रजनीश कुमार, बीबीसी संवाददाता, पटना से
बिहार की राजधानी पटना में मौर्या फ़ाइव स्टार होटल है। इसके एग्ज़िट गेट पर शिवचंद्र चौधरी 1999 से गार्ड की नौकरी कर रहे हैं। वह बताते हैं कि 1999 में जब उन्होंने नौकरी जॉइन की थी तो 1200 रुपये प्रति महीने सैलरी मिलती थी, जो 2022 में सात हज़ार तक पहुँची है। शिवचंद्र दलितों में पासी जाति ताल्लुक रखते हैं।
पटना के श्रम अधीक्षक रणवीर रंजन से पूछा कि गार्ड की नौकरी किस श्रेणी में आती है? उन्होंने कहा कि सेमी स्किल्ड और अनस्किल्ड यानी अर्धकुशल और अकुशल के बीच पेच फँसा हुआ है लेकिन अभी इन्हें अकुशल वाली दिहाड़ी मिलती है।
बिहार में अनस्किल्ड लेबर की दिहाड़ी नौ घंटे के लिए 366 रुपये है। इस लिहाज से शिवचंद्र चौधरी की सैलरी 10,980 रुपये होनी चाहिए थी। शिवचंद्र पासवान के लिए बिहार में कोई सरकार बने, उनके जीवन पर कोई सकारात्मक असर नहीं पड़ता है।
वह कहते हैं, "सर, आटा 40 रुपये किलो ख़रीद रहे हैं। 1999 में जब 1200 रुपये मिलते थे तब भी इतनी परेशानी नहीं होती थी। अब तो बस जीवन काट रहे हैं। मोदी जी ने महंगाई बहुत बढ़ा दी है। उम्मीद है कि नीतीश बाबू तेजस्वी यादव के साथ कुछ महंगाई कम करेंगे।"
'मिनिमम वेज नहीं मिल रहा है'
बात केवल शिवचंद्र चौधरी को उचित दिहाड़ी मिलने तक सीमित नहीं है। बिहार विधानसभा के भीतर कृष्णा प्रसाद पिछले 20 सालों से विधायकों को चाय बनाकर पिला रहे हैं लेकिन उनकी कोई मासिक सैलरी फिक्स नहीं है। विधायकों की कृपा पर उनका घर चल रहा है।
आरजेडी के एक विधायक ने कहा, "लोगों को मिनिमम वेज नहीं मिल रहा है, इसे देखने के लिए कहीं और जाने की ज़रूरत नहीं है बल्कि विधानसभा ही आ जाइए। ऐसे दर्जनों लोग मिलेंगे जो कई दशकों से काम कर रहे हैं लेकिन उनका जीवन काम के बदले सम्मानजनक सैलरी से नहीं बल्कि विधायकों की जी हुजूरी से चल रहा है। ये गिड़गिड़ाते रहे लेकिन किसी मुख्यमंत्री ने इन्हें स्थायी नौकरी नहीं दी।"
कृष्णा प्रसाद से पूछा कि वह अपना घर कैसे चलाते हैं, "सर, हाउस चलता है तो हमें कुछ पैसे मिल जाते हैं लेकिन हाउस नहीं चलता है तो विधायकों की दया पर निर्भर हैं। उनके आगे-पीछे करते रहते हैं। हम यहाँ 20 साल से काम कर रहे हैं। नीतीश बाबू से भी बोले कि नौकरी स्थायी करवा दीजिए। उन्होंने अधिकारियों से कहा भी लेकिन कुछ नहीं हुआ।"
नूर आलम भी विधानसभा की कैंटीन में काम करते हैं। उन्हें भी कोई स्थायी वेतन नहीं मिलता है। नूर आलम और कृष्णा प्रसाद कहते हैं, "नीतीश बाबू इधर रहें या उधर जाएं, लेकिन हम तो यही चाहते हैं कि इतने सालों की मेहनत पर विचार करें नहीं तो हमलोग का जीवन इसी में खप जाएगा।"
आम लोगों में अविश्वास
एक तरफ़ नूर आलम, शिवचंद्र चौधरी और कृष्णा प्रसाद बढ़ती महंगाई से परेशान हैं तो दूसरी तरफ़, बिहार विधानसभा की कैंटीन का मेन्यू देखें तो विधायकों को दस रुपये में मटन, 17 रुपये में स्पेशल थाली, तीन रुपये में पनीर पकौड़ा और तमाम तरह के व्यंजन कौड़ियों के भाव मिलते हैं।"
विधानसभा में आए एक विधायक से पूछा कि उन्हें महीने में तमाम भत्तों के साथ कितने रुपये मिल जाते हैं तो उन्होंने कहा कि ढाई लाख। उस विधायक ने कहा कि वे कृष्णा प्रसाद और नूर आलम की बात विधानसभा में भी नहीं उठा सकते क्योंकि विधानसभा अध्यक्ष इसकी अनुमति नहीं देंगे।
बिहार में एक बड़ी आबादी है, जो, 'कोई नृप होए हमें का हानि' वाले मोड में है। बिहार के जाने-माने समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा इंटरनल कॉलोनी की बात करते हैं। वह कहते हैं कि नई व्यवस्था में भारत में आंतरिक उपनिवेश बना और लोगों के शोषण का तरीक़ा वही है।
आरजेडी नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं कि इंटरनल कॉलोनी वाली बात बिल्कुल सही है। वह कहते हैं, "राजनीति के प्रति आम लोगों में अविश्वास तभी ख़त्म होगा जब नीति के स्तर पर व्यापक समीक्षा होगी और मॉडल बदलना होगा। जिस मॉडल से हम आगे बढ़ रहे हैं, उससे निराशा और उदासीनता को कोई रोक नहीं सकता है।"
'मुसलमानों से भेदभाव'
नीतीश कुमार के बीजेपी छोड़ आरजेडी के साथ सरकार बनाने पर बिहार के आम लोगों की प्रतिक्रिया जातियों और समुदायों के खाँचे में बँटी दिख रही है। मुसलमान नीतीश कुमार के आरजेडी के साथ जाने पर आश्वस्त और ख़ुश दिख रहे हैं।
पटना के सब्ज़ी बाग़ में मोहम्मद इज़हार आलम एक बेकरी की दुकान पर काम करते हैं। 70 साल के आलम को इस दुकान से हर दिन तीन सौ रुपए मिलते हैं। उनसे पूछा कि वह नीतीश कुमार के आरजेडी के साथ जाने को कैसे देखते हैं?
इज़हार आलम ने कहते हैं, "नीतीश कुमार को यह फ़ैसला बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था। बीजेपी के शासन में मुसलमानों से भेदभाव होता है और मुझे लगता है कि आरजेडी के साथ आने के बाद यह भेदभाव कम होगा। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के रूप में ठीक हैं।"
"नीतीश कुमार बीजेपी के साथ भी रहते हैं तो उसे कंट्रोल में रखते हैं। नीतीश कुमार ने बिहार में फसादात को रोका है। कांग्रेस के दौर में बहुत होता था। लालू जी ने तो रोका ही था लेकिन नीतीश ने भी बिल्कुल नहीं होने दिया। नीतीश कुमार ना होते तो यहाँ फसादात बढ़ जाता।"
'सबका साथ, सबका विकास' का नारा
इसी इलाक़े में 23 साल के तौसीफ़ सेवईं की दुकान चलाते हैं। तौसिफ़ ने ग्रैजुएशन किया है। उनसे पूछा कि नीतीश कुमार का आरजेडी के साथ फिर से जाना कैसा रहा?
तौसीफ़ कहते हैं, "देखिए 'सबका साथ, सबका विकास' का नारा बीजेपी का है लेकिन यह काम नीतीश कुमार करते हैं। आरजेडी के साथ गए तो मुसलमानों के लिए अच्छा है। बीजेपी के साथ भी रहते हैं तो अच्छा ही होता है। बीजेपी को उन्हें कंट्रोल करना पड़ता है लेकिन आरजेडी के साथ मुसलमानों के लेकर उन पर कोई दबाव नहीं होगा।"
सब्ज़ी बाग़ इलाक़े में ही बिलकिश जहाँ एक ठेले से सब्ज़ी ख़रीद रही हैं। उनसे पूछा कि नीतीश कुमार आरजेडी के साथ चले गए हैं, इसका क्या असर पड़ेगा?
