बनाने की तैयारी में थी। आरसीपी सिंह बीजेपी के इसी प्रयोग का हिस्सा थे। पार्टी उनके सहारे जेडीयू में सेंधमारी करना चाहती थी। वहीं आरसीपी सिंह की भी अपनी महत्वकांक्षाएं थीं, वो प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री बनना चाहते थे।
कन्हैया भेलारी जेडीयू नेताओं से हुई बातचीत के हवाले से कहते हैं कि नीतीश कुमार को इसकी भनक लग गई थी कि आरसीपी अपने गांव मुस्तफ़ापुर में बैठकर विधायकों के साथ डील कर रहे हैं।
यही वजह है कि जब रविवार को जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की, तब उन्होंने इशारों-इशारों में ही बीजेपी पर पार्टी को कमज़ोर करने की साजिश का आरोप लगाया।
''नीतीश कुमार अब और देर नहीं करना चाहते इसलिए इस बार ये लड़ाई आर-पार की नज़र आ रही है।''
हालांकि पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर डीएम दिवाकर नहीं मानते कि बीजेपी-जेडीयू में ऐसी कोई टूट होने वाली है। डीएम दिवाकर कहते हैं कि बीजेपी ये काम कभी नहीं करेगी। पार्टी चेहरा विहीन है। उनके पास इतने विधायक नहीं हैं कि वो जेडीयू से गठबंधन तोड़कर भी सरकार में बनी रहे।
''अगर बीजेपी नीतीश कुमार से अलग होती भी है तो बदले में उन्हें क्या मिलेगा? कुछ नहीं।''
नीतीश कुमार बीजेपी की इस कमज़ोरी को ख़ूब समझते हैं इसलिए वो समय-समय पर प्रेशर पॉलिटिक्स करते हैं। आरजेडी के साथ हॉब नॉबिंग, कांग्रेस नेतृत्व से फ़ोन पर बातचीत जैसी तमाम चीज़ें केवल पॉलिटिकल पोस्चर का हिस्सा हैं। यही कारण है कि तीसरे नंबर की पार्टी होने के बावजूद नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहे।
फिर भी अगर ऐसा कुछ होता है तो, इस सवाल के जवाब में दिवाकर कहते हैं कि ये केवल और केवल बीजेपी के लिए नुकसान का सौदा होगा।
क्या कहता है सीटों का समीकरण?
बिहार में कुल 243 विधानसभा सीटे हैं। सरकार बनाने के लिए किसी भी पार्टी को 122 विधायकों की ज़रूरत पड़ती है। मौजूदा समय में बिहार में एनडीए की सरकार है और सरकार का हिस्सा हैं - बीजेपी, जेडीयू और हम। एनडीए के पास कुल 126 + 1 निर्दलीय विधायक का समर्थन हासिल है।
आरजेडी- 79 विधायक
बीजेपी- 77
जेडीयू - 45
हम -04
कांग्रेस - 19
लेफ़्ट - 16
एआईएमआईएम - 1
निर्दलीय - 1
हाल ही सज़ा के ऐलान के बाद आरजेडी के मोकामा से विधायक अनंत सिंह की विधायकी चली गई थी। अगर बीजेपी-जेडीयू के रास्ते अलग होते हैं तो सरकार में बने रहने के लिए जेडीयू को 77 विधायकों की ज़रूरत पड़ेगी, वहीं बीजेपी को 45 विधायकों की। जेडीयू को आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चलाने का अनुभव है।
सोमवार को समाचार एजेंसी एएनआई से बात करते हुए आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने ये कहा है कि अगर नीतीश कुमार बीजेपी से अलग होते हैं तो हम छाती ठोककर उनका साथ देंगे।
बीजेपी की चुनौती
बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये है कि पार्टी के पास नीतीश कुमार जैसा कोई लोकप्रिय चेहरा नहीं है।
प्रोफेसर दिवाकर कहते हैं, बिहार बीजेपी के नेता काफ़ी समय पहले से चाहते हैं कि प्रदेश में बीजेपी अकेले चुनाव में उतरे। 2020 के चुनाव के व़क्त भी बीजेपी नेताओं की यही राय थी, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ये रिस्क लेने को तैयार नहीं था।
केंद्रीय नेतृत्व को पता है कि इतने सालों में भी प्रदेश स्तर पर उनकी पार्टी कोई ऐसा चेहरा तैयार नहीं कर पाई है, जो नीतीश कुमार को चुनौती दे सके।
दूसरी बड़ी चुनौती है बिहार का जातीय समीकरण। बीजेपी अभी भी आरजेडी के एमवाई समीकरण का काट नहीं ढूंढ पाई है।
बिहार की क्षेत्रीय पार्टियां अभी भी मज़बूत स्थिति में हैं। बिना किसी क्षेत्रीय पार्टी से गठबंधन के, यहां सरकार बनाना मुश्किल है इसलिए बीजेपी पूरी रणनीति के तहत क्षेत्रीय पार्टियों के अस्तित्व को धीरे-धीरे ख़त्म करना चाहती है।
हाल ही पटना पहुंचे बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पार्टी की आंतरिक बैठक में कहा था कि अगर उनकी पार्टी अपनी विचारधारा पर चलती रहे तो देश से क्षेत्रीय पार्टियां ख़त्म हो जाएंगी।
राजनीतिक विश्लेषकों और जेडीयू नेताओं की मानें तो जेडीयू के अस्तित्व को ख़त्म करना बीजेपी की इसी रणनीति का हिस्सा है।
जेडीयू का संकट
इस तथ्य को कोई नहीं नकार सकता कि बिहार में जेडीयू की जड़ें कमज़ोर हुई हैं। प्रोफेसर दिवाकर कहते हैं कि जेडीयू का सबसे बड़ा संकट ये है कि पार्टी का कोई कैडर बेस नहीं है। आरसीपी ये दावा ज़रूर करते थे कि उन्होंने पार्टी का कैडर तैयार किया है, लेकिन ज़मीन पर ये दावे सत्यापित नहीं होते।
''ये पार्टी ब्यूरोक्रेसी पर निर्भर है। आरसीपी भी ब्यूरोक्रेसी के कारण ही पार्टी में आए।'' '' पार्टी में सेकंड लाइन लीडरशीप को लेकर भी कोई क्लैरिटी नहीं है।''
नीतीश कुमार के सामने क्या हैं विकल्प?
