- रेहान फ़ज़ल
आमतौर से ख़ुफ़िया एजेंसी के प्रमुख अपनी आत्मकथा लिखने से कतराते हैं और अगर लिखते भी हैं तो अपने साथियों का खुलेआम ज़िक्र करने से परहेज़ कर जाते हैं। रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के प्रमुख रहे अमरजीत सिंह दुलत की हाल में प्रकाशित आत्मकथा 'अ लाइफ़ इन द शैडोज़ अ मेमॉएर' इस मामले में अपवाद है। इस किताब में उन्होंने अपने बॉस रहे एमके नारायणनन और अपने जूनियर रहे अजीत डोभाल की कार्यशैली पर अपनी बेबाक राय प्रकट की है।
दुलत लिखते हैं, मैंने इंटेलिजेंस ब्यूरो के दिल्ली मुख्यालय में डेस्क पर एक विश्लेषक के रूप में चार साल बिताए हैं। तब मुझे नॉर्थ ब्लॉक में एमके नारायणन के साथ कमरा शेयर करने का सौभाग्य मिला था। उस ज़माने में मेरे सबसे बड़े बॉस एमके दवे हुआ करते थे। उनके नीचे थे आरके खंडेलवाल जिन्हें नारायणन 'कैंडी' कहकर पुकारते थे।
दवे को सनक थी कि वो देखें कि फ़ाइल पर आप किस तरह से नोटिंग करते हैं। अक्सर वो अपने साथियों की फ़ाइल पर नोटिंग पर झल्लाकर कहते थे इससे अच्छा तो एक सब-इंसपेक्टर लिख सकता है। कई बार तो नारायणन भी उनकी इस सनक से खीज जाते थे। दूसरी तरफ़ केएन प्रसाद होते थे जो बाहर से तो बहुत कठोर दिखते थे लेकिन अंदर से बहुत शालीन थे और युवाओं को वो सब कुछ सिखाने के लिए तत्पर रहते थे जो वो जानते थे।
साम्यवाद के सबसे बड़े विशेषज्ञ थे नारायणन
एएस दुलत मानते हैं कि उन्होंने ख़ुफ़िया जानकारी के विश्लेषण के गुर नारायणन को काम करते देख सीखे थे। उनसे उन्होंने ये भी सीखा कि फ़ील्ड से आने वाली हर उत्साही ख़ुफ़िया अधिकारी की रिपोर्ट को किस तरह टोन डाउन किया जाता है। नारायणन ने उन्हें ये भी सिखाया कि अगर संभव हो तो आप जो कुछ भी कहना चाहते हैं एक पेज के अंदर कह डालिए।
दुलत लिखते हैं, जब नारायणन के पास किसी विषय की फ़ाइल आती थी तो वो उसे अपने पास कुछ समय के लिए रखते थे और उस पर गहन मंत्रणा करने के बाद अपना प्रेजेंटेशन देते थे। भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों में साम्यवाद के सबसे बड़े विशेषज्ञ नारायणन थे। उस समय उनसे मेरा संपर्क सीमित रहा करता था लेकिन मुझे हमेशा ये अहसास रहता था कि मैं एक महान व्यक्तित्व की उपस्थिति में काम कर रहा हूं। बाद में मुझे इस तरह का अहसास आरएन काव की उपस्थिति में हुआ था।
इंतज़ार के खेल के माहिर थे नारायणन
काव साहब नारायणन से इस मामले में अलग थे कि वो बहुत चुपचाप रहते थे और लोगों से कम खुलते थे। उनके बारे में कहानी मशहूर थी कि जब तक वो रॉ के प्रमुख के पद पर रहे उनकी तस्वीर न तो किसी पत्रिका में दिखाई दी और न ही किसी अख़बार में।
नारायणन जहां प्राप्त जानकारी का काफ़ी समय तक विश्लेषण करते थे, काव एक्शन में विश्वास करते थे। वो ऑपरेशन मैन थे, जिनको अपने सहज ज्ञान पर बहुत भरोसा था। दोनों के व्यक्तित्व में ख़ासा फ़र्क था लेकिन दोनों भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों के बेहतरीन शख़्स थे।
