- विनीत खरे
भारत के सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड के हल्द्वानी में 4 हज़ार से ज़्यादा घरों को तोड़ने पर रोक लगा दी है। इन घरों में 50 हज़ार से ज़्यादा लोग रहते हैं, जिनमें से ज़्यादातर मुसलमान हैं। रेलवे का दावा है कि अतिक्रमण की हुई ज़मीन उसकी है।
उत्तराखंड हाईकोर्ट के घरों को तोड़ने के आदेश के बाद कथित अतिक्रमित ज़मीन पर रहने वालों के बीच प्रदर्शनों और दुआओं का दौर शुरू हो गया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की रोक के बाद बनभूलपुरा की सड़कें बधाई देने वालों से भर गईं। लोग एक-दूसरे से गले मिल रहे थे और सुप्रीम कोर्ट के जजों को धन्यवाद कह रहे थे। वे ये भी कह रहे थे कि उनकी दुआओं का असर हुआ।
ज़ाहिदा की चिंता
हालांकि इन्हीं गलियों में रहने वाली ज़ाहिदा अभी भी फ़िक्रमंद हैं कि अगर टिन से बना उनका घर गिरा तो बच्चों को लेकर वो कहां जाएंगी। जब हम उनके घर पहुंचे तो वो एक बल्ब की मद्धिम रोशनी में टिन की छत के नीचे खड़े होकर रोटी बना रही थीं। घुटने में दर्द के कारण उनके लिए खड़े रहकर काम करना आसान नहीं था, लेकिन बच्चों के लिए रोटियां भी तो बनानी थीं।
उनके घर के सामने एक पतली सी नाली बहती है और उनकी संकरी गली आने-जाने वाले लोगों और मोटरसाइकलों से भरी रहती है। ज़ाहिदा के तीन ऑपरेशन हो चुके हैं और उनके हाथों और घुटनों में हमेशा दर्द रहता है। उनके पांच बेटों में से एक सब्ज़ी बेचकर कमाए पैसों में से कुछ उन्हें देता है जिससे घर का चूल्हा जलता है।
40 साल पहले वो इसी घर में बहू बनकर आई थीं। यहीं से सास-ससुर को आख़िरी विदाई दी और यहीं 20 साल पहले पति की मौत के बाद अकेले सब्ज़ी की दुकान के सहारे बच्चे बड़े किए। पहले दुकान के किराए से घर चला, फिर उनका बड़ा बेटा दुकान पर बैठने लगा।
प्रभावित लोगों की आशंका
बरसात में टपकने वाली टिन की छत के नीचे जीवन काट देने वाली ज़ाहिदा को अब घर छिनने का डर है। ज़ाहिदा कहती हैं, परेशानी ही परेशानी है और ऊपर से घर की फ़िक्र। उखड़ने पर कहां जाएंगे हम? परेशान हैं हम। जिया तो जाता नहीं, मरा भी नहीं जाता। यहीं पड़े रहने दो बस जैसे पड़े हैं। हमारा घर न उखड़े हम बस ये चाहते हैं और कुछ नहीं।
ये कहकर वो रोने लगीं और रोते-रोते बोलीं, जब शादी करके यहां आई थी तो टिन के घर थे। जोड़-जोड़कर बड़ी मुसीबत से टिन डाला है हमने, पेट काट-काट कर। उन्होंने सालों पुराने टैक्स, सरकारी बिल की रसीदें दिखाईं। पानी टपकने की वजह से पुरानी तस्वीरें और दस्तावेज़ ख़राब हो चुके हैं।
जब हम ज़ाहिदा से बात कर रहे थे, तो वहां आसपास इकट्ठे लोग उनके हर शब्द को ध्यान से सुन रहे थे और नाप-तोल रहे थे कि किस शब्द को बाहरी दुनिया में किस नज़रिए से देखा जाएगा और क्या इस केस की अगली सुनवाई या फिर उनके भविष्य पर ग़लत असर तो नहीं पड़ेगा।
सत्ताधारी बीजेपी समर्थक भी परेशान
नज़दीक ही इंदिरा नगर इलाक़े में रहने वाली तिलका देवी कश्यप के परिवार का ख़र्च ठेले पर समोसे और बताशे बेचकर चलता है। इस मुसलमान बहुल क्षेत्र में कुछ हिंदू परिवार भी रहते हैं। तिलका देवी 1975 में यहां आईं और झोपड़ी डालकर रहने लगीं।
वो कहती हैं, टूट-फूट हो जाएगी तो कहां जाएंगे हम? या तो हमें जगह दें वो कहीं। हम जगह छोड़कर चले जाएंगे, नहीं तो पूरी पब्लिक को गोली मार दें। जगह ख़ुद ही खाली हो जाएगी। पांच साल पहले एक्सीडेंट के कारण तिलका देवी के पति अब काम नहीं कर पाते। बड़ा लड़का बीमार रहता है। हालात इतने ख़राब हो जाते हैं कि कभी-कभी भूखों तक रहने की नौबत आ जाती है।
दस्तावेज़ों की चिंता
वो कहती हैं, हाउस टैक्स भी जमा किया है मैंने। सब कुछ किया है। तुम सरकार हो, किताबें बनवाई तुमने मकानों की और अब मना कर रहे हो उनको। पहले से पैसा खा रहे हो ग़रीबों का, क्यों खा रहे हो? क्यों हाउस टैक्स ले रहे हो? क्यों पानी का टैक्स ले रहो हो? क्यों बत्ती का टैक्स ले रहे हो?
