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उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री तो बन गए लेकिन सरकार चला पाएंगे?

हमें फॉलो करें उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री तो बन गए लेकिन सरकार चला पाएंगे?
, शनिवार, 30 नवंबर 2019 (09:11 IST)
नामदेव अंजना, बीबीसी मराठी संवाददाता
उद्धव ठाकरे ने अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के तौर पर अपना कार्यभार संभाल लिया है। लेकिन, इससे पहले उन्होंने कभी कोई प्रशासनिक दायित्व नहीं संभाला है। इसलिए ये सवाल उठ रहा है कि क्या वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के तौर पर अपना काम सही ढंग से कर पाएंगे।
 
हालांकि, उन्होंने पिछले कुछ सालों में जिस तरह से शिव सेना का नेतृत्व किया है और जिस तरह से शिव सेना के ज़रिए उन्होंने मुंबई नगर निगम को चलाया है, उससे उनके कामकाजी स्टाइल का आकलन किया जा सकता है।
 
पिछले कुछ सालों से, शिव सेना ही मुंबई नगर निगम चला रही है। इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश अकोलकर कहते हैं, "उद्धव ठाकरे की प्रशासन पर पकड़ रही है। लेकिन कोई ये नहीं कह सकता है कि बीएमसी से मुंबई के निवासियों को फायदा हुआ है। उनका किसी प्रशासन से सीधा कनेक्शन नहीं रहा है। उन्होंने केवल अपनी पार्टी को चलाया है लेकिन वे कभी किसी पद पर नहीं रहे।"
 
"मुख्यमंत्री बनने से पहले शिवाजी पार्क और मातोश्री का हाल ही उनके लिए खेल का मैदान रहा है। उन्होंने इन दोनों खेल के मैदान पर काफी अच्छा किया है। लेकिन इन मैदानों पर बल्ला भी उनका था, गेंद भी उनकी थी और अंपायर भी उनके थे। लेकिन अब उन्हें विधानसभा में बल्लेबाजी करनी होगी, जहां बीजेपी के 105 गेंदबाज मौजूद होंगे। इसलिए वे मुख्यमंत्री या प्रशासक के तौर पर किस तरह से काम करेंगे, इसका आकलन लगाना मुश्किल है। उनका अपनी पार्टी पर नियंत्रण हो सकता है, लेकिन उन्होंने कभी मुंबई नगर निगम के काम काज में हिस्सा नहीं लिया।"
 
शिव सेना ने हमेशा भावनाओं की राजनीति की है। चाहे वो नगरनिगम का चुनाव रहा हो य फिर राज्य की राजनीति रही हो,शिव सेना हमेशा भावनात्मक मुद्दों के आधार पर राजनीति करती रही, यही वजह है कि माना जा रहा था कि बाला साहेब के निधन के बाद शिव सेना को चलाना चुनौतीपूर्ण होगा लेकिन आकोलकर के मुताबिक उद्धव ठाकरे ने इस चुनौती को बहुत आसानी से निभाया।
 
वरिष्ठ पत्रकार अकोलकर कहते हैं, "बीजेपी ने 2014 में एलायंस आख़िरी मिनट में ठुकराया था। उद्धव ठाकरे ने पांच पार्टियों के ख़िलाफ़ अकेले चुनाव लड़ने का साहस दिखाया और उस चुनाव में शिव सेना 63 सीटें जीतनी में कामयाब रही। यह काफी मुश्किल था। बाला साहेब का करिश्मा भी नहीं था, उनके निधन के बाद ये पहला चुनाव था। गठबंधन तोड़ने के चलते बीजेपी से मराठी मानुष थोड़ा नाराज़ था। लेकिन चुनाव में कामयाबी का श्रेय उद्धव ठाकरे को गया। उस वक्त उनके साथ वरिष्ठ नेता नहीं थे। बाल ठाकरे के सहयोगी रहे मनोहर जोशी, सुधीर जोशी, दत्ता जी नालावाडे, वारामराव महादिक और दत्ताजी साल्वे उनके साथ थे। ऐसे में यह उद्धव ठाकरे के लिए वास्तविक इम्तिहान था।"
 
