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बिहार में सत्ता के लिए जाति और गठबंधन की 'जरूरी मजबूरी'

हमें फॉलो करें बिहार में सत्ता के लिए जाति और गठबंधन की 'जरूरी मजबूरी'
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संदीपसिंह सिसोदिया

, मंगलवार, 29 सितम्बर 2020 (16:13 IST)
बिहार (Bihar assembly election 2020) में बह रही चुनावी बयार से राजनीतिक माहौल बेहद गर्म हैं। कोरोनाकाल (Coronavirus) में होने वाले पहले चुनाव के कारण इस बार राज्य में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन और नए फैक्टर देखने को मिलेंगे।

लेकिन, बिहार में सबसे बड़ा फैक्टर है यहां के जातीय समीकरण। वैसे तो पूरे भारत में किसी भी राज्य में जातीय समीकरण की अहम भूमिका होती है लेकिन बिहार के मामले कहा जा सकता है कि यहां यही एक मात्र फैक्टर है, जो सरकार बनाता भी है और बिगाड़ता भी है।

बिहार की राजनीति जातिवाद आधारित है। इसी के चलते लगभग सभी दल सभी जातियों को ध्यान में रखते हुए ही कोई फैसला करते हैं। यहां जातिवाद कितना प्रबल है इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि बिहार ही में आजादी के पहले जनेऊ आंदोलन हुआ और इसी राज्य में जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति आंदोलन में 'जाति छोड़ो, जनेऊ तोड़ो' का नारा लगवाया था। 
पिछड़ों को नेतृत्व देने वाली बिहार सरकार के नेता कर्पूरी ठाकुर को नेता बनाने वाले राममनोहर लोहिया ने पहली बार पिछड़ों के आरक्षण की मांग करते हुए नारा दिया था ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’।   
 
1967 में बिहार विधानसभा और लोकसभा का चुनाव एक साथ हुआ। उसके पहले ही बिहार के जटिल समाजी-सियासी ताने-बाने टूटने लगे थे और इस जातिगत सत्ता-स्थानांतरण की मुख्य वजह रही दलितों और सवर्णों के राजनीतिक टकराव। यहीं से बिहार में राजनीतिक अस्थिरता का दौर भी शुरू हो गया था। बिहार राजनीतिक रूप से इतना अस्थिर रहा है कि यहां अब तक 8 बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है। 
 
बिहार में सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ होने वाले राजनीतिक बदलाव की एक बानगी यह भी है कि यहां अब तक 12 सवर्ण, 6 पिछड़े वर्ग से, 3 दलित वर्ग से और एक मुस्लिम मुख्यमंत्री रहे हैं। इस प्रदेश में 5 दिन के मुख्यमंत्री से लेकर 14 वर्ष से भी अधिक मुख्यमंत्री बने रहने के रिकॉर्ड भी दर्ज हैं।  
 
इसी तरह 1990 में मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू होने के बाद से ही बिहार में जातीय समीकरण तेजी से बदले और पिछड़े वर्ग में बढ़ती राजनीतिक जागरूकता के चलते मतदाताओं में जाति आधारित क्षेत्रीय दलों के प्रति प्रतिबद्धता बढ़ने लगी।

NSSO (नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइज़ेशन) के अनुमान के मुताबिक, बिहार की आधी जनसंख्या पिछड़े वर्ग से आती है। इसी तरह राज्य में दलित और मुसलमान भी बड़े समुदाय हैं। बिहार में मुसलमान भी सामाजिक आधार पर वह कई हिस्सों में बंटे हैं, जिनमें पिछड़े मुसलमानों की संख्या अधिक है।

यही कारण है कि बिहार का राजनैतिक इतिहास देखें तो पता चलता है कि 1990 के बाद हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों से स्पष्ट है कि यहां गठजोड़ की राजनीति क्यों हावी है। यदि सभी राजनैतिक दल अकेले चुनाव लड़ें तो बिहार में खंडित जनादेश ही आएगा और कोई सरकार नहीं बना पाएगा। 
राज्य की राजनीति में भाजपा व कांग्रेस जैसे दो राष्ट्रीय दल और राजद व जदयू सरीखे दो ताकतवर क्षेत्रीय दल में से कोई भी पिछले 30 वर्षों में हुए चुनावों में एक बार भी बहुमत का आंकड़ा नहीं छू सका है। 
इसका एक बड़ा कारण है कि बिहार में मतदाता जाति के आधार पर बंटे हुए हैं। 1990 के दशक में भाजपा के हिंदुत्व की काट के लिए लालू यादव ने लोहियावाद से आगे बढ़कर 'कास्ट अलाइननमेंट' करते हुए मुