अनंत झणाणें, बीबीसी संवाददाता, लखनऊ
पीलीभीत से भारतीय जनता पार्टी ने मौजूदा सांसद वरुण गांधी को टिकट नहीं दिया। उनकी जगह पार्टी ने कांग्रेस से बीजेपी में आए और योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री जितिन प्रसाद को उम्मीदवार बनाया है।
इसके बाद इस बात को लेकर कयास लगाए जा रहे थे कि वरुण गांधी वहाँ से निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे लेकिन 27 मार्च को जब नामांकन भरने का समय समाप्त हो गया तो इन अटकलों पर भी विराम लग गया। लेकिन राजनीति में एक कयास ख़त्म होता है तो दूसरा शुरू हो जाता है।
अब चर्चा यह हो रही है कि कहीं वरुण गांधी दूसरी सीट से तो नहीं लड़ेंगे। समय के साथ इन कयासों से भी पर्दा हटेगा पर वरुण गांधी के अगले क़दम को लेकर सस्पेंस बना हुआ है।
16 फ़रवरी, 2004 को क़रीब 24 साल की उम्र में वरुण ने अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता लेते हुए कहा था, "भले ही उनका परिवार (नेहरू-गांधी परिवार) कांग्रेस पार्टी का हिस्सा रहा है, लेकिन वो यह मानते हैं कि उनका परिवार किसी पार्टी के प्रति नहीं बल्कि आत्म-बलिदान की परंपरा, राष्ट्रीय गौरव और आत्मा की स्वतंत्रता के सिद्धांतों के प्रति सच्चा था।"
उन्होंने बीजेपी की सदस्यता लेते हुए पार्टी को मज़बूत करने की बात कही थी और सदस्य बनने के अपने फ़ैसले को राष्ट्र हित में सर्वोत्तम फ़ैसला बताया था। लेकिन वरुण अब शायद ही इस फ़ैसले को सर्वोत्तम मानते होंगे। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बीजेपी में वरुण गांधी पिछले 10 सालों में बीजेपी में हाशिए पर ही रहे हैं।
बीजेपी में रहते बग़ावती तेवर
सबसे पहले वरुण गांधी का टिकट कटने के संभावित कारणों को समझने की कोशिश करते हैं। दरअसल वरुण गांधी अक्सर कई मुद्दों पर सोशल मीडिया पर अपने व्यक्तिगत विचार खुल कर रखते हैं।
जैसे अफ्रीका से लाए गए चीतों के मरने पर उन्होंने कहा कि विदेशी जानवरों की यह लापरवाह खोज तुरंत समाप्त होनी चाहिए। चीतों की मौत को वरुण ने न सिर्फ़ क्रूरता बल्कि लापरवाही का भयावह प्रदर्शन भी कहा था।
दरअसल, भारत में 1952 में चीते को विलुप्त घोषित कर दिया गया था। इन चीतों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में लाकर छोड़ा गया था। वरुण के इस बयान को सरकार की आलोचना के तौर पर देखा गया।
क्या बयानों के कारण गिरी गाज़
उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार उमर रशीद कहते हैं, "वरुण गांधी के बयानों से बीजेपी के ब्रैंड मोदी और ब्रैंड योगी पर सवाल खड़े होते थे।"
पीलीभीत से बीजेपी प्रत्याशी जितिन प्रसाद के नामांकन के बाद हुई रैली में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह ने वरुण गांधी की ग़ैर-मौजूदगी के बारे में कहा, "वरुण गांधी बीजेपी के नेता हैं और हमारे साथ हैं। उनका उपयोग हर जगह है। उनका उपयोग पार्टी ठीक तरह से करेगी। मुझे विश्वास है कि वो हमारे साथ रहेंगे।"
उत्तर प्रदेश में बीजेपी पर लंबे समय से नज़र रख रहे पत्रकार रतिभान त्रिपाठी कहते हैं, "वरुण गांधी जिस परिवार से आते हैं, उसकी अपनी विरासत है। लेकिन बीजेपी का अपना अनुशासन है। वरुण गांधी अपने आप को पार्टी से ऊपर समझ रहे थे। पार्टी और सरकार को लगातार ट्रोल कर रहे थे। यह किसी पार्टी में रहते उचित नहीं होता है। उन्हें अपनी बात पार्टी के फोरम पर रखनी चाहिए ना कि सार्वजनिक फोरम पर।"
पत्रकार उमर रशीद कहते हैं, "पार्टी लाइन से अलग हट कर अपने विचार सार्वजनिक करने के बावजूद, मुझे लगता है कि कहीं न कहीं वरुण गांधी को लगता था कि उन्हें टिकट मिल ही जाएगा। अगर उन्हें टिकट कटने का इल्म होता तो अब तक वो अपनी राजीतिक दिशा को बदलने की कोशिश करते और हमें कहीं न कहीं वो कोशिश होती नज़र आती। पिछले एक महीने से वरुण ने बिल्कुल चुप्पी साधी हुई है। उन्होंने सोशल मीडिया पर एक महीने से एक पोस्ट भी नहीं डाली।"
क्या पार्टी में होगा कमबैक?