किसी भी मुख्यमंत्री को प्रशासनिक स्तर पर अपनी पकड़ मजबूत रखनी होती है। लेखक एवं पत्रकार धवल कुलकर्णी बताते हैं, "कांग्रेस, एनसीपी और बीजेपी, सबके अपने अपने प्रतिबद्ध ब्यूरोक्रेट्स या फिर प्रशासनिक अधिकारी हैं, जो खास पार्टी से नजदीकी रखते हैं। लेकिन शिवसेना के साथ ऐसा नहीं है। इसलिए वो नौकरशाहों के बीच अपना नेटवर्क बनाएंगे। आखिर में ये तीन पार्टियों की मिली जुली सरकार है। ऐसे में उद्धव ठाकरे को राजनीतिक और प्रशासनिक तौर पर आगे आकर यह साबित करना होगा कि सरकार वे ही चला रहे हैं।"
 
ट्रांसपोर्ट एक्सपर्ट सुधीर बदामी बताते हैं, "उद्धव ठाकरे किसी दूसरे राजनेता की तरह नहीं हैं। कई बार तो वे शिव सैनिक की तरह आक्रामक हो जाते हैं लेकिन ये उनका अपना टेम्पारमेंट नहीं है। मेरा ख्याल है कि वे अगले पांच साल तक तीनों राजनीतिक दलों के गठबंधन को बनाए रखेंगे। ये बात सही है कि उनके पास प्रशासनिक अनुभव नहीं है लेकिन उनके पास लोग हैं जो उन्हें सलाह मशविरा देंगे। उन्होंने पहले सरकार नहीं चलाई है लेकिन उनके पास एक पार्टी को चलाने का अनुभव है, वो पार्टी भी ऐसी है जिसमें विभिन्न विचारधारा के लोग शामिल हैं। इसलिए मुझे लगता है कि वे इसे सफलतापूर्वक कर पाएंगे। "
 
"फडणवीस नरेंद्र मोदी की तरह अपनी ताकत प्रदर्शित करने में यकीन रखते थे। लेकिन उद्धव ठाकरे का रवैया काफी नरमी भरा है। यह शिव सेना के अस्तित्व का भी सवाल है। जहां तक मुंबई नगर निगम की बात है, उसका कामकाज तो आयुक्त ही देखते हैं। नगर निगम की स्टैंडिंग कमेटी प्रस्तावों को आगे बढ़ाती है। कारपोरेटरों ने ज्यादा कुछ नहीं है। लेकिन चूंकि इस सरकार को तीन पार्टियां मिलकर चलाएंगी तो मुझे सुधार की उम्मीद लग रही है। तीनों पार्टियां एक दूसरे को चेक करके ही अपना अपना अस्तित्व कायम रख सकती हैं, ऐसे में उन्हें कोई ना कोई बीच का रास्ता निकालना होगा। कोई भी पार्टी अब सत्ता खोना नहीं चाहेगी। इसलिए भी ये तीनों पार्टियां कुछ ज्यादा साल तक एकजुट रहने की कोशिश करेंगी।"
 
उद्धव ठाकरे की राजनीति का अंदाज बाल ठाकरे की राजनीति से बेहद अलग है। शिव सेना का भविष्य क्या होगा, इसको लेकर भी तमाम तरह की आशंका उठ रही हैं, क्योंकि शिव सेना की कमान आक्रामक बाल ठाकरे के हाथों से निकलकर अपेक्षाकृत मॉडरेट दिखने वाले उद्धव ठाकरे के हाथों में है।
 
मुंबई मिरर के अस्सिटेंट एडिटर अल्का धूपकर बताती हैं, "उद्धव ठाकरे की कमजोरी ही उनकी मजबूती साबित हुई है। उनके बारे में कहा जा रहा है कि वे नरम लहजे वाले राजनेता हैं। उन्होंने जिस तरह से आदित्य ठाकरे को राजनेता के तौर पर अब तक उभारा है, उससे भी यह जाहिर होता है।"
 
मुंबई मिरर को दिए एक इंटरव्यू में आदित्य ठाकरे ने कहा है कि आज की शिव सेना में हिंसा की कोई जगह नहीं है। उद्धव ठाकरे ने विरासत में मिली शिव सेना को 2005 में संभाला था। इसके बाद से ही शिव सेना के हिंसक प्रदर्शनों में कमी देखने को मिली है। हालांकि उन्होंने आक्रामक रास्ता पूरी तरह से छोड़ा नहीं है।
 
उद्धव ठाकरे अभी अभी एक हाथ से भय का डंडा चलाते हैं। हालांकि उन्होंने भी कहा है कि उनकी पार्टी किसी के खिलाफ कोई प्रतिशोध नहीं रखते लेकिन वे चेतावनी भी देते हैं कि अगर कोई उनके रास्ते में आता है तो वे उसे हटा देंगे। इस तरह से उन्होंने शिव सेना के अनिश्चित रवैय को बरकरार रखा है।
 
दूसरी ओर शिव सेना की महिला कैडर भी उद्धव ठाकरे के साथ है। अल्का धूपकर के मुताबिक, "शिव सेना की महिला विधायक बाल ठाकरे में पिता का रूप देखते हैं, जबकि उद्धव ठाकरे जरूरत के हर वक्त उनके साथ खड़े रहते हैं।"
 
एक और बात है, जो ध्यान आकर्षित करता है। उद्धव ठाकरे ने कभी अपने कजिन राज ठाकरे के खिलाफ कोई कटु बयान जारी नहीं किया है। राज ठाकरे की महाराष्ट्र नव निर्माण सेना उम्मीद के मुताबिक आगे नहीं बढ़ पाई लेकिन उद्धव ठाकरे ने कभी अपने भाई के खिलाफ कुछ नहीं बोला।
 
पर्यावरण मामलों पर काम करने वाले एक्टिविस्ट स्टालिन के मुताबिक उद्धव ठाकरे अपने टेंपारमेंट के चलते ही पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर को समझ पाते हैं। मुंबई के आरे में पेड़ को बचाने के लिए स्टालिन का संगठन वन शक्ति सबसे आगे खड़ा था।
 
शिव सेना ने आरे के मुद्दे पर अपनी राय स्पष्ट रखी थी। उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने पर स्टालिन बताते हैं, "उद्धव ठाकरे पर्यावरण प्रेमी के तौर पर जाने जाते हैं, हमें उम्मीद है कि पर्यावरण को बचाने के लिए कदम उठाएंगे। वे पर्यावरण संबंधी फोटोग्राफी भी करते रहे हैं। वे दूसरे राजनेताओं की तुलना में प्रकृति के ज्यादा करीब हैं,उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा था आरे के जंगलों को बचाया जाएगा। मुझे उम्मीद है कि वे अपने शब्दों पर बने रहेंगे।"
 
स्टालिन का ये भरोसा कोई हवा नहीं था, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री बनने के 24 घंटों के भीतर उद्धव ठाकरे ने आरे में बनने वाले मेट्रो कार शेड कंस्ट्रक्शन के काम पर रोक लगा दी।
 
इस लिहाज से देखें तो महराष्ट्र में नेतृत्व का बदलना लोगों के लिए अच्छा है। अब उम्मीद की जा सकती है कि वन और प्रकृति को बचाने की कोशिश होगी। शिव सेना का पॉलिटिकल एजेंडा चाहे जो हो, वे लोगों की इच्छाओं के विपरीत नहीं जाते हैं, ये सच्चाई है।
 
स्टालिन बताते हैं, "किसी भी खास प्रोजेक्ट के खिलाफ जब लोग विरोध करने पर उतर आते हैं तो शिव सेना उस प्रोजेक्ट का समर्थन कभी नहीं करता है और प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाता है। शिव सेना में एक और अहम बात है, ये लोग हमेशा बातचीत और बहस के लिए तैयार रहते हैं। पिछली सरकार में काफी अहंकार था, उन्होंने लोगों से बातचीत के सभी दरवाजे बंद कर दिए थे। दोनों सरकारों में यह एक मूलभूत अंतर होगा। इस सरकार में आपके सामने मुद्दों पर बातचीत का विकल्प मिलेगा। आप सरकार में बैठे लोगों से बात कर पाएंगे। उन्हें अपना पक्ष समझा सकते हैं। यह पिछली सरकार में संभव नहीं था।"
 
कोंकण के ननार प्रोजेक्ट पर शिव सेना और बीजेपी में मतभेद था। स्थानीय लोग इस प्रोजेक्ट का विरोध कर रहे थे, शिव सेना भी स्थानीय लोगों के साथ और उसने इसका विरोध किया था। जिसके चलते बीजेपी को इस प्रोजेक्ट को किसी दूसरी जगह ले जाने का फैसला करना पड़ा था लेकिन बीजेपी के नेताओं ने इस प्रोजेक्ट के पूरा कराने पर काफी जोर दिया था।
 
इसके बारे में स्टालिन बताते हैं, "हमें उम्मीद थी कि शिव सेना इस प्रोजेक्ट के लिए कोई और जमीन देखेगी। कोंकण एक तरह से शिव सेना का किला है। मुझे नहीं लगता है कि वे लोग ऐसा कोई काम करेंगे जिससे इलाके की संस्कृति या पर्यावरण पर कोई असर पड़े।"
 