तिलका देवी भाजपा वोटर हैं। वो कहती हैं, हम तो शुरू से ही बीजेपी को (वोट) डालते थे। पहले कांग्रेस को देते थे। हमें तो कभी एक रुपया भी नहीं मिला। कांग्रेस में भी न मिला, न बीजेपी में मिल रहा है।
अब दो महीने से हमें राशन मिल जाता है बस। हमें क्या मिला, एक रुपया भी न मिला है कहीं से। बीजेपी को भी सोचना चाहिए कि ग़रीब हैं, इनको देना चाहिए कि नहीं। कोई कुछ नहीं देता। कांग्रेस वालों ने भी कुछ नहीं दिया हमें।
बातचीत के बाद वो एक पोटली में मुड़ी-तुड़ी अवस्था में रखे कटे-फटे दशकों पुराने सरकारी बिल ले आईं और बताया कि वो इन्हें अब करीने से मोड़कर रखेंगी कि कब सरकारी अधिकारियों के सामने इनकी ज़रूरत पड़ जाए। आख़िर मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है।
पेशावर से हल्द्वानी का सफ़र
कुछ तंग गलियां से आगे रहने वाले 61 साल के वारिस शाह ख़ान के पिता 1935 में पेशावर से हल्द्वानी आए और 50 के दशक में ये मकान ख़रीदा। संभालकर रखे गए पुराने दस्तावेज़ों में इस जगह का इतिहास दर्ज है। वारिस शाह ख़ान कहते हैं, जब पाकिस्तान और भारत का बंटवारा हुआ तो उस समय जो लोग पाकिस्तान चले गए थे, ये मकान उनका था। मुहल्ले में और भी मकान हैं, वो सब उन्हीं के थे।
ये कस्टोडियन के क़ब्ज़े में आ गए थे। साल 1956 में मकान का ऑक्शन हुआ था जिसे राजा सिंह ने लिया था। उनसे ये मक़ान एक शख़्स इक़बाल ने लिया और इक़बाल से फिर इसे मेरे पिता ने खरीदा। मस्जिदों, मंदिरों, स्कूलों, दुकानों से भरी इन गलियों में कई लोग मिल जाएंगे, जो बताएंगे कि उनके पिता, दादा, परदादा यहीं पैदा हुए और यहीं उनकी मौत हुई।
एक शख़्स के मुताबिक़, जब दिसंबर में हाईकोर्ट ने ये कथित अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया, तब पहली बार लोगों में डर बढ़ा कि उनकी छत सचमुच में छिन सकती है, और तब लोग सड़कों पर निकले।
कैसे शुरू हुआ यह मामला?
ये ज़मीन किसकी है, लोग यहां कितने सालों से हैं, इन बहसों के पीछे पास के ही एक पुल का ज़िक्र किया जाता है।स्थानीय लोग बताते हैं कि 2004 में ये पुल बना, लेकिन 2008 में गिर गया और इसके गिरने के पीछे अवैध खनन को ज़िम्मेदार ठहराया गया।
कहते हैं कि पुल टूटने से नाख़ुश और ख़ुद को सोशल एक्टिविस्ट बताने वाले रविशंकर जोशी साल 2013 में जनहित याचिका लेकर हाईकोर्ट पहुंचे। इस तरह अदालती कार्रवाइयों की शुरुआत हुई। कथित अवैध खनन के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया रेल पटरी के नज़दीक कथित अतिक्रमित ज़मीन पर रह रहे लोगों को।
हम एक सरकारी दफ़्तर में रविशंकर जोशी से मिले। उनके पास ही उनका सुरक्षा गार्ड खड़ा था। धूप में जैकेट पहने और एक कुर्सी पर बैठे रविशंकर जोशी ऑन रिकॉर्ड सुप्रीम कोर्ट की रोक पर कुछ नहीं कहना चाहते, लेकिन अतिक्रमण पर उनके विचार बिलकुल साफ़ हैं।
वो कहते हैं, सामरिक और व्यापारिक दृष्टि से रेलवे के लिए हल्द्वानी बेहद महत्वपूर्ण है। हल्द्वानी चीन से लगती हुई सीमा के पास सबसे महत्वपूर्ण रेलवे स्टेशन है, लेकिन अतिक्रमण के कारण अगर भविष्य में कुछ होता है, तो मेरा मानना है कि इससे भारतीय सेना की गतिविधियां प्रभावित होंगी।