लेकिन यूपी बीजेपी में बड़े-बड़े से नेता पार्टी लाइन से अलग जाने पर अतीत में किनारे किए जा चुके हैं। इस फेहरिस्त में कल्याण सिंह से लेकर उमा भारती तक हैं। यहाँ तक कि एक समय में योगी आदित्यनाथ को भी पार्टी में तवज्जो नहीं मिली थी तो अलग होना पड़ा था।
पत्रकार रतिभान त्रिपाठी कहते हैं, "राजनाथ सिंह सांसद हैं। देश के रक्षा मंत्री हैं और उनके बेटे पंकज सिंह विधायक हैं। पंकज सिंह ने कभी भी पार्टी लाइन के ख़िलाफ़ एक शब्द नहीं बोला। लखनऊ से पूर्व सांसद लालजी टंडन राज्यपाल थे और उनके बेटे आशुतोष टंडन योगी सरकार में मंत्री थे। आशुतोष टंडन भी हर हाल में पार्टी लाइन के साथ खड़े रहे। मेनका गांधी भी पार्टी के ख़िलाफ़ कभी नहीं गईं लेकिन वरुण इस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर रहे थे।''
बीजेपी ने मेनका गांधी का टिकट नहीं काटा लेकिन वरुण को नहीं दिया। इससे ये भी संदेश गया कि वरुण को पार्टी के ख़िलाफ़ बोलने के कारण टिकट नहीं मिला।
मेनका को टिकट मिलने के कारण?
वरिष्ठ पत्रकार उमर रशीद कहते हैं, "हमें वरुण गांधी और मेनका गांधी का राजनीतिक आकलन करने के लिए दोनों को अलग-अलग देखने की ज़रूरत है। मेनका गांधी काफ़ी लंबे समय से राजनीति में हैं। वह कैबिनेट मंत्री भी रह चुकी हैं। उन्होंने काफ़ी चुनौतियों का सामना भी किया है। 32 साल तक राजनीति करके पीलीभीत को उन्होंने अपना गढ़ बनाया और उसका लिहाज बीजेपी भी करती है।"
उमर रशीद कहते हैं, "वरुण गांधी के पास गांधी परिवार का सदस्य होने के अलावा कोई आकर्षण नहीं है। और इस देश की राजनीति में गांधी परिवार का मतलब है सिर्फ़ सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी। पीलीभीत उत्तर प्रदेश में अमेठी और रायबरेली की तर्ज़ पर गांधी परिवार के गढ़ के रूप में कभी देखा नहीं गया है।"
घटता राजनीतिक प्रभाव?
उत्तर प्रदेश की राजनीति में 2012 और 2017 के बीच युवा नेताओं और नेतृत्व का दौर आया। अखिलेश यादव सूबे के मुख्यमंत्री बने, राहुल गांधी अमेठी से सांसद थे और देश की राजनीति के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी सीधा दख़ल देते थे।
वरुण गांधी के नाम से कई फैन क्लब सोशल मीडिया पर सक्रिय थे। लेकिन इसके बावजूद वरुण गांधी का प्रभाव पीलीभीत और सुल्तानपुर से तक सीमित क्यों रह गया?
