Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो शासन के आख़िरी दिनों की कहानी- विवेचना

हमें फॉलो करें ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो शासन के आख़िरी दिनों की कहानी- विवेचना

BBC Hindi

, शनिवार, 5 दिसंबर 2020 (16:12 IST)
रेहान फ़ज़ल (बीबीसी संवाददाता)
 
जैसे ही भुट्टो ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति का पद संभाला, उन्होंने राष्ट्रपति याह्या ख़ां को उनके घर में नज़रबंद कर दिया और जनरल गुल हसन से कहा कि वो सेना का नेतृत्व करें। इसके बाद उन्होंने सेना, नौसेना और वायुसेना के 44 वरिष्ठ अधिकारियों को ये कहते हुए बर्ख़ास्त कर दिया कि 'वो मोटे हो चले हैं और उनकी तोंद निकल आई है।' पूर्वी पाकिस्तान में हार ने पाकिस्तानी सेना को बैकफ़ुट पर ला दिया था और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया। थोड़े दिनों बाद जनरल गुल हसन भी उनके दिल से उतर गए और उन्हें ऐसे सेनाध्यक्ष की ज़रूरत पड़ गई, जो आंख मूंदकर उनके हर हुक्म का पालन कर सके।
 
ओवेन बैनेट जोंस अपनी किताब 'द भुट्टो डायनेस्टी स्ट्रगल फ़ॉर पॉवर इन पाकिस्तान' में लिखते हैं, ' भुट्टो ने गुल हसन की बर्ख़ास्तगी का आदेश अपने स्टेनोग्राफ़र से टाइप न कराकर अपने एक वरिष्ठ सहयोगी से टाइप करवाया। जनरल गुल हसन की बर्ख़ास्तगी का आदेश जारी करवाने के बाद उन्होंने अपने विश्वस्नीय साथी ग़ुलाम मुस्तफ़ा खार को जनरल गुल हसन के साथ लाहौर जाने के लिए कहा ताकि गुल हसन के साथ तब तक कोई संपर्क न रहे जब तक उनके उत्तराधिकारी की नियुक्ति के आदेश जारी नहीं हो जाते।' 
 
'उस फ़ैसले का विरोध कर सकने वाले संभावित अधिकारियों को एक फ़र्ज़ी बैठक में बुलाया गया और उन्हें वहां तब तक बैठाकर रखा गया, जब तक कि गुल हसन का इस्तीफ़ा नहीं ले लिया गया। रेडियो और टीवी स्टेशन पर पुलिस को तैनात कर दिया गया और पीपुल्स पार्टी ने रावलपिंडी में इस उद्देश्य से एक जनसभा का आयोजन किया कि कहीं राष्ट्रपति भुट्टो को इस मुद्दे पर जनसमर्थन की ज़रूरत न पड़ जाए।' गुल हसन के बाद भुट्टो ने अपने विश्वासपात्र जनरल टिक्का ख़ां को पाकिस्तानी सेना का प्रमुख नियुक्त किया।
 
जलालउद्दीन रहीम की पिटाई
 
कुछ महीनों के अंदर ही भुट्टो का अहंकार इतना बढ़ गया कि वो पार्टी के अपने वरिष्ठ सहयोगियों तक का अपमान करने लगे। भुट्टो की जीवनी 'ज़ुल्फ़ी भुट्टो ऑफ़ पाकिस्तान' में स्टेनली वोल्पर्ट लिखते हैं, '2 जुलाई, 1974 को भुट्टो ने राष्ट्रपति मामलों के मंत्री जलालुद्दीन अब्दुर रहीम और कई वरिष्ठ सहयोगियों को रात्रिभोज पर बुलाया। भोज का समय रात 8 बजे का था लेकिन मेज़बान भुट्टो खुद वहां नहीं पहुंचे।' 
 
'जब रात के 12 बज गए तो रहीम ने अपना गिलास मेज़ पर रखा और चिल्लाकर कहा, 'तुम सब चमचे जब तक चाहो तब तक लरकाना के महाराज का इंतेज़ार करो, मैं तो अपने घर जा रहा हूं।' जब भुट्टो भोज में पहुंचे तो हफ़ीज़ पीरज़ादा ने रहीम के व्यवहार के बारे में उन्हें बताया।' 'देर रात प्रधानमंत्री सुरक्षा के प्रमुख ने रहीम के घर जाकर उन्हें इतना मारा कि वो बेहोश हो गए। जब रहीम के बेटे सिकंदर ने मामले में बीचबचाव करने की कोशिश की तो उनकी भी पिटाई की गई।' 
 
टिक्का ख़ां की राय के ख़िलाफ़ ज़िया को तरजीह
 
जब टिक्का ख़ां का कार्यकाल समाप्त हुआ तो उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के बारे में 7 लोगों की सूची भुट्टो के पास भेजी। उसमें उन्होंने जान-बूझकर जनरल ज़िया का नाम नहीं रखा क्योंकि उन्हें हाल ही में लेफ़्टिनेंट जनरल के रूप में प्रमोट किया गया था। लेकिन भुट्टो ने उनके नाम पर ही मोहर लगाई।
 
शायद इसकी वजह ये थी कि ज़िया ने भुट्टो की चमचागीरी करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी। ओवेन बेनेट जोंस लिखते हैं, ' कई बार जनरल ज़िया ने भुट्टो के उनकी देश और सेना के प्रति सेवाओं के एवज़ में तलवार भेंट की। एक बार उन्होंने भुट्टो को न सिर्फ़ आर्मर्ड कोर का अवैतनिक कमांडर इन चीफ़ घोषित किया बल्कि उनके लिए सेना की ख़ास वर्दी भी सिलवाई।'
 
भुट्टो की जीवनी में स्टेनली वोलपर्ट लिखते हैं, ' ज़िया ने कभी इस तरह का आभास नहीं दिया कि वो कोई सैनिक विद्रोह कर सकते हैं। भुट्टो ने कभी उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। वो अक्सर उनके दांतों का मज़ाक उड़ाया करते थे।'
 
'उनके बारे में एक कहानी मशहूर थी कि एक बार ज़िया सिगरेट पी रहे थे, तभी भुट्टो ने कमरे में प्रवेश किया। इस डर से कि कहीं भुट्टो उनके सामने सिगरेट पीने के बारे में बुरा न मान जाएं, ज़िया ने आव देखा न ताव, वो सिगरेट अपनी जेब के अंदर डाल दी। थोड़ी देर बाद कपड़ा जलने की बू पूरे कमरे में फैल गई। ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने सोचा कि जो शख़्स उनसे इतना डर रहा है, वो उनके ख़िलाफ़ विद्रोह कैसे कर सकता है?'
 
इस बीच भुट्टो सरकार के ख़िलाफ़ पूरे देश में प्रदर्शन होने लगे। भुट्टो की पूरी कोशिश के बावजूद कानून और व्यवस्था पर से नियंत्रण बाहर हो गया। लाहौर में तीन ब्रिगेडियरों ने लोगों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया। एक जगह सैनिकों ने गोली चलाने के आदेश को माना ज़रूर, लेकिन उन्होंने भीड़ के सिर के ऊपर से गोलियां चलाईं। ओवेन बेनेट जोंस लिखते हैं, 'भुट्टो की सबसे बड़ी ग़लती थी अपने विरोधियों के साथ बातचीत में सेना के कोर कमांडरों को शामिल करना।'
 
वो लिखते हैं 'भुट्टो के नज़रिए से देखा जाए तो वो सेना को साथ लेकर चलने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन सेना के अधिकारियों ने उसको दूसरी नज़र से देखा। उनकी नज़र में भुट्टो का ये क़दम बताता था कि वो कमज़ोर हैं और सरकार चलाने की स्थिति में नहीं हैं।'
 
चुनाव में गड़बड़ी
 
तमाम विरोध के बावजूद भुट्टो ने 7 मार्च, 1977 को आम चुनाव करवाए। जो चुनाव परिणाम आए उस पर आम पाकिस्तानियों ने विश्वास नहीं किया। राष्ट्रीय असेंबली में भुट्टो की पीपुल्स पार्टी को 200 में से 155 सींटें मिलीं जबकि विपक्षी पीपुल्स नेशनल अलाएंस को इतने अधिक प्रचार के बावजूद सिर्फ़ 36 सीटें मिल पाईं।
 
