हारून रशीद, मैनेजिंग एडिटर, इंडिपेंडेंट उर्दू (इस्लामाबाद)
इमरान खान खिलाड़ी तो बहुत अच्छे थे, लेकिन क्या वे माहिर राजनेता भी साबित हो पाएंगे? पाकिस्तान के हाल के राजनीतिक संकट ने उनकी राजनीतिक सूझ-बूझ पर कई बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं।
उनके राजनीतिक सहयोगी संगठन मुत्ताहिदा क़ौमी मूवमेंट-पाकिस्तान (एमक्यूएम-पी) बुधवार को उनसे अलग हो गया। उसके बाद इमरान खान ने संसद में अपना बहुमत खो दिया है। किसी अनजान देश के धमकी वाले खत से भी उन्हें कोई राजनीतिक फायदा होता नहीं दिख रहा है।
लेकिन सवाल ये उठता है कि हालात यहां तक पहुंचे कैसे? क्या इसके लिए उनकी गलतियां जिम्मेदार हैं? आखिर उन्होंने कौन कौन सी गलतियां कीं?
विवादित भाषा के प्रयोग
क्रिकेट में अपनी आक्रामक गेंदबाज़ी के लिए मशहूर रहे इमरान खान ने राजनीति में भी अपनी यही बात बरकरार रखी। पाकिस्तान की राजनीति में भाषा का प्रयोग पहले भी बहुत अच्छा नहीं रहा है, लेकिन इमरान खान ने कुछ ऐसा अंदाज़ अपनाया कि उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी लोगों को विनम्र लगने लगे।
नवाज शरीफ और आसिफ अली ज़रदारी के लिए 'चोर', 'डाकू' और मौलाना फजलुर रहमान को 'डीज़ल' कह कर, उन्होंने नेताओं को बुरे नामों से पुकारने की परंपरा स्थापित कर दी। हालांकि बात यहीं तक सीमित नहीं रही है।
इमरान खान ने हाल के राजनीतिक संकट के दौरान, अपनी ही पार्टी के नाराज़ सदस्यों पर हमलावर होकर अपने लिए बहुत बड़ी मुसीबत मोल ले ली।
नेशनल असेंबली के इन नाराज सदस्यों में से लगभग एक दर्जन सदस्यों ने अचानक इस्लामाबाद के सिंध हाउस में टीवी एंकरों के सामने आकर अपनी पार्टी और खासकर इमरान खान की नीतियों की खुलेआम आलोचना की।
इसके बाद उन सदस्यों का पहले तो प्रधानमंत्री खान ने और फिर उनके मंत्रियों ने वो हाल किया, कि जैसे उन्हें उनकी वापसी की कोई उम्मीद ही नहीं थी। उनके बारे में कहा गया कि उनके बच्चे स्कूल नहीं जा सकेंगे, उनकी शादियां नहीं हो पाएगी, उन्होंने करोड़ों रुपये लेकर अपने जमीर बेच दिए आदि आदि।
यदि कोई बेहद अनुभवी और समझदार नेता होते, तो शायद वो ऐसा न करते। वो कहते कि ये तो हमारे अपने घर के लोग हैं और घर में भी मतभेद पैदा हो जाते हैं। हम उन्हें मना लेंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया। वो भी उस प्रधानमंत्री ने ये सब किया, जिनके पास नेशनल असेंबली में साधारण बहुमत तक नहीं है।
इससे उन दर्जन भर सदस्यों की नाराज़गी कम होने के बजाय और बढ़ गई। इमरान खान ने अब उन्हें अविश्वास प्रस्ताव के सेशन में शामिल होने से रोक दिया है। यदि वे पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करते हुए वोटिंग में हिस्सा लेते हैं, तो उन पर फ़्लोर क्रॉसिंग विरोधी क़ानून के तहत कार्रवाई हो सकती है।
हालांकि, विपक्ष को अब इन नाराज़ सदस्यों की शायद ही ज़रूरत पड़ेगी, क्योंकि एमक्यूएम के उनके साथ आने से नंबर-गेम में उनकी हालत मज़बूत हो गई है।
इमरान खान ने केवल नेताओं के लिए ही नहीं बल्कि महिलाओं के रेप के मामले में, ओसामा बिन लादेन को शहीद कहने में, और हज़ारा समुदाय को उन्हें ब्लैकमेल न करने, जैसे बयानों में भी लापरवाह भाषा का इस्तेमाल किया। 'तटस्थ तो जानवर होते हैं', जैसे बयान भी उनके हक़ में नहीं गए। बाद में उन्हें इस पर अपनी सफ़ाई भी देनी पड़ी।
नाख़ुश सहयोगी
किसी भी साधारण बहुमत वाली सरकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है? ज़ाहिर है उसके सहयोगी। इमरान खान को छोड़कर, ग्रैंड डेमोक्रेटिक अलायंस (जीडीए) के अन्य तीनों प्रमुख सहयोगी एमक्यूएम, बलूचिस्तान अवामी पार्टी (बीएपी) और पीएमएल-क्यू नाराज़ थे।
