प्रभाकर मणि तिवारी, कोलकाता से, बीबीसी हिंदी के लिए
West Bengal panchayat elections : पश्चिम बंगाल में 8 जुलाई को हुए पंचायत चुनाव में हिंसा के बीच शाम पांच बजे तक 66.28 प्रतिशत मतदान हुआ। चुनाव आयोग के अनुसार, इस बार सबसे ज्यादा 79.15 प्रतिशत मतदान पश्चिम मेदिनीपुर ज़िले में हुआ। दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में मतदान शांतिपूर्ण रहा।
मतदान के दिन राज्य के सात ज़िलों में हिंसा, आगजनी, फर्जी मतदान और बूथ कैप्चरिंग का जो नज़ारा देखने को मिला उसने वर्ष 2018 के उस पंचायत चुनाव को भी पीछे छोड़ दिया जिसकी हिंसा के मामले में मिसाल दी जाती थी। उस साल मतदान के दिन 10 लोगों की मौत हुई थी।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इस बार हिंसा में तमाम राजनीतिक दलों के कम से कम 13 लोगों की मौत हो चुकी है। हालांकि गैर-सरकारी सूत्रों के मुताबिक यह आंकड़ा 17 है।
इसके अलावा दर्जनों लोग घायल हो गए हैं। इनमें से ज्यादातर मौतें गोली लगने या बम विस्फोट के कारण हुई हैं।
शायद कलकत्ता हाईकोर्ट को भी इस हिंसा का अंदेशा था। इसलिए छह जुलाई को उसने कहा था कि 11 जुलाई को मतदान का नतीजा घोषित होने के बाद भी दस दिनों तक केंद्रीय सुरक्षा बल के जवान राज्य में तैनात रहेंगे।
मतदान के दौरान बड़े पैमाने पर हुई इस हिंसा के बाद राज्य का राजनीतिक माहौल गरमा गया है और तमाम दल इसके लिए एक-दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराने लगे हैं।
प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा ने तो बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू करने तक की मांग उठाई है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सुकांत मजूमदार ने केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को पत्र लिख कर राज्य में लोकतंत्र की बहाली के लिए हस्तक्षेप की मांग की है।
हिंसा रोकने में नाकामी क्यों?
राज्य के चुनाव आयुक्त राजीव सिन्हा ने पत्रकारों से बातचीत में हिंसा के बारे में एक सवाल पर कहा कि कानून और व्यवस्था की ज़िम्मेदारी ज़िला प्रशासन की है, आयोग का काम पूरी व्यवस्था को संभालना है।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर इतनी बड़ी तादाद में केंद्रीय बलों की तैनाती के बावजूद इतने बड़े पैमाने पर हिंसा क्यों हुई?
विपक्षी भाजपा, कांग्रेस और सीपीएम का आरोप है कि तृणमूल कांग्रेस सरकार के इशारे पर काम करने वाले राज्य चुनाव आयोग ने उन जवानों को संवेदनशील इलाकों में तैनात नहीं किया।
इसी वजह से हिंसा हुई। लेकिन राज्य चुनाव आयुक्त राजीव सिन्हा ने पत्रकारों से कहा, "केंद्रीय सुरक्षा बल के जवान अगर कुछ पहले राज्य में पहुंच गए होते तो हिंसा पर अंकुश लगाया जा सकता था। शनिवार दोपहर तक केंद्रीय बलों की 660 कंपनियां ही राज्य में पहुंची हैं।"
कलकत्ता हाईकोर्ट के निर्देश के बाद आयोग ने केंद्रीय गृह मंत्रालय से 822 कंपनियों की मांग की थी।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि केंद्रीय बलों की निगरानी में चुनाव कराने पर अदालत में आखिरी मौके तक खींचतान चलती रही और यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। चुनाव आयोग ने पहले महज़ 22 कंपनियां मांगी थीं।
सुप्रीम कोर्ट में सरकार और आयोग की याचिका खारिज होने के बाद उसने केंद्रीय गृह मंत्रालय से और आठ सौ कंपनियां भेजने का अनुरोध किया। लेकिन उसमें से आखिर तक 660 कंपनियां ही यहां पहुंचीं। करीब तीन सौ कंपनियां तो शुक्रवार देर रात या शनिवार को मतदान शुरू होने के बाद राज्य में पहुंचीं।
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर समीरन पाल कहते हैं, "चुनाव आयोग पर केंद्रीय बलों की तैनाती की योजना बनाने में भी देरी के आरोप लगते रहे। इसके अलावा संवेदनशील मतदान केंद्रों की शिनाख्त का काम भी ऐन मौके पर पूरा हुआ। नतीजतन केंद्रीय बलों की समुचित तैनाती नहीं हो सकी।"
कहां कहां हुई हिंसा
वैसे तो राज्य के तमाम इलाकों से हिंसा, आगजनी और बूथ कैप्चरिंग की शिकायत सामने आई हैं। सरकारी सूत्रों का कहना है कि सात जिलों में सबसे ज्यादा हिंसा हुई। इनमें से मुर्शिदाबाद शीर्ष पर रहा।