बिलकिश कहती हैं, "नीतीश जहाँ भी रहेंगे आपना काम करेंगे। नीतीश बीजेपी के साथ रहते हैं तो बीजेपी को कंट्रोल करके रखते हैं और आरजेडी के साथ रहते हैं तो उसे भी संतुलित रखते हैं। इस इलाक़े में एक टाइम में बेटियों का निकलना आसान नहीं था लेकिन अब रात में भी दिक़्क़त नहीं होती है।"
सवर्णों के बीच नाराज़गी
ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के बिहार में अमौर विधानसभा क्षेत्र के विधायक अख़्तरुल ईमान से पूछा कि मुसलमानों के बीच नीतीश कुमार को लेकर सहानुभूति क्यों है? नीतीश आरजेडी के साथ रहें या बीजेपी के साथ मुसलमानों को क्यों लगता है कि वह अच्छा ही करेंगे?
इस सवाल के जवाब में अख़्तरुल ईमान कहते हैं, "नीतीश कुमार ने बिहार में बीजेपी को पाँव पसारने का मौक़ा दिया है लेकिन ये भी कुछ हद तक सही है कि वही कंट्रोल भी करते हैं। आरजेडी के साथ आने के बाद मुसलमान आश्वस्त होते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि आरजेडी मुसलमानों को लेकर नीतीश पर कोई दबाव नहीं डालेगी। हालाँकि मेरा मानना है कि आरजेडी और नीतीश दोनों ने बिहार में मुसलमानों को पूरा हक़ नहीं दिया है। दोनों का एजेंडा यही रहा कि मुसलमानों के बीच बीजेपी के डर का दोहन किया जाए।"
नीतीश कुमार के एक बार फिर से बीजेपी का साथ छोड़ने पर हमने जिन ओबीसी, दलित और मुसलमानों से बात की सब इससे ख़ुश दिखे और कहा कि यह अच्छा हुआ है। लेकिव सवर्णों के बीच एक किस्म की नाराज़गी दिखी।
आनंद प्रकाश दुबे पटना में हड्डियों के डॉक्टर हैं। उनका कहना है कि नीतीश कुमार ने अपनी विश्वसनीयता को कमज़ोर किया है। डॉ दुबे कहते हैं, "अगर नीतीश को अलग ही होना था तो 2020 के विधानसभा चुनाव से पहले ही अलग हो जाते। हमने तो वोट आरजेडी के साथ होने के लिए नहीं किया था।"
90 के दशक वाला जनसमर्थन
जिन सवर्णों से भी बात की, सबने कहा कि नीतीश कुमार ने धोखा दिया है और उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था।
जेडीयू और आरजेडी के नेता रहे प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि नीतीश कुमार के फिर से आरजेडी के साथ जाने पर भले लोग सोच रहे हैं कि ओबीसी, दलित और मुसलमान गोलबंद हो जाएंगे लेकिन ऐसा नहीं है कि बीजेपी एकदम से कमज़ोर हो जाएगी।
प्रेम कुमार मणि कहते हैं, "मुससमानों का ख़ुश होना स्वाभाविक है। ओबीसी में भी ग़ैर-यादव और ग़ैर-कुर्मी ओबीसी हैं। क्या उनके बारे में भी गारंटी के साथ कहा जा सकता है कि इस गठबंधन से ख़ुश हैं। मुझे नहीं लगता है।"
"ये बीजेपी बदली है। इसने अपना मास बेस अति पिछड़ों में बढ़ाया है। नीतीश कुमार और लालू यादव के पास अब 90 के दशक वाला जनसमर्थन नहीं है। इसलिए जो सोच रहे हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव में बिहार से बीजेपी को बेदख़ल कर देंगे, वे जल्दबाज़ी में हैं।''
जेडीयू नेताओं को लग रहा है कि नीतीश कुमार ने आरजेडी के साथ जाकर बड़े वोट बैंक को अपनी तरफ़ कर लिया है लेकिन प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि ऐसा यूपी में भी अखिलेश यादव दावा कर रहे थे लेकिन समाजवादी पार्टी और जयंत चौधरी मिलकर भी पश्चिम उत्तर प्रदेश से बीजेपी को बेदखल नहीं कर पाए।