1970 के चुनाव में जब पीपुल्स पार्टी अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थी, उसे सिर्फ़ 39 फ़ीसदी वोट मिले थे जबकि इस चुनाव में उनके वोटों का प्रतिशत 55 था। विपक्ष द्वारा भुट्टो को ख़िलाफ़ बड़ा चुनावी अभियान चलाने के बावजूद उन्हें सिर्फ़ 39 फ़ीसदी वोट ही मिल पाए थे।
 
चुनाव के बाद के माहौल का वर्णन करते हुए कौसर नियाज़ी अपनी किताब 'लास्ट डेज़ ऑफ़ प्रीमियर भुट्टो' में लिखते हैं, 'भुट्टो, हफ़ीज़ पीरज़ादा, रफ़ी रज़ा और अपने दो दोस्तों के साथ प्रधानमंत्री आवास पर बैठे हुए थे। पीरज़ादा की तरफ़ देखकर उन्होंने पूछा, 'हफ़ीज़ कितनी सीटों पर धांधली हुई होगी ?; उनका जवाब था 'सर 30 या 40'।' ' इस पर भुट्टो बोले 'क्या हम विपक्ष से ये नहीं कह सकते कि वो इन सीटों पर दोबारा चुनाव लड़ लें? इन सीटों पर हम उनके ख़िलाफ़ अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा करेंगे'।'
 
'भुट्टो चाहते थे कि वो लरकाना से निर्विरोध चुने जाएं, जबकि उनके सलाहकार रफ़ी रज़ा इसके सख़्त ख़िलाफ़ थे। भुट्टो के ख़िलाफ़ लड़ने वाले पीएनए के उम्मीदवार को दूसरी सीट से लड़ने की पेशकश की गई थी और ये भी कहा गया था कि उन्हें निर्विरोध जीतने दिया जाएगा। उन्होंने इस पेशकश को स्वीकार नहीं किया।'
 
'नतीजा ये हुआ कि उनका अपहरण कर लिया गया ताकि वो अपने पर्चे नहीं भर सकें। ओवेन बैनेट जोंस लिखते हैं कि 'हफ़ीज़ पीरज़ादा ने उन्हें बताया था कि चुनाव में गड़बड़ी की शुरुआत इस घटना से हुई थी। भुट्टो के देखादेखी 18 पीपुल्स पार्टी के उम्मीदवारों ने ये सुनिश्चित किया था कि उनके ख़िलाफ़ कोई उम्मीदवार न खड़ा हो।'
 
भुट्टो आख़िर तक ज़िया को नहीं भांप पाए
 
पाकिस्तान के जानेमाने पत्रकार ख़ालिद हसन अपनी किताब 'रियरव्यू मिरर: फ़ोर मेमॉएर्स' में लिखते हैं, 'भुट्टो को एक सलहकार राजा अनवर ने सैनिक विद्रोह से तुरंत पहले भुट्टो और जनरल टिक्का ख़ां के बीच एक मुलाकात देखी थी।'
 
' भुट्टो ने टिक्का ख़ां से कहा था, 'जनरल आपको याद है आपने ज़िया को सेनाध्यक्ष बनाए जाने का विरोध किया था अब आपको मानना पड़ेगा कि मैंने सही फ़ैसला किया था। अगर कोई दूसरा सैनिक प्रमुख होता तो वो कानून और व्यवस्था का बहाना बनाकर अब तक सत्ता पर कब्ज़ा कर चुका होता।' सात घंटे बाद ज़िया ने वही किया।' 
 
जज ने पुराना हिसाब बराबर किया
 
गिरफ़्तार किए जाने के बाद भुट्टो पर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी मोहम्मद अहमद ख़ां कसूरी की हत्या करवाने का आरोप लगाया गया। सरकारी गवाह महमूद मसूद ने गवाही देते हुए कहा कि ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो नें उन्हें कसूरी की हत्या करने का आदेश दिया था।
 
