आदर्श राठौर, बीबीसी संवाददाता
 
									
										
								
																	
	भारत ने आसियान देशों के प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौते आरसीईपी यानी रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप में शामिल नहीं होने का फ़ैसला किया है। सरकार का कहना है कि आरसीईपी में शामिल होने को लेकर उसकी कुछ मुद्दों पर चिंताएं थीं, जिन्हें लेकर स्पष्टता न होने के कारण देश हित में यह क़दम उठाया गया है।
 
									
			
			 
 			
 
 			
					
			        							
								
																	
	 
	प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे 'अपनी आत्मा की आवाज़' पर लिया फ़ैसला बताया है, जबकि कांग्रेस इसे अपनी जीत के तौर पर पेश कर रही है।
 
									
										
								
																	
	 
	सोमवार को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बैंकॉक में आरसीईपी सम्मेलन में हिस्सा लिया तो सबकी निगाहें इस बात पर टिकी थीं कि वह भारत को इस समझौते में शामिल करेंगे या नहीं।
 
									
											
									
			        							
								
																	
	 
	माना जा रहा था कि भारत इस व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर कर देगा और इसी बात को लेकर कई किसान और कारोबारी संगठन विरोध कर रहे थे।
 
									
											
								
								
								
								
								
								
										
			        							
								
																	
	 
	मगर आरसीईपी सम्मेलन के बाद शाम को भारत के विदेश मंत्रालय की सचिव विजय ठाकुर सिंह ने बताया कि शर्तें अनुकूल न होने के कारण राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए भारत ने आरसीईपी में शामिल नहीं होने का फ़ैसला किया है।
 
									
					
			        							
								
																	
	 
	उन्होंने कहा कि आरसीईपी को लेकर भारत के मसलों और चिंताओं का समाधान न होने के कारण इसमें शामिल होना संभव नहीं है।
 
									
					
			        							
								
																	
	 
	उन्होंने सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से दिया गया बयान भी पढ़ा, जिसमें उन्होंने गांधी जी के जंतर और अपनी अंतरात्मा के कारण यह फैसला लेने की बात कही थी।
 
									
					
			        							
								
																	
	 
	विजय ठाकुर सिंह ने कहा, "इस विषय पर टिप्पणी करते हुए प्रधानमंत्री ने बताया कि भारतीयों और ख़ासकर समाज के कमज़ोर वर्गों के लोगों और उनकी आजीविका पर होने वाले प्रभाव के बारे में सोचकर उन्होंने यह फ़ैसला लिया है। उन्हें महात्मा गांधी की उस सलाह का ख्याल आया, जिसमें उन्होंने कहा था कि सबसे कमज़ोर और सबसे ग़रीब शख़्स का चेहरा याद करो और सोचो कि जो कदम तुम उठाने जा रहे हो, उसका उन्हें कोई फ़ायदा पहुंचेगा या नहीं।"
 
									
					
			        							
								
																	
	 
	"भारत आरसीईपी की चर्चाओं में शामिल हुआ और उसने अपने हितों को सामने रखते हुए मज़बूती से मोलभाव किया। अभी के हालात में हमें लगता है कि समझौते में शामिल न होना ही भारत के लिए सही फैसला है। हम इस क्षेत्र के साथ कारोबार, निवेश और लोगों के रिश्तों को प्रगाढ़ करना जारी रखेंगे।"
 
									
					
			        							
								
																	
	 
	समझौता में क्या था
	आरसीईपी एक व्यापार समझौता है, जो इसके सदस्य देशों के लिए एक-दूसरे के साथ व्यापार करने को आसान बनाता है।
 
									
					
			        							
								
																	
	 
	इस समझौते के तहत सदस्य देशों को आयात-निर्यात पर लगने वाला टैक्स या तो भरना ही नहीं पड़ता या फिर बहुत कम भरना पड़ता है।
 
									
					
			        							
								
																	
	 
	आरसीईपी में 10 आसियान देशों के अलावा भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के शामिल होने का प्रावधान था। अब भारत इससे दूर रहेगा।
 
									
					
			        							
								
																	
	 
	आरसीईपी को लेकर भारत में लंबे समय से चिंताएं जताई जा रही थीं। किसान और व्यापारी संगठन इसका यह कहते हुए विरोध कर रहे थे कि अगर भारत इसमें शामिल हुआ तो पहले से परेशान किसान और छोटे व्यापारी तबाह हो जाएंगे।
 
									
					
			        							
								
																	
	 
	अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति से जुड़े स्वराज पार्टी के नेता योगेंद्र यादव ने आरसीईपी से बाहर रहने के भारत के फैसले को अहम बताते हुए कहा कि प्रधानमंत्री ने जनमत का सम्मान किया है।
 
									
					
			        							
								
																	
	 
	योगेंद्र यादव ने कहा, "बहुत बड़ा और गंभीर फैसला है। और बहुत अच्छा फैसला है। इसके लिए भारत सरकार को और प्रधानमंत्री को बधाई दी जानी चाहिए। आरसीईपी में शामिल होना भारत के किसानों के लिए, भारत के छोटे व्यापारियों के लिए बड़े संकट का विषय बन सकता था। आगे चलकर इसका परिणाम बहुत बुरा हो सकता था। इसके बारे में तमाम तरह के सवाल उठाए जा रहे थे। सरकार इन सब सवालों के बावजूद आगे बढ़ी। ऐसा लग रहा था कि जाकर हस्ताक्षर कर देंगे। लेकिन आखिर में जनमत का सम्मान करते हुए प्रधानमंत्री ने ऐसा ना करने का फैसला किया। कुल मिलाकर राष्ट्रीय हित में फैसला हुआ।"
 
									
					
			        							
								
																	
	 
