दिलनवाज़ पाशा (बीबीसी संवाददाता)
कर्नाटक के उडुपी के एक डिग्री कॉलेज से हिजाब को लेकर शुरू हुआ विवाद अब कर्नाटक हाई कोर्ट पहुंच गया है। एकल बेंच ने मामले को हाई कोर्ट की बड़ी बेंच को स्थानांतरित कर दिया है। अब कर्नाटक के चीफ़ जस्टिस रितु राज अवस्थी, जस्टिस कृष्णा एस दीक्षित और जस्टिस जयबुनिसा मोहिउद्दीन खाजी इस याचिका की सुनवाई करेंगे। बेंच गुरुवार को ढाई बजे सुनवाई शुरू करेगी।
क्या है मामला?
कर्नाटक के उडुपी के सरकारी कॉलेज की छात्राओं को हिजाब लगाकर क्लास में जाने से रोका गया तो उन्होंने इसका विरोध शुरू किया। जनवरी 2022 में शुरू हुए उनके विरोध को समर्थन मिलता गया। स्थानीय प्रशासन, कॉलेज प्रशासन और छात्राओं के परिजनों ने बातचीत के ज़रिए समाधान निकालने की कोशिश की, लेकिन समाधान नहीं निकला। छात्राएं हिजाब पहनने के अधिकार को लेकर हाई कोर्ट पहुंच गई हैं, जहां अब फुल बेंच इसकी सुनवाई कर रही है।
इसी बीच कुछ हिन्दूवादी समूहों ने हिन्दू छात्रों के भगवा शॉल और गमछा पहनकर आने पर ज़ोर दिया। कर्नाटक में छात्र दो समूहों में बंट गए हैं। एक हिजाब का समर्थन कर रहे हैं और दूसरे विरोध। मामले पर राजनीति भी हुई है और देश के कई दूसरे हिस्सों से भी हिजाब को लेकर विवाद की रिपोर्टें आई हैं।
क्या कहता है संविधान?
संविधान विशेषज्ञ और हैदराबाद के नलसार (एनएएलएसएआर) क़ानून विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर फ़ैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं कि हिजाब को लेकर विवाद धर्म से अधिक व्यक्तिगत अधिकार का मुद्दा है।
फ़ैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं, 'संविधान नागरिकों को कुछ व्यक्तिगत अधिकार देता है। इन व्यक्तिगत अधिकारों में निजता का अधिकार है, धर्म का अधिकार है, जीवन का अधिकार है। बराबरी का अधिकार है। बराबरी के अधिकार की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इसमें मनमानी के ख़िलाफ़ अधिकार भी शामिल है। कोई भी मनमाना क़ानून संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत मिले समानता के अधिकार का उल्लंघन है।'
सवाल ये भी उठता है कि क्या शिक्षण संस्थान ड्रेस कोड या यूनीफ़ॉर्म निर्धारित कर सकते हैं। फ़ैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं, 'स्कूल को ये अधिकार है कि वो अपना कोई ड्रेस कोड निर्धारित करे। लेकिन इसे निर्धारित करने में वो किसी मौलिक अधिकार का हनन नहीं कर सकता है।'
तो क्या कोई संस्थान यूनीफ़ॉर्म को लेकर नियम बनाकर छात्रों को उनका पालन करने के लिए बाध्य कर सकता है? फ़ैज़ान मुस्तफ़ा बताते हैं, 'एजुकेशन एक्ट के तहत संस्थान को यूनीफ़ॉर्म निर्धारित करने का अधिकार नहीं है। अगर कोई संस्थान नियम बनाता भी है तो वो नियम क़ानून के दायरे के बाहर नहीं हो सकते हैं।'
यहां सवाल संविधान के तहत मिले धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का भी है। इसकी सीमा बताते हुए फ़ैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं, 'धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार की सीमा ये है कि जनहित में, नैतिकता में और स्वास्थ्य के आधार पर उसे सीमित किया जा सकता है।'
अब सवाल ये उठता है कि क्या हिजाब पहनने से ऐसी किसी सीमा का उल्लंघन होता है? इस पर फ़ैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं, 'ये ज़ाहिर है कि किसी का हिजाब पहनना कोई अनैतिक काम नहीं है, ना ही ये किसी जनहित के ख़िलाफ़ है और ना ही ये किसी और मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।' इस विवाद में अदालत के सामने ये अहम मुद्दा होगा कि एक तरफ़ संस्थान की स्वतंत्रता है और दूसरी तरफ़ निजी स्वतंत्रता है।
फ़ैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं, 'ऐसे में अदालत को सामंजस्यपूर्ण निर्णय लेना होगा जिसमें वो कह सकती है कि हम पूरा हिजाब जिसमें आप अपना चेहरा भी ढंक लें, उसकी अनुमति नहीं देंगे, लेकिन शायद सर ढंकना या स्कार्फ़ पहनने की अनुमति दे दें।'
पहले भी होता रहा है विवाद
हिजाब को लेकर इससे पहले भी विवाद अदालत पहुंचते रहे हैं। केरल में क्राइस्ट नगर सीनियस सेकेंड्री स्कूल की छात्राएं हिजाब पहनने पर स्कूल की रोक के ख़िलाफ़ अदालत गई थीं। 2018 में दिए अपने फ़ैसले में केरल हाई कोर्ट के जज जस्टिस ए मोहम्मद मुश्ताक़ ने निर्धारित किया था कि छात्राओं का अपनी मर्ज़ी के अनुसार ड्रेस पहनना ऐसा ही एक मूल अधिकार है जैसे कि किसी स्कूल का ये तय करना कि सभी छात्र उसकी तय की हुई यूनीफ़ॉर्म पहनें।
'डेक्कन हेरॉल्ड' की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ केरल हाई कोर्ट के इस फ़ैसले की चर्चा कर्नाटक हिजाब विवाद के दौरान ख़ूब हो रही है। तब फ़ातिमा तसनीम और हफ़ज़ा परवीन ने अदालत से कहा था कि उन्हें पूरी बांह की शर्ट और नक़ाब पहनकर स्कूल नहीं आने दिया जा रहा है। स्कूल ने इन आरोपों को यह कहते हुए ख़ारिज किया था कि यह स्कूल के ड्रेस कोड के ख़िलाफ़ है।
जस्टिस मुश्ताक़ ने निर्णय दिया था, 'इस मामले में प्रभावी हित संस्थान के प्रबंधन का है। यदि प्रबंधन को संस्थान के संचालन और प्रबंधन में पूरी छूट नहीं दी गई तो इससे उनके मौलिक अधिकार का हनन होगा। संवैधानिक अधिकार का उद्देश्य दूसरों के अधिकारों का हनन करके एक अधिकार की रक्षा करना नहीं है।
संविधान, वास्तव में, बिना किसी संघर्ष या प्राथमिकता के अपनी योजना के भीतर उन बहुल हितों को आत्मसात करने का इरादा रखता है। हालांकि जब हितों की प्राथमिकता हो तो व्यक्तिगत हितों के ऊपर व्यापक हितों का ध्यान रखा जाना चाहिए। यही स्वाधीनता का सार है।'
जस्टिस मुश्ताक़ ने कहा था, 'प्रतिस्पर्धी अधिकारों में संघर्ष का समाधान किसी व्यक्तिगत अधिकार का हनन करके नहीं बल्कि व्यापक अधिकार को बरक़रार रख कर, संस्थान और छात्रों के बीच इस संबंध को बनाए रखकर किया जा सकता है।'
हाई कोर्ट के इस निर्णय को सौ से अधिक शिक्षण संस्थान चलाने वाली संस्था मुस्लिम एजुकेशन सोसायटी (एमईएस) ने तुरंत लागू किया था। सोसायटी ने अपने प्रॉस्पेक्टस में नक़ाब पर प्रतिबंध लगा दिया था। संविधान विशेषज्ञ फ़ैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं कि केरल हाई कोर्ट का निर्णय कर्नाटक हाई कोर्ट पर बाध्य नहीं है।
हिजाब पर बढ़ता ही जा रहा है विवाद
हिजाब को लेकर विवाद कर्नाटक के उडुपी से देशभर में फैल गया है। दिल्ली के शाहीन बाग़ इलाक़े में बुधवार को हिजाब के समर्थन में प्रदर्शन हुआ है। फ़ैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं, 'यदि हिजाब का मुद्दा बड़ा होता है तो ये बहुत अफ़सोस की बात होगी क्योंकि बच्चों का काम पढ़ना है, राजनीति करना नहीं है। हिजाब का समर्थन करने वाले और विरोध करने वाले, दोनों समूहों का काम पढ़ाई करना है।'
कर्नाटक के मंड्या का भी एक वीडियो वायरल हुआ है जिसमें हिजाब पहनने पर एक मुसलमान छात्रा के ख़िलाफ़ हिन्दूवादी छात्र भगवा गमछा पहनकर नारेबाज़ी कर रहे हैं। छात्रा भी अल्लाहु अकबर कहकर उन्हें जवाब दे रही है। हिजाब को लेकर ये सवाल भी उठा है कि हिजाब के ज़रिए मुसलिम छात्राएं अपनी पहचान को मज़बूत करने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन फ़ैज़ान मुस्तफ़ा मानते हैं कि ये सवाल पहचान से ज़्यादा पसंद का है।
वो कहते हैं, 'ये धार्मिक स्वतंत्रता से अधिक निजी स्वतंत्रता का विषय है। पोशाक व्यक्ति की अभिव्यक्ति का हिस्सा है। ये एक तरह की अभिव्यक्ति ही है।' 'शाहीन बाग़ हो या फिर हिजाब का मुद्दा, मुसलमान महिलाओं ने अपने संवैधानिक अधिकारों को मज़बूती से प्रदर्शित करने की कोशिश की है।'
हिजाब पर विवाद का मामला फ़िलहाल अदालत में है और जो भी निर्णय होगा उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। हालांकि फ़ैज़ान मुस्तफ़ा का मानना है कि दोनों पक्षों को लचीलापन दिखाना चाहिए। वो कहते हैं, 'मुझे लगता है कि दोनों ही समूहों को थोड़ी लचक दिखानी होगा। एक आधुनिक प्रगतिशील समाज में रूढ़िवादी रवैया अख़्तियार करना अच्छी बात नहीं है।'