तो फिर नीतीश कुमार के सामने विकल्प क्या हैं? अगर उनकी पार्टी औऱ वो ख़ुद इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि बीजेपी जेडीयू को कमज़ोर करने की कोशिश में है, तो इसके बावजूद वो खून के घूंट पीकर गठबंधन का हिस्सा बने रहेंगे या कोई नई राह अख़्तियार करेंगे?
इस सवाल के जवाब में कन्हैया भेलारी कहते हैं कि नीतीश महागठबंधन के साथ वापस हाथ मिलाकर सरकार में बने रह सकते हैं।
मुख्यमंत्री कौन होगा, इसे लेकर फ़िलहाल कई तरह की बातें चल रही हैं। कुछ लोग ये कह रहे हैं कि नीतीश कुर्सी कुमार वाली छवि से बाहर निकलना चाहते हैं इसलिए मुमकिन है कि उनकी पार्टी केवल सरकार का हिस्सा बने और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तेजस्वी यादव को बिठा दिया जाए।
एक थ्योरी ये भी चल रही है कि न नीतीश कुमार और न ही तेजस्वी मुख्यमंत्री की कुर्सी स्वीकार करें। किसी तीसरे को सीएम बनाया जाए।
जबकि प्रोफेसर दिवाकर नहीं मानते कि नीतीश आरजेडी के साथ हाथ मिलाएंगे। उनका कहना है कि नीतीश कुमार आरजेडी के साथ काम करने में सहज नहीं हैं।
इसकी एक बानगी 2017 में देखने को मिल गई थी। तब उन्होंने ये कहते हुए महागठबंधन से नाता तोड़ दिया था कि भ्रष्टाचार के आरोपी तेजस्वी यादव के साथ वो काम नहीं कर सकेंगे।
हालांकि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है। लालू परिवार से नीतीश कुमार के संबंध अब भी मधुर हैं। हाल ही आरजेडी की इफ़्तार पार्टी में नीतीश कुमार और तेजस्वी एक साथ नज़र आए थे। वहीं लालू प्रसाद यादव का हाल लेने वो अस्पताल भी पहुंचे थे। ऐसे में इन संभावनाओं को सिरे से ख़ारिज करना सही नहीं होगा।
कन्हैया भेलारी नीतीश कुमार की उस महत्वकांक्षा का ज़िक्र भी करते हैं, जिस पर हाल ही आरसीपी सिंह ने चुटकी ली है। कन्हैया भेलारी कहते हैं कि नीतीश कुमार की एक दिली इच्छी ये है कि उन्हें एक बार प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट किया जाए। अगर उन्हें ऐसी संभावना नज़र आएगी, तो वो विपक्षी खेमे में शामिल होने से नहीं कतराएंगे।
हालांकि कभी नीतीश कुमार में प्रधानमंत्री बनने की तमाम योग्यता होने की बात मानने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह ने हाल ही एक इंटरव्यू में कहा कि सात जन्मों में भी नीतीश कुमार का ये सपना साकार नहीं होगा।
दूसरी तरफ़ बीजेपी है, जिनके लिए 44 विधायकों का समर्थन हासिल करना आसान नहीं। बीजेपी के लिए न तो आरजेडी के दरवाज़े खुले हैं, न ही जेडीयू के विधायकों में टूट जैसी कोई ख़बर ही सामने आ रही है।
पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह एक उम्मीद बचते हैं, जिनके सहारे बीजेपी पार्टी में सेंधमारी कर सकती है, लेकिन क्या आरसीपी सिंह की राजनीतिक हैसियत इतनी है कि नीतीश कुमार का साथ छोड़ जेडीयू विधायक उनके पाले में चले जाएं?
इस सवाल के जवाब में कन्हैया भेलारी कहते हैं, ''आज के समय में आरसीपी के पास जेडीयू के किसी सिटिंग जिलाध्यक्ष का भी समर्थन नहीं है, विधायक तो दूर की बात है''।