सुशीला सिंह, बीबीसी हिंदी
अफगानिस्तान में चरमपंथी संगठन तालिबान ने काबुल पर क़ब्ज़ा करने के बाद देश के लोगों के लिए कुछ करने और उनकी ज़िंदगी सुधारने की बात कही है।
लेकिन सोशल मीडिया पर काबुल के एयरपोर्ट पर भागते लोगों का हुजूम, गोलियों की आवाज़ें और विमान पर चढ़ने कोशिश करते लोगों की तस्वीरें वायरल हो रही हैं जो अपने आप में ये बताने के लिए काफ़ी है कि वहाँ वाकई में हालात क्या हैं।
महिला और बच्चों की चिंता
इस बात पर भी चर्चा तेज़ है कि अफगानिस्तान में अब महिलाओं और बच्चों का क्या होगा? देश की ताज़ा स्थिति का इन लोगों की ज़िंदगी पर होने वाले असर को लेकर भी चिंता जताई जा रही है।
महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली और अफगानिस्तान में चुनाव आयोग की पूर्व सदस्य ज़ारमीना काकर ने बीबीसी को बताया, ''इन दिनों मुझसे कोई पूछता है कि मैं कैसी हूँ? इस सवाल पर मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं और मैं कहती हूँ ठीक हूँ। लेकिन असल में हम ठीक नहीं हैं। हम ऐसे दुखी पंछियों की तरह हो गए हैं, जिनकी आँखों के सामने धुंध छाई हुई है और हमारे घरौंदों को उजाड़ दिया गया है। हम कुछ नहीं कर सकते, केवल देख सकते हैं और चीख सकते हैं।''
बीबीसी को वॉट्सऐप पर दिए गए जवाब में उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान के सभी प्रांतों, ख़ासतौर पर सेंट्रल अफगानिस्तान के काबुल प्रांत में लोग अपने भविष्य को लेकर चिंतित है और डरे हुए हैं।
उनका कहना था, ''यहाँ सबसे ज़्यादा महिलाएँ, किशोर डरे हुए हैं और ऐसी युवा पीढ़ी जो पिछले बीस सालों में यहाँ पली-बढ़ी है, वो तालिबान से खौफ़ में हैं। काबुल में मौजूद महिलाएँ डर के मारे वहाँ से अब भाग रही हैं। अफगानिस्तान की महिलाएँ तालिबान के शासन के दौरान उन पर होने वाली ज़्यादतियाँ और कोड़े मारने की घटनाओं को भूली नहीं हैं।''
वो आगे बताती हैं कि तालिबान शासित प्रांतों में महिलाओं को ताबूतों में पाकिस्तान ले जाया जा रहा है। ऐसा काबुल में शरण ली हुई महिलाओं ने उन्हें बताया है।
तालिबान का भरोसा
महिलाओं की स्थिति को लेकर सोशल मीडिया पर लोग चिंता ज़ाहिर कर रहे हैं। हालांकि बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन से पूछा गया कि वे युवा महिलाओं और लड़कियों से क्या कहेंगे जो डरी हुई हैं, तो उनका कहना था कि उन्हें डरना नहीं चाहिए।
उन्होंने कहा, ''हम उनकी इज़्ज़त, संपत्ति, काम और पढ़ाई करने के अधिकार की रक्षा करने के लिए समर्पित हैं। ऐसे में उन्हें चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें काम करने से लेकर पढ़ाई करने के लिए भी पिछली सरकार से बेहतर स्थितियाँ मिलेंगी।''
तालिबान अपनी तरफ़ से आश्वासन दे रहा है। वहीं इस बीच अफगानिस्तान में महिलाओं का एक तबका चाहता है कि अंतरराष्ट्रीय जगत उनकी मदद के लिए आगे आए।
सांसद मरियम समा काबुल से बाहर निकलने में कामयाब रही हैं लेकिन अपने परिवार के लिए वे फ़िक्रमंद हैं, जो अभी भी काबुल में ही मौजूद हैं।