लेकिन शिव सेना ने जिस तरह से मुंबई नगर निगम को चलाया है वहां उनके काम को देखकर किसी को भी शिव सेना सरकार के कामकाज को लेकर आशंका हो सकती है। मुंबई मिरर की अस्सिटेंट एडिटर अल्का धूपकर बताती हैं, "नई और पुरानी शिव सेना में तालमेल बिठाना होगा, मातोश्री या उद्धव क्या आतंरिक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा पाएगा। मातोश्री पहले इसमें कामयाब नहीं रहा है। अब ये देखना होगा कि मुख्यमंत्री निवास वर्षा से कहीं ज्यादा अंकुश लग पाता है या नहीं।"
 
अल्का धूपकर बताती हैं, "शिव सेना को मुंबई नगरनिगम में राजनीतिक कामयाबी मिली थी लेकिन क्या वे अपना काम ठीक ढंग से कर पाए? इन लोगों का चुनावी स्लोगन हम करेंगे, इसी वजह से नाकाम रहा। लोगों ने उन्हें ट्रोल किया। सड़कों पर गड्ढों का मसला हो या फिर सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट का मामला हो, ये सब मुद्दे गंभीर समस्याओं में बदल गए थे। शिव सेना इन मुद्दों पर कुछ भी करने में कामयाब नहीं हुई। सरकारी अस्पताल बदतर स्थिति में पहुंच गए। बीएमसी संचालित स्कूलों की विश्वसनीयता खत्म हो गई। अगर इन मानकों पर देखें तो बीएमसी के अधीन शिव सेना के कामकाज की काफी आलोचना हुई। इसलिए शिव सेना के सामने इस सरकार को चलाने की चुनौती काफी बड़ी साबित होने वाली है।"
 
शिव सेना का बृहनमुबंई नगरनिगम (बीएमसी) पर शासन है, लेकिन उसे हमेशा सड़कों और स्कूलों की खराब स्थिति के लिए आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। मेयर और पार्टी के विधायकों ने दावा किया था सड़कों पर कहीं भी कोई गड्ढा नहीं है। इसको लेकर उन्हें सोशल मीडिया पर ट्रोल किया जा रहा है। बीएमसी के स्कूलों की बदतर स्थिति को लेकर काफी नाराजगी भी है।
 
मुंबई नगर निगम में शिव सेना के शासन पर एजुकेशनल एक्सपर्ट रमेश जोशी भी नाराजगी जाहिर करते हुए बीबीसी मराठी से कहते हैं, "नगरपालिका मराठी भाषा और मराठी शिक्षा को दबाने में लगी है। उद्धव ठाकरे को सबसे पहले इसे रोकना चाहिए। एक प्रस्ताव पास किया गया था जिसके मुताबिक सभी जगहों पर सीबीएससी से संबंद्ध स्कूलों को खोले जाने की बात है। इस पर उन्हें शर्म भी महसूस नहीं हो रही है? नगरपालिका एक्ट की धारा 61 के मुताबिक कहा गया है कि स्थानीय स्तर पर प्राथमिक शिक्षा स्थानीय भाषा में मुहैया करानी चाहिए। लेकिन ये लोग मराठी स्कूलों को बंद कर रहे हैं। इस गलती का उन्हें कोई एहसास भी नहीं है। मुझे उम्मीद है कि उद्धव ठाकरे कम से कम इस नीति को रोकेंगे।"
 
रमेश जोशी ये भी बताते हैं, "बीएमसी पर जब से शिव सेना का शासन शुरू हुआ है तब से बीएमसी स्कूलों की स्थिति बिगड़ी है। बीएमसी स्कूल संयुक्त महाराष्ट्र कमिटी के तहत अच्छे ढंग से चला करते थे। उद्धव ठाकरे ने इन स्कूलों के लिए वर्चुअल एजुकेशन की स्कीम लागू की थी। वह तमाशा साबित हुआ था। क्या किसी ने उसकी समीक्षा की? वह स्कीम कितनी कामयाब रही? क्या इससे शिक्षा का स्तर सुधरा है? किसी ने उसका आकलन नहीं किया है। उन्होंने अभी वो बाते कहीं हैं जो उन्हें बेहतर लगी हैं। मुझे लगता है कि किसी भी स्कीम की घोषणा करने से पहले उद्धव ठाकरे को उस क्षेत्र विशेष के बारे में मूलभूत जानकारी लेनी चाहिए। मैं उनसे ऐसा करने का अनुरोध करता हूं।"
 

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