दुलत लिखते हैं, अगर नारायणन आप को पसंद करते थे तो उनको आपकी हर चीज़ पसंद आती थी, लेकिन अगर इसका उलटा होता था तो आपकी मुसीबतों का कोई अंत नहीं होता था। हालांकि वो उस समय असिस्टेंट डायरेक्टर के पद पर काम कर रहे थे, लेकिन वो तब तक विभाग में बहुत मशहूर हो चुके थे।
जानकारी की बहुतायत होने के बावजूद वो फ़ैसला लेने में जल्दबाज़ी नहीं करते थे। कई बार तो वो एक फ़ाइल को पढ़ने में घंटों, दिनों और कभी-कभी महीनों तक लगाते थे। यही वजह थी कि उनका विश्लेषण हमेशा उच्चकोटि का हुआ करता था। नारायण से ही मैंने सीखा था कि कोई निष्कर्ष निकालने से पहले उसके सभी पहलुओं पर विचार करना सबसे अच्छा होता है। इंटेलिजेंस हमेशा से ही इंतज़ार का खेल रहा है। अब तक जितने भी लोगों से मेरा पाला पड़ा है इस खेल को खेलने में नारायणन से पारंगत कोई नहीं था।
मलिक मानते थे नारायणन को एशिया का सबसे अच्छा इंटेलिजेंस अधिकारी
नारायणन की नज़र हमेशा तेज़ रहती थी। हालांकि वो दुलत से कहीं सीनियर थे लेकिन उन्हें बहुत पहले ये आभास हो गया था कि वो अपने बॉस आरके खंडेलवाल से बहुत ख़ुश नहीं हैं। लेकिन उनकी भी एक कमज़ोरी थी कि वो अपनी हीरो वरशिप कराना पसंद करते थे।
उनको अपनी ख्याति का अंदाज़ा था और वो हमेशा चाहते थे कि उनकी तारीफ़ों के पुल बांधे जाएं। इसकी कमी उन्हें कभी नहीं हुई। जवाहरलाल नेहरू के इंटेलिजेंस चीफ़ रहे बीएन मलिक, जिन्होंने एक किताब लिखी थी 'माई इयर्स विद नेहरू,' एमके को एशिया का सर्वश्रेष्ठ ख़ुफ़िया अधिकारी मानते थे।
एके दुलत लिखते हैं, मैंने नारायणन को कई बार शुक्रवार की साप्ताहिक बैठक को संबोधित करते हुए देखा है। जब वो बोलते थे तो उनके सम्मान में कमरे में पिन ड्रॉप शांति छा जाती थी। उनको हमेशा पता रहता था कि किस इलाके में क्या हो रहा है। वो ये बात भी पसंद करते थे कि हर जानकारी के लिए उन पर निर्भर रहा जाए और किसी भी विषय की जानकारी लेने के लिए सबसे पहले उन्हें बुलाया जाए।
इस मामले में वो पूर्व सीआईए प्रमुख एडगर हूवर की तरह थे। उनके बारे में मशहूर था कि उनके पास हर विषय और हर उस व्यक्ति के बारे में फ़ाइल थी जिनसे अपने जीवन में वो कभी मिले थे। दिल्ली में सत्ता के गलियारों में उनसे बेहतर चलना कोई नहीं जानता था।
राजीव गांधी से नारायणन की निकटता
गांधी परिवार का उनमें बहुत विश्वास था। यही वजह है कि ख़ुफ़िया दुनिया में वो हमेशा प्रासंगिक रहे। ख़ासतौर से राजीव गांधी ख़ुफ़िया जानकारी के लिए नारायणन पर बहुत निर्भर रहा करते थे। राजीव गांधी को खुफ़िया जानकारी लेने का बहुत शौक था। उनको इसका अंदाज़ा था कि ख़ुफ़िया जानकारी से विदेश नीति को किस तरह प्रभावित किया जा सकता है।