साढ़े तीन साल के शासनकाल में वे उनकी मांगों पर कोई ख़ास तवज्जो नहीं दे पाए। किसी को पंजाब में इमरान खान के चहेते मुख्यमंत्री उस्मान बज़दार पसंद नहीं थे, जबकि हूसरों को उनकी तवज्जो न मिलने की शिकायत थी।
भले ही परिस्थितियां देखकर फैसला करने का नाम राजनीति बन गया हो, लेकिन इमरान खान ने राजनीति को नैतिक आधार पर चलाने की कोशिश की। नैतिक रूप से आप एक सच्ची और मज़बूत पोज़िशन ले सकते हैं अगर माहौल अनुकूल है तो।
लेकिन संसद में अगर ज़्यादातर संख्या ऐसे सदस्यों की हो, जो कारोबार और अन्य उद्देश्यों के लिए संसद में आए हैं, तो नैतिकता की परवाह कौन करता है। संसद ज़्यादातर निजी स्वार्थ के लिए आने वाले लोगों का ठिकाना है, वहां हर मुद्दे पर लेन देन होता है।
नैतिकता को ऊपर रखने की कोशिश में इमरान खान आख़िरकार राजनीति में हार गए। ज़्यादातर पाकिस्तानियों का मानना है कि जिस नए पाकिस्तान का टारगेट लेकर वो आए थे, शायद वह इस पारी में संभव न हो, लेकिन अगली बार वह सच हो जाएगा।
इस बात का उन्हें बहुत बाद में एहसास हुआ और उन्होंने पंजाब के मुख्यमंत्री के अलावा सहयोगियों को और मंत्रालय बांटने शुरू किए, लेकिन तब तक पानी सिर से ऊपर जा चुका था।
विदेश नीति की कमज़ोरियां
इमरान खान विदेश नीति के साथ-साथ घरेलू राजनीति में नए रुझानों को पेश करने के प्रयास में उनके अनुसार "विदेशी साजिश" के शिकार हो गए। वह किसी का युद्ध में नहीं बल्कि शांति में साथ देने की नीति लेकर आये।
शीत युद्ध के बाद से पाकिस्तान हर युद्ध में पश्चिम का साथ देता रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में तो पाकिस्तान चार दशकों तक अमेरिका का सैन्य सहयोगी बना रहा है। यहां तक कि जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ जैसे शक्तिशाली सैन्य तानाशाह भी एक अमेरिकी कॉल पर मदद देने के लिए तैयार हो जाते थे।
अफ़ग़ानिस्तान से सैनिकों की वापसी के बाद, अमेरिकी कॉल आना बंद हो गए, जिस पर पाकिस्तान को शर्मिंदा नहीं होना चाहिए था, लेकिन सरकारी अधिकारियों के बयानों ने इस शिकायत को कम करने के बजाय इसे बढ़ा दिया।
इमरान खान इस्लामिक देशों को भी एकजुट करने की कोशिश कर रहे थे। पहले तो उन्होंने तुर्की और मलेशिया के साथ एक गुट बनाने की कोशिश की, जिसे ज़ाहिरी तौर पर सऊदी अरब की नाराज़गी के कारण रोक दिया गया था।
बाद में, अफ़ग़ानिस्तान और पिछले दिनों इस्लामिक देशों के संगठन (ओआईसी) की लगातार दो बैठकें इस्लामाबाद में आयोजित की गईं।
पीपुल्स पार्टी आरोप लगाती है कि अतीत में, ओआईसी का शिखर सम्मेलन लाहौर में आयोजित कराने पर, पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फ़िकार अली भुट्टो को एक "साजिश" के तहत हमेशा के लिए दृश्य से हटा दिया गया था। अब इमरान खान का भी कहना है कि उन्हें भी इसी तरह का ख़तरा है। इस संबंध में वह किसी अज्ञात देश के पत्र को सबूत के तौर पर पेश कर रहे हैं।
रूस की यात्रा को लेकर पश्चिमी देश उनसे साफ़ तौर पर नाराज़ हैं। इन देशों के इस्लामाबाद में मौजूद राजदूतों ने सरकार को एक संयुक्त पत्र भी लिखा है, जिसमें यूक्रेन पर हमले की निंदा करने की मांग की गई है। इमरान खान निंदा तो क्या करते हमले के पहले दिन मास्को पहुंचे। इसलिए रिएक्शन तो आना ही था।
कुछ हलकों के अनुसार, चीन की मदद से चल रही सी-पैक कॉरिडोर परियोजना पर, 2018 में उनके सत्ता में आने से पहले और बाद में कुछ समय तक उनके विरोध की वजह से बीजिंग कुछ ज़्यादा ख़ुश नहीं है। चीन के सरकारी हलकों में शाहबाज़ शरीफ़ को ज़्यादा लोकप्रिय बताया जाता है।