	समझौते से क्या नुकसान होते
	योगेंद्र यादव ने कहा कि देश के तमाम किसान संगठनों ने एक स्वर में इस समझौते का विरोध किया था। बीजेपी और आरएसएस के साथ जुड़े किसान संगठन भी विरोध करने वालों में शामिल थे।
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	वो कहते हैं, "यहां तक कि सरकार के नज़दीक मानी जानी वाली अमूल डेयरी ने भी इसका विरोध किया था। बीजेपी के खुद के मंत्री दबे स्वर में इसकी आलोचना कर चुके थे। कई राज्य सरकारें इस पर सवाल उठा चुकी थीं। कुछ दिन पहले कांग्रेस ने अपनी नीति बदलते हुए और यूटर्न लेते हुए इसका विरोध किया था। ये सब बातें कहीं ना कहीं प्रधानमंत्री के ज़हन में होंगी और उन्हें अहसास होगा कि वापस आकर इस समझौते को देश की जनता के सामने रखना कोई आसान काम नहीं होगा।"
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	योगेंद्र यादव कहते हैं कि दो-तीन वर्गों पर इस समझौते के विनाशकारी परिणाम होते। उनके मुताबिक भारत अगर ये समझौता कर लेता तो न्यूज़ीलैंड से दूध के पाउडर के आयात के चलते भारत का दूध का पूरा उद्योग ठप पड़ जाता।
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	किसानी-खेती की बात करें तो इस समझौते के बाद नारियल, काली मिर्च, रबर, गेहूं और तिलहन के दाम गिर जाने का खतरा था। छोटे व्यापारियों का धंधा चौपट होने का खतरा था।
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	वो कहते हैं, "और प्रधानमंत्री को इतना अहसास रहा होगा कि एक तरह अर्थव्यवस्था में सुस्ती छाई हुई है, नोटबंदी की मार से देश अबतक उभरा नहीं है। कुल मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था की हालत खराब है और अगर एक और झटका लग गया, सरकार को उसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया तो सरकार को अपने आप को जनता के सामने खड़ा करना बहुत कठिन हो जाएगा। ये सब निश्चित ही प्रधानमंत्री के मन में रही होगी।"
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	शामिल होने की सलाह दी गई थी
	आरसीईपी को लेकर केंद्र सरकार के उच्च-स्तरीय सलाहकार समूह ने अपनी राय देते हुए कहा था कि भारत को इसमें शामिल होना चाहिए। इस समूह का कहना था अगर भारत आरसीईपी से बाहर रहता है तो वो एक बड़े क्षेत्रीय बाज़ार से बाहर हो जाएगा।
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	दूसरी तरफ़ भारत के उत्पादकों और किसानों की चिंता थी कि मुक्त व्यापार समझौतों को लेकर भारत का अनुभव पहले ठीक नहीं रहा है और आरसीईपी में भारत जिन देशों के साथ शामिल होगा, उनसे भारत आयात अधिक करता है और निर्यात कम।
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	साथ ही चीन आरसीईपी का ज़्यादा समर्थन कर रहा है, जिसके साथ भारत का व्यापारिक घाटा पहले ही अधिक है। ऐसे में आरसीईपी भारत की स्थिति को और ख़राब कर सकता है।
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	क्रिसिल के अर्थशास्त्री सुनील सिन्हा ने बीबीसी को बताया कि काफी दिनों से आरसीईपी को लेकर चर्चा हो रही थी, मगर भारत ने यह देखकर इससे दूर रहने का फ़ैसला किया कि इससे फ़ायदा कम, नुक़सान ज़्यादा हो सकता है।
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	सुनील सिन्हा ने कहा, "इस तरह के समझौतों में सबसे महत्वपूर्ण बात होती है कि किसी भी देश के लिए इस तरह के सहयोग में क्या फायदा है। लेकिन आरसीईपी का देश में विरोध हो रहा था और कहा जा रहा था कि ये भारत के लिए ज़्यादा फायदेमंद नहीं है। मुझे लगता है कि जब इसपर बातचीत हुई तो भारत के अधिकारियों को ऐसा लगा कि भारत को जितना फायदा होगा, उसे कहीं अधिक नुकसान हो जाएगा। इस वजह से भारत ने इस समझौते पर आगे बढ़ने से मना कर दिया होगा।"
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	चीन को लेकर भारत की चिंता?
	सुनील सिन्हा कहते हैं कि जहां तक चीन का सवाल है, वो पहले से आर्थिक रूप से ज़्यादा समृद्ध देश है और पूर्व-एशियाई देशों में उसकी पहुंच भारत से ज़्यादा है।
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	उन्होंने कहा,"जब भी इस तरह की व्यापारिक बातचीत होगी तो चीन यहां फायदे की स्थिति में होगा। जबकि भारत के पास वो फायदा नहीं है। पूर्व-एशियाई देशों से हमारे उस तरह के व्यापारिक रिश्ते नहीं है। भारत उस क्षेत्रीय सहयोग का हिस्सा बनने की कोशिश कर रहा है, जबकि चीन पहले से वहां पहुंच चुका है।"
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	आर्थिक पहलू से अलग इस मामले में अब राजनीति भी शुरू हो गई है। भारतीय जनता पार्टी जहां इसे प्रधानमंत्री का दूरदर्शिता भरा फैसला बता रही है, वहीं कांग्रेस इसे अपनी जीत के तौर पर प्रचारित कर रही है।
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	भारतीय जनता पार्टी के कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने आरसीईपी में शामिल न होने को सरकार का बड़ा कदम बताते हुए प्रधानमंत्री को इस बात की बधाई दी है कि वो पहले की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारों की तरह वैश्विक दबाव के आगे नहीं झुके।
 
									
			                     
							
							
			        							
								
																	
	 
	मगर पहले से ही आरसीईपी में शामिल होने का विरोध कर रही कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने ट्वीट करके कहा है कि यह राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए लड़ने वालों की जीत है। उन्होंने भारत के आरसीईपी में शामिल न होने के क़दम के लिए कांग्रेस और राहुल गांधी के विरोध को श्रेय दिया है।