देश में महिलाओं की स्थिति पर उन्होंने बताया, ''महिलाएँ और लड़कियाँ काफ़ी डरी हुई हैं। उनका कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाएगा क्योंकि ना वो नौकरी कर सकती हैं ना लड़कियाँ अब पढ़ सकेंगी। हम अपना देश खो देंगे। ये काफ़ी दुखी कर देने वाला और ख़तरनाक है।''
वे कहती हैं, ''अगर अफगानिस्तान की स्थिति पर दुनिया ध्यान नहीं देगी तो तालिबान सत्ता में आ जाएँगे और फिर स्थिति हाथ से निकल जाएगी। तालिबान मतलब पाकिस्तान जो हमारे देश को चलाएगा और इससे आंतकवाद ही बढ़ेगा।''
उन्होंने बीबीसी को वॉट्सऐप पर दिए गए जवाब में कहा कि पाकिस्तान पर दुनिया को दबाव डालना चाहिए और प्रतिबंध लगाने चाहिए और ऐसी कार्रवाई तुरंत की जानी चाहिए क्योंकि मुझे डर है कि तालिबान सत्ता पर फिर काबिज हो जाएँगे। उन्हें ये समझना होगा कि ये केवल अफगानिस्तान के बारे में नहीं है बल्कि वैश्विक सुरक्षा के लिए ज़रूरी है। वे आतंकवादी हैं।
अनिश्चितता का माहौल
अफगानिस्तान में मौजूद पत्रकार फ़ातिमा होसैनी भी इस अनिश्चितता के माहौल से घबराई हुई हैं।
बीबीसी ने उनसे संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उनका फ़ोन या तो स्विच्ड ऑफ या नेटवर्क क्षेत्र से बाहर होने का संदेश दे रहा था। फ़ातिमा होसैनी ने एनवन सीएनएन न्यूज़ प्रोड्यूसर और एंकर इका फेरैर गॉटिक से बातचीत में कहा कि उन्हें उम्मीद है कि दुनिया हमारे लिए अपने दरवाज़े बंद नहीं करेगी।
उन्होंने साक्षात्कार में कहा, ''ये बहुत ही ख़राब स्थिति है। हमारे स्कॉलर, महिलाओं की ज़िंदगी अनिश्चितता से भरी हुई है और हम लोगों को नहीं पता कि आगे क्या होगा। एक पत्रकार होने के नाते मैं यही कहना चाहूँगी कि कृपा करके अफगानिस्तान को ना भूलें, हमारा जो इतिहास है जो हमने अब तक किया है और हमारी बहादुर महिलाओं और उनकी आवाज़ को ना भूलें।''
नाउम्मीद
कई लोग 60-70 के दशक की तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं, जहाँ उस समय की महिलाओं और तालिबान के शासन के दौरान महिलाओं की तुलना की जा रही है।
स्वतंत्र फ़िल्ममेकर सहरा क़रीमी ने सिनेमा और फ़िल्मों को प्यार करने वाले लोगों और फ़िल्म कम्युनिटी को चिट्ठी लिखी है और मदद की गुहार लगाई है।
उन्होंने लिखा है कि 'दुनिया हमें पीठ ना दिखाए, अफगानिस्तान की महिलाओं, बच्चों, कलाकारों और फ़िल्ममेकर्स को आपके सहयोग की ज़रूरत है।
ज़ारमीना काकर कहती हैं, ''हम अफगानिस्तान में मानवाधिकारों को लेकर वर्षों से काम कर रहे हैं। हम तालिबान के विचारों के ख़िलाफ़ हैं और हमने तालिबान के विरोध में नारे भी लगाए हैं।''
उनके अनुसार, ''पिछले 20 सालों में अफगान महिलाओं ने देश में लोकतंत्र की बहाली के लिए बहुत कोशिशें की है। लेकिन आज तालिबान की वापसी से ये लगता है कि हमने इतने सालों में जो हासिल किया था, वो बर्बाद हो गया क्योंकि तालिबान महिला अधिकारों और महिलाओं की निजी स्वतंत्रता को लेकर प्रतिबद्ध नहीं है।''
अफगानिस्तान में महिलाएँ ख़ासतौर पर मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार पल-पल में मौत को देख रही है और अब वो पूरी तरह से नाउम्मीद महसूस कर रही हैं।
वे कहती हैं कि ''लोग युद्ध से थक चुके हैं, वे शांति चाहते हैं। हम अपने सैनिकों के शवों और इस खौफ़नाक मंज़र से थक चुके हैं। हम सबकी ज़िंदगी ख़तरे में है।''