पाकिस्तान की सेना के साथ अनबन
पीटीआई सरकार अंतिम दिनों तक पाकिस्तानी सेना के साथ एक ही पेज पर होने का दावा करती रही है। ये सरकार पिछली मुस्लिम लीग (नवाज़) सरकार की तुलना में सेना के कार्यों का खुलकर बचाव करती थी और अपने और सेना के संबंधों को मज़बूत बताती थी। लेकिन पिछले साल, आईएसआई के प्रमुख की नियुक्ति को लेकर दरार पड़ना शुरू हो गई, जो बढ़ती ही रही।
अगर इन सबके बावजूद, मौजूदा राजनीतिक संकट में सेना ने तटस्थ रहने का फ़ैसला किया है तो यह इमरान खान सरकार के लिए अच्छा नहीं हुआ है। आम धारणा यही है कि स्टेब्लिशमेंट उन्हें बचा सकता था।
ऐसा लगता है कि एक ही पेज पर होने के बावजूद कुछ मतभेद थे, जिन्हें इमरान खान दूर नहीं कर सके। हालांकि, अगर यह सच है तो यह कोई नई बात नहीं है। देश के सबसे शक्तिशाली स्टेब्लिशमेंट को ख़ुश और संतुष्ट रखना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं रहा है।
ग़लत टीम का चुनाव
2018 में सरकार बनने के बाद से, इमरान खान के लिए सबसे बड़ी चुनौती राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में सुधार लाना था। 22 साल से राजनीति के क्षेत्र में संघर्ष कर रहे इमरान खान ज़ाहिरी तौर पर सरकार चलाने के लिए तैयारी करके नहीं आये थे।
असद उमर को वित्त मंत्री नियुक्त किया गया था, लेकिन अप्रैल 2019 में आईएमएफ़ को समय पर बेलआउट पैकेज देने में विफल रहने के आरोप में उन्हें बदल दिया गया।
उनकी जगह अब्दुल हफ़ीज़ शेख़ को लाया गया और फिर जल्द ही उन्हें भी हटा दिया गया और संघीय उद्योग और उत्पादन मंत्री हम्माद अज़हर को वित्त मंत्रालय भी सौंप दिया गया। हम्माद अज़हर पीटीआई सरकार के तीसरे वित्त मंत्री थे।
इसके बाद मौजूदा वित्त मंत्री शौक़त तरेन को लाया गया, जो नवाज़ शरीफ़ और मुशर्रफ़ सरकारों का भी हिस्सा थे। बार-बार कैबिनेट में फेरबदल होने से इस धारणा को मज़बूती मिली कि सरकार की टीम में परिणाम देने की क्षमता नहीं है।
लेकिन अब पिछले कुछ महीनों से सरकार दावा कर रही थी कि अर्थव्यवस्था में सुधार हो रहा है, लेकिन इस बारे में राय बंटी हुई है। ऐसी स्थिति में यही लगता है कि इमरान खान और उनके क़रीबी सहयोगियों की टीम को इस बात का अंदाज़ा ही नहीं था कि सत्ता में आने के लिए क्या क्या तैयारी करनी पड़ती हैं।
वैश्विक मूल्य संकट के मद्देनजर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और ज़्यादा दबाव में आ गई। ज़मीनी स्तर पर कुछ हद तक इसे महसूस किया जाता है, लेकिन विपक्ष के लिए यह एक अच्छा हथियार साबित हुआ।
फिर राजनेताओं की जवाबदेही के लिए, तीन साल बहुत ही ख़राब साबित हुए। लगभग सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं को गिरफ़्तार किया गया, कई महीनों तक हिरासत में रखा गया, मुक़दमे किये गए, लेकिन सबूतों के अभाव में सभी को एक-एक करके रिहा कर दिया गया।
जवाबदेही का नारा महज एक नारा बन कर रह गया। हिसाब लेने के लिए चुने गए शहज़ाद अकबर भी लंबी लंबी प्रेस कॉन्फ्रेंस और अरबों ख़रबों के घोटाले जनता को याद कराने के तीन साल बाद, कुछ भी हाथ न लगने पर ख़ामोश हो कर बैठ गए।
इमरान खान के प्रयासों और इरादों पर शायद किसी को भी शक न हो, लेकिन अपनी पहली पारी में वह अपनी टीम की वजह से काफ़ी पिटें हैं। अब यह देखना बाक़ी है कि क्या उन्हें दूसरा मौक़ा मिलता है या नहीं, और अगर मिलता है तो वे कौन सी टीम को कितनी तैयारी के साथ लेकर मैदान में उतारते हैं।