पूरे कुमाऊं का विकास अतिक्रमण के कारण रुका है, ये मेरा मानना है। इसलिए इस अतिक्रमण को हटाने के लिए मैं उच्च न्यायालय गया। अतिक्रमण अगर अपराध है, तो अपराध है। इसे हटाने के लिए प्रशासन को, क़ानून को, सरकार को कोर्ट को, सख़्त होना पड़ेगा। कहीं पर बैठ जाना और उसकी वजह से आपके और जो मुद्दे हैं और नागरिक प्रभावित हो रहे हैं, इसके लिए अतिक्रमण हटाना ज़रूरी है।
राज्य की ज़िम्मेदारी
स्थानीय लोग सहमत नहीं हैं कि उन्होंने ज़मीन का अतिक्रमण किया है। वो राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी की बात करते हैं। वकील मोहम्मद यूसुफ़ कहते हैं, रेलवे ये साबित ही नहीं कर पा रही है कि कितनी ज़मीन उनकी और कितनी ज़मीन हमारी है। वो नंबर जो रेवेन्यू रिकॉर्ड में है, वो कहां है? यही वजह है कि पहले उन्होंने 29 एकड़ ज़मीन पर दावा किया, उसके बाद 59 एकड़ ज़मीन पर। अब बढ़ते-बढ़ते वो 83 एकड़ ज़मीन क्लेम करने लगे हैं।
नई पॉलिसी आई कि नज़ूल ज़मीन के पट्टों का एक्सटेंशन नहीं होगा, बल्कि वो फ़्री होल्ड होंगे, मालिकाना हक़ दिया जाएगा। लोगों ने अप्लाई किया। आपने उनको कैसे पट्टे दिए? आपने उनसे हाउस टैक्स कैसे ले लिया? आपने उनके नाम फ़्री होल्ड कैसे कर दीं?
स्थानीय निवासी और इलाक़े में रसूख रखने वाले अब्दुल मलिक पुराने कागज़ात दिखाते हुए दावा करते हैं कि रेलवे के पास विकास के कामों के लिए पहले से ही बहुत सारी ज़मीन है और उसके लिए लोगों को हटाने की ज़रूरत नहीं है।
वो कहते हैं, गज़ट में रेलवे को जो ज़मीन मिली थी, उसमें से 10 से 12 एकड़ ज़मीन बह गई थी। वो ज़मीन आज भी मौजूद है। उसके बगल में नगर निगम की 20 एकड़ ज़मीन और खाली पड़ी हुई है।
रेलवे का पक्ष
उत्तराखंड हाईकोर्ट के घरों को तोड़ने के आदेश पर इलाक़े से कांग्रेस विधायक सुमित हृदयेश कहते हैं, उत्तराखंड में नज़ूल भूमि और नज़ूल नीति बड़ा विषय है। उत्तराखंड के जितने महानगर हैं, वहां जितनी ज़मीनें हैं, वो नज़ूल हैं यानी सरकारी ज़मीन पर लोग रह रहे हैं।
वैसे ही ये लोग हैं। उसके भी सबूत थे। लेकिन रेलवे के सामने राज्य सरकार ने हाईकोर्ट में एक भी दिन आवाज़ नहीं उठाई। इसलिए माननीय उच्च न्यायालय का ऐसा आदेश आया। नॉर्थ ईस्टर्न रेलवे सीपीआरओ पंकज कुमार सिंह ने बीबीसी को भेजे एक वक्तव्य में सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखने की बात कही।
उन्होंने कहा, हल्द्वानी भूमि अतिक्रमण का मामला माननीय उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है। इस मामले में रेलवे अपना पक्ष माननीय सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रखेगी। इस संबंध में माननीय सुप्रीम कोर्ट का जो भी निर्णय आएगा, रेलवे उसका पूर्ण रूप से पालन करेगी।
विवादित इलाक़े के नज़दीक ही सड़क पार कूड़े का बड़ा-सा ढेर है जहां पर आसपास के इलाक़ों का भी कूड़ा डाला जाता है। इस कूड़े के पहाड़ के धुएं में यहां रह रहे कई लोग बुलडोज़र के डर और सुप्रीम कोर्ट की रोक से उभरी उम्मीद के बीच झूल रहे हैं।
वो देख रहे हैं कि कैसे मीडिया के एक हिस्से में उन्हें लैंड जिहादी, रोहिंग्या, चरमपंथी बताया जा रहा है। अतीत के तज़ुर्बे और राजनीतिक उतार-चढ़ाव देख चुके, तंग गलियों में रहने वाले यहां के लोग भविष्य को लेकर असमंजस में हैं।