विक्टोरिया स्कोफ़ील्ड अपनी किताब 'भुट्टो: ट्रायल एंड एक्सिक्यूशन' में लिखती हैं, ' पांच जजों की बेंच के प्रमुख थे मौलवी मुश्ताक़ हुसैन। भुट्टो की उनसे पुरानी दुश्मनी थी। जब भुट्टो सत्ता में थे तो उन्होंने दो बार उनसे जूनियर जजों को उनके ऊपर प्रमोट किया था।'
 
'सुनवाई के दौरान जब भुट्टो ने इस बात पर नाराज़गी दिखाई कि उन्हें अदालत मे विशेष रूप से बनाए गए कटघरे में बैठने के लिए कहा जा रहा है, तो मुश्ताक हुसैन ने उन पर कटाक्ष करते हुए कहा था, 'हमें पता है कि आप आरामतलब ज़िदगी जीने के आदी रहे हैं। इसका ख्याल करते हुए ही हमने कटघरे में आपके लिए कुर्सी का इंतेज़ाम किया है वरना आपको आम अपराधियों की तरह बेंच पर बैठाया जाता'।'
 
ज़िया ने पूरी दुनिया की बात नहीं मानी
 
मुश्ताक ने भुट्टो को मौत की सज़ा सुनाई। भुट्टो ने इसके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील की। फ़रवरी 1979 में सुप्रीम कोर्ट ने भी 4-3 के अंतर से हाईकोर्ट के फ़ैसले पर मोहर लगा दी। ओवेन बैनेट जोंस लिखते हैं, ' इससे पहले कभी भी हत्या के षडयंत्र के मामले में मौत की सज़ा नहीं सुनाई गई थी और न ही सुप्रीम कोर्ट के जज सज़ा और आरोपी के अपराध के बारे में एकमत थे। इस सज़ा पर ये भी सवाल उठे थे कि आरोपी को तब भी हत्या का दोषी माना गया था जबकि वो घटनास्थल पर मौजूद नहीं था।'
 
भुट्टो ने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ एक रिव्यू पीटीशन भी दायर की लेकिन उसे इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया कि उसमें इस बारे में कोई दलील नहीं दी गई है कि पिछले दो चरणों के फ़ैसले में कानून का उल्लंघन हुआ है। दुनिया भर के कई नेताओं ने जिनमें रूस के राष्ट्रपति ब्रेझनेव, चीन के हुआ ग्योफ़ेंग और सऊदी अरब के शाह ख़ालेद भी शामिल थे, भुट्टो को माफ़ी देने की अपील की।
 
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जेम्स केलेघन ने जनरल ज़िया को तीन पत्र लिखे जिसमें एक पत्र के अंत में उन्होंने लिखा, ' एक सैनिक के रूप में आपको एक पुरानी कहावत याद होगी कि युद्ध के मैदान में तो घास बहुत जल्दी उग आती है लेकिन फांसी के तख़्ते पर कभी नहीं।' (पाकिस्तान : द केस ऑफ़ मिस्टर भुट्टो, नेशनल आर्काइव्स ऑफ़ यू के एफ़सीओ 37/2195) लेकिन ज़िया ने भुट्टो को फांसी मन बना लिया था। आखिर में बात दया की याचिका तक पहुंची।
 
पाकिस्तान में ये ज़रूरी नहीं कि दोषी या उसके परिवार वालों की तरफ़ से राष्ट्रपति को दया की याचिका भेजी जाए, लेकिन तब भी ये सोचा गया कि कहीं ज़िया इसका बहाना ही न बनाकर कि उनके परिवार वालों ने उनके लिए कुछ नहीं किया, उनको फांसी पर न चढ़वा दें। इसलिए भुट्टो की एक बहन शहरबानो इम्तियाज़ की तरफ़ से एक अपील की गई।
 
1 अप्रैल, 1979 की शाम को जनरल ज़िया ने उस अपील पर लाल कलम से तीन शब्द लिखे 'पीटीशन इज़ रिजेक्टेड।'

हमारे साथ WhatsApp पर जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें
Share this Story:

वेबदुनिया पर पढ़ें

समाचार बॉलीवुड ज्योतिष लाइफ स्‍टाइल धर्म-संसार महाभारत के किस्से रामायण की कहानियां रोचक और रोमांचक

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

किसान आंदोलन के नेता कैसे बदल रहे हैं अपनी रणनीति?