इसकी झलक हमें 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से जुड़े एक इंटरव्यू में मिलती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि बीजेपी के उत्तर प्रदेश में 55 मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। इसी इंटरव्यू में उन्होंने यह भी कहा था कि वो अपने मन की बात कहते हैं।
वरुण गांधी के राजनीतिक करियर पर शुरू से नज़र बनाए हुए बरेली से वरिष्ठ पत्रकार पवन सक्सेना मानते हैं कि पीलीभीत के लोगों का वरुण गांधी और मेनका गांधी से लगाव ज़रूर है। उसके समझते हुए वो कहते है कि, "एक समय यह जब आडवाणी पीलीभीत में एक सभा करने आए और मेनका गांधी ने मंच से ही अपना टिकट घोषित कर दिया।" यह उनका राजनीतिक दबदबा दर्शाता है।
बीच में यह दौर भी आया जब वरुण गांधी के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री चेहरा बनने की चर्चा हुई। पत्रकार पवन सक्सेना कहते हैं, "वरुण के समर्थकों ने जगह-जगह इस बात की चर्चा चलाई, रोड शो और जन सभाएं हुईं। लेकिन यह सब 10 साल पहले हो कर ख़त्म हो चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा में ऐसा संभव नहीं था।"
अब वरुण के पास क्या विकल्प हैं?
वरुण गांधी को लेकर चर्चा गर्म थी तभी लोकसभा में कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी का बयान आया। उन्होंने तो एक तरह से वरुण को कांग्रेस में शामिल होने का निमंत्रण दे दिया।
अधीर ने कहा था, "गांधी परिवार से होने के कारण बीजेपी ने वरुण गांधी को टिकट नहीं दिया। वरुण गांधी को कांग्रेस में शामिल होना चाहिए। वह एक साफ़ छवि के नेता हैं। हम चाहते हैं कि वरुण गांधी अब कांग्रेस में शामिल हों। अगर पार्टी जॉइन करते हैं, तो हमें ख़ुशी होगी।"
तो क्या अब वरुण कांग्रेस का रुख़ करेंगे?
उमर रशीद कहते हैं, "उनकी माँ मेनका गांधी बीजेपी में ही हैं और चुनाव लड़ने जा रही हैं। कांग्रेस का पहले से तीन गांधी नेतृत्व कर रहे हैं और उसका आलाकमान है। तो सवाल यह उठता है कि वरुण कांग्रेस में शामिल होकर क्या करेंगे? इससे पार्टी में विरोधाभास पैदा होगा।"
उमर रशीद वरुण और मेनका की राजनीतिक क्षमता का आकलन करते हुए कहते हैं, "2019 के लोकसभा में सुल्तानपुर सीट से अगर वरुण गांधी चुनाव लड़ते तो उनका जीतना मुश्किल होता। इसलिए मेनका गांधी ने पीलीभीत छोड़ सुल्तानपुर से चुनाव लड़ा और वरुण गांधी को सुरक्षित सीट पीलीभीत से चुनाव लड़वाया। लेकिन सुल्तानपुर की सीट पर भी मेनका गांधी महज़ 15,000 वोटों से जीतीं। मतलब यह कि जो दोनों की जीतने की क्षमता समय के साथ घटते नज़र आ रही है।"
भाजपा के लिए वरुण गांधी के महत्व के बारे में उमर कहते हैं, "एक ज़माने में मेनका गांधी और वरुण गांधी का बीजेपी में क़द उनके सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को काउंटर करने के नज़रिये से बढ़ाया गया।''
''लेकिन कांग्रेस की कमज़ोरी और ख़ास तौर से उत्तर प्रदेश में गांधी परिवारों के कमज़ोर होते गढ़ के कारण अब उसकी उपयोगिता भी कम हो गई है। धीरे-धीरे भाजपा गांधी परिवार और उसके नाम से हर किस्म की दूरी बनाना चाहती हैं। अगर दूर की सोचें तो यह बीजेपी के लिए भी फ़ायदेमंद है क्योंकि वो पीलीभीत और सुल्तानपुर जैसी सीटों पर अपने जातिगत और विचारधारा के अनुसार, स्थानीय चेहरों को आगे बढ़ा सकती है।"
Edited by : Nrapendra Gupta