जिले में शुक्रवार देर रात से अलग-अलग घटनाओं में कम से कम पांच लोगों की मौत हो गई। उसके अलावा कूचबिहार और खासकर दिनहाटा इलाका दूसरे नंबर पर रहा।
वहां हिंसक झड़पों में दो लोगों की मौत हो गई। इसी तरह कोलकाता से सटे दक्षिण दिनाजपुर जिले के भांगड़ में भी हिंसा की अलग-अलग घटनाओं में कम से कम एक दर्जन लोग घायल हो गए।
मालदा और पूर्व बर्दवान जिले में दो-दो लोगों की मौत की खबरें सामने आई हैं। नदिया जिले में भी दो लोगों की गोली लगने से मौत हो गई।
यहां तृणमूल कांग्रेस और भाजपा समर्थकों के बीच बैलेट बॉक्स को लेकर हुई झड़प के बाद भीड़ को तितर-बितर करने के लिए केंद्रीय बल के जवानों को हवाई फायरिंग करनी पड़ी।
हिंसा के अलावा बड़े पैमाने पर आगजनी, बूथ कैप्चरिंग, बैलेट बॉक्स लेकर भागने और बैलेट पेपर फाड़ने और जलाने के साथ ही बड़े पैमाने पर फर्जी मतदान की भी सैकड़ों शिकायतें मिली हैं।
हिंसा की रही है परंपरा
विश्लेषकों का कहना है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में चुनावी हिंसा की जड़ें इतनी रच-बस गई हैं कि तमाम उपायों के बावजूद इस पर पूरी तरह अंकुश लगाना शायद संभव नहीं है।
वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी कहते हैं, "बंगाल में चुनावी हिंसा की परंपरा काफी पुरानी रही है। 1980 और 1990 के दशक में जब बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा का कोई वजूद नहीं था, वाम मोर्चा और कांग्रेस के बीच अक्सर हिंसा होती रहती थी।"
वह बताते हैं कि इतिहास गवाह है कि जब-जब सत्तारूढ़ पार्टी को विपक्ष से कड़ी चुनौती मिलती है, चुनावी हिंसा की घटनाएं तेज़ी से बढ़ती हैं। वह चाहे वाम मोर्चा के सत्ता में रहते पहले कांग्रेस से टकराव हो या फिर बाद में तृणमूल कांग्रेस से।
अब भाजपा के मजबूती से उभरने के और कांग्रेस-सीपीएम गठजोड़ के अपनी खोई जमीन वापस पाने के प्रयास की वजह से इतिहास खुद को दोहराता नजर आ रहा है।
सुरक्षा बलों की तैनाती पर सवाल?
इस हिंसा पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी तेज हो गया है। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने विपक्षी दलों पर हिंसा उसाने का आरोप लगाते हुए कहा है कि केंद्रीय सुरक्षा बल के जवान वोटरों को समुचित सुरक्षा मुहैया कराने में नाकाम रहे हैं।
राज्य सरकार की वरिष्ठ मंत्री शशि पांजा ने सुबह अपने एक ट्वीट में कहा, "बीती रात से ही हिंसक घटनाओं की खबरें आ रही हैं। भाजपा, सीपीएम और कांग्रेस ने मिलीभगत कर केंद्रीय बलों की मांग की थी। टीएमसी के लोगों की हत्या हो रही है। वह लोग (केंद्रीय बलों के जवान) कहां हैं?"
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने कहा, "टीएमसी के गुंडे खुलेआम बूथ कैप्चरिंग और वोटरों को धमकाने में जुटे रहे। पार्टी ने जनमत ही चुरा लिया है।"
सीपीएम के प्रदेश सचिव मोहम्मद सलीम ने दावा किया है कि हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद केंद्रीय सुरक्षा बल के जवानों को समुचित तरीके से तैनाती नहीं दी गई। दूसरी ओर, भाजपा ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग की है।
विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी कहते हैं, "राज्य प्रशासन के तहत मुक्त और निष्पक्ष चुनाव एक मृगतृष्णा है। राष्ट्रपति शासन या संविधान की धारा 355 के तहत ही ऐसा चुनाव संभव है।"
शनिवार शाम को पत्रकारों से बातचीत में अधिकारी का कहना था कि राजीव सिन्हा को चुनाव आयुक्त के पद पर नियुक्त कर राज्यपाल ने सबसे बड़ी ग़लती की है।
टीएमसी के गुंडों ने अब तक 15 से ज्यादा लोगों की हत्या कर दी है। केंद्र को संविधान की धारा 355 या 356 के जरिए फौरन इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए।
अब लाख टके का सवाल यह है कि इतनी भारी हिंसा के बाद आखिर बाजी किसके हाथ लगती है? इसका जवाब तो 11 जुलाई को होने वाली वोटों की गिनती के बाद ही मिलेगा। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक इस नतीजे का अगले साल होने वाले अहम लोकसभा चुनाव पर असर पड़ना तो तय है।