दुलत लिखते हैं, वो नारायणन से मिलना बहुत पसंद करते थे और उनका बहुत सम्मान भी करते थे। उनकी देर रात बैठक होती थी जिसमें नारायणन को कॉफ़ी और चॉकलेट सर्व की जाती थी। राजीव हमेशा ये जानने के लिए उत्सुक रहते थे कि दिल्ली में विदेशी दूतावासों की क्या गतिविधियां हैं। एक बार तो इंटेलिजेंस ब्यूरो की टोही टीम के साथ अरुण सिंह और अरुण नेहरू भी ये देखने के लिए गए थे कि ज़मीन पर क्या हो रहा है।
नारायणन ने मुझे एक बार बताया था कि एक ख़ास जानकारी देने पर वो उनके पीछे पड़ गए थे कि वो इस जानकारी का स्रोत बताएं। लेकिन नारायणन का जवाब था- प्रधानमंत्री, मेरा काम है आपको जानकारी देना लेकिन आपको ये पूछने का हक नहीं है कि ये जानकारी मुझे कहां से मिली है। राजेश पायलट को जब कश्मीर का इंचार्ज बनाया गया था तो वो कश्मीर की ज़मीनी हक़ीक़त जानने के लिए नारायणन के पास ही जाया करते थे।
अजीत डोभाल ने सबसे पहले संपर्क किया था नवाज़ शरीफ़ से
नारायणन के ज़माने में ही अजीत डोभाल एक उभरते हुए सितारे थे। अजीत पर पहली बार सबकी नज़र तब गई जब उन्हें पूर्वोत्तर में मिज़ोरम में काम करने भेजा गया। सत्तर के दशक में आइज़ोल के ज़िला मजिस्ट्रेट रहे और बाद में भारत के गृह सचिव बने वीके दुग्गल बताते हैं कि उन दिनों डोभाल मिज़ोरम में फ़ील्डमैन हुआ करते थे। भूमिगत हो गए लोगों से उनके अच्छे संबंध हुआ करते थे।
सन् 2006 में डोभाल ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को एक इंटरव्यू दिया था जिसमें उन्होंने कहा था, एक बार मैंने लालडेंगा के मिज़ो नेशनल फ़्रंट के विद्रोहियों को अपने घर खाने पर बुलाया। उनके पास भारी हथियार थे। मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि वो सुरक्षित रहेंगे। मेरी पत्नी ने उनके लिए सूअर का मांस बनाया। हालांकि उससे पहले उसने कभी सूअर का मांस नहीं बनाया था। ये विवरण बताता है कि ज़रूरत पड़ने पर डोभाल लीक से हटकर काम कर सकते थे।
सन् 1982 से 1985 तक कराची में भारत के काउंसल जनरल रहे जी. पार्थसार्थी बताते हैं कि डोभाल ने सबसे पहले नवाज़ शरीफ़ से संपर्क स्थापित किया था। तब उन्होंने पाकिस्तान की राजनीति में उभरना शुरू किया ही था। जब 1982 में भारतीय क्रिकेट टीम पाकिस्तान दौरे पर लाहौर पहुंची, तो डोभाल के कहने पर ही नवाज़ शरीफ़ ने अपने घर के लॉन में भारतीय टीम को दावत दी थी।
ऑपरेशन ब्लैक थंडर में डोभाल की भूमिका
सन् 1988 में हुए ऑपरेशन ब्लैक थंडर-टू में डोभाल की भूमिका ने उनकी ख्याति में चार चांद लगा दिए थे। उनके जीवनीकारों का कहना है कि जब चरमपंथी स्वर्ण मंदिर के अंदर घुसे हुए थे तो डोभाल भी अंडर कवर के रूप में मंदिर के अंदर घुसे हुए थे।
न्यू इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अजीत डोभाल के जीवनवृत्त में यतीश यादव ने लिखा था, सन् 1988 में स्वर्ण मंदिर के आसपास रहने वाले अमृतसर के निवासियों और खालिस्तानी लड़ाकों ने एक व्यक्ति को रिक्शा चलाते हुए देखा। उसने उन लड़ाकों को विश्वास दिला दिया कि वो आईएसआई का सदस्य है और उसे ख़ासतौर से उनकी मदद करने के लिए भेजा गया है।
ब्लैक थंडर ऑपरेशन शुरू होने से दो दिन पहले वो रिक्शा चलाने वाला स्वर्ण मंदिर में घुसा और वहां से महत्वपूर्ण जानकारी लेकर बाहर लौटा। उसने पता लगाया कि मंदिर के अंदर कितने चरमपंथी थे। ये रिक्शेवाला और कोई नहीं अजीत डोभाल थे। जहां तक कश्मीर की बात है डोभाल ने पूर्व मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद के साथ संपर्क स्थापित किए।
दुलत लिखते हैं, कश्मीर में मैंने कभी डोभाल के काम में हस्तक्षेप नहीं किया क्योंकि मुझे पता था कि वो एक ऐसे शख़्स हैं जो मुझे परिणाम देंगे। डोभाल मुझसे बेहतर जासूस थे क्योंकि वो चीज़ों को निर्लिप्त होकर देखते थे इसलिए उनके लिए सोच समझकर फ़ैसले लेना आसान था।
डोभाल को अपहरणकर्ताओं से बातचीत करने के लिए कांधार भेजा गया
दुलत आगे लिखते हैं, जब 1999 में भारतीय विमान का अपहरण कर कांधार ले जाया गया तो ब्रजेश मिश्रा ने मुझसे और श्यामल दत्ता से कहा कि वहां बातचीत करने के लिए अपने लोग भेज दो। मेरी नज़र में इस काम के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति थे सीडी सहाय और आनंद आर्नी, क्योंकि वो दोनों ऑपरेशनल अफ़सर थे और अफ़गानिस्तान को अच्छी तरह से समझते थे। लेकिन श्यामल दत्ता ने कहा कि इंटेलिजेंस ब्यूरो में इस काम को अजीत डोभाल और नहचल संधू से बेहतर कोई नहीं कर सकता।
आखिर में इन दोनों को ही कांधार भेजा गया। उनके साथ उस समय विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव के तौर पर काम कर रहे विवेक काटजू भी गए। मुझे इस बात पर आश्चर्य हुआ कि कांधार से सीडी सहाय की बजाए डोभाल वहां का सारा नज़ारा मुझे बता रहे थे। उन्होंने मुझसे कहा, जल्दी फ़ैसला करवाइए। यहां बहुत प्रेशर है। पता नहीं क्या हो सकता है इधर।
लालकृष्ण आडवाणी ने कभी ऊपरी तौर पर नहीं कहा, लेकिन वो चरमपंथियों से बातचीत करने के पक्ष में नहीं थे।आडवाणी का व्यक्ति होने के नाते संभवत: डोभाल की भी यही राय थी। यात्रियों की जगह चरमपंथियों की रिहाई का एक और शख़्स विरोध कर रहे थे और वो थे जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला।
फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने किया था चरमपंथियों को छोड़ने का विरोध
अपनी एक और किताब 'कश्मीर द वाजपेई इयर्स' में एएस दुलत ने लिखा है कि जब फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने चरमपंथियों को रिहा करने से इनकार कर दिया तो उन्हें मनाने के लिए दुलत को श्रीनगर भेजा गया।
दुलत लिखते हैं, जब फ़ारूक़ ने मुझे देखा तो वो बोले तुम फिर आ गए? रुबैया सईद के अपहरण के समय भी तुम आए थे। मैंने कहा, सर, उस समय मैं आपके साथ था, लेकिन इस बार मैं भारत सरकार के साथ हूं। उस समय मैं आपकी तरफ़ से सरकार से बात कर रहा था। इस बार मैं सरकार की तरफ़ से आपके पास आया हूं।
फ़ारूक़ ने कहा कि दो पाकिस्तानियों मसूद अज़हर और उमर शेख़ के साथ आप जो करना चाहे करें, लेकिन मैं उस कश्मीरी मुश्ताक अहमद ज़रगर को नहीं छोड़ूंगा क्योंकि उसके हाथ पर कश्मीरियों के ख़ून के निशान हैं।
इसके बाद फ़ारूक़ शेख़ दुलत के साथ कश्मीर के राज्यपाल गैरी सक्सेना के पास गए। उन्होंने उनसे कहा कि मैंने रॉ के प्रमुख को बता दिया है कि मैं इन चरमपंथियों को छोड़ने के फ़ैसला का हिस्सा नहीं बन सकता। मैं इस्तीफ़ा देना पसंद करूंगा और यही करने मैं यहां आया हूं।
गैरी सक्सेना ने ब्लैक लेबेल स्कॉच की एक बोतल निकाली और फ़ारूक़ से कहा, डॉक्टर साहब आप लड़ाके हैं। आप इतनी आसानी से हार नहीं मान सकते। फ़ारूक़ ने कहा, ये लोग नहीं जानते कि ये चरमपंथियों को छोड़कर कितनी बड़ी ग़लती कर रहे हैं।
गैरी ने कहा, आप सौ फ़ीसदी सही हैं लेकिन इस समय कोई विकल्प नहीं है। इस बारे में दिल्ली में ज़रूर बात हुई होगी। अगर उनका मानना है कि इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं है तो हमें उनका साथ देना चाहिए। अगले दिन मसूद अज़हर और ज़रगर को रॉ के गल्फ़स्ट्रीम विमान में बैठा कर मैं ही श्रीनगर से दिल्ली ले गया था।
डोभाल अपने करियर के पीक पर पहुंचे
कांधार हाइजैक में चरमपंथियों को छोड़ने की वजह थी कि भारत सरकार द्वारा फैसला लेने में बहुत देर कर देना।दुलत लिखते हैं कि कांधार में हो रही मंत्रणा की पूरी जानकारी डोभाल उन्हें सैटेलाइट फ़ोन से देते रहे। उन्होंने कहा कि यहांरहना बहुत मुश्किल हो रहा है, क्योंकि वो अब धमकी देने लगे हैं कि अगर आप समझौता नहीं करना चाहते तो यहां से चले जाइए। मुझे शुरू से ही पता था कि डोभाल एक दिन अपने करियर के पीक पर पहुंचेंगे। इस ज़िम्मेदारी के लिए डोभाल से उचित व्यक्ति कोई था ही नहीं।
जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के लिए पहले हरदीप पुरी का नाम लिया गया था। लेकिन अरुण जेटली के सिवा बीजेपी में उनका कोई समर्थक नहीं था। आख़िर में नरेंद्र मोदी ने अजीत डोभाल के नाम पर अपनी मोहर लगाई।
जब सन् 2004 में मैं प्रधानमंत्री कार्यालय छोड़ रहा था तो नारायणन ने मुझसे पूछा था कि अब कश्मीर कौन देखेगा? तब मैंने बिना किसी संकोच के जवाब दिया था डोभाल। तभी नारायणन ने मुझसे कह दिया था, नहीं, डोभाल कश्मीर नहीं देखेंगे क्योंकि वो इंटेलिजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर बनने जा रहे हैं। दिलचस्प बात है कि बीजेपी के विरोधी कांग्रेस के कार्यकाल में अजीत डोभाल को इंटेलिजेंस ब्यूरो का प्रमुख बनाया गया था।
जेएन दीक्षित के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बने एमके नारायणन खुलेआम कहा करते थे, जब किसी मामले में मुझे नर्म रुख़ अपनाना होता है तो मैं अमरजीत सिंह दुलत को इस्तेमाल करता हूं, लेकिन जब मुझे कभी डंडे से काम लेना होता है तो मैं डोभाल को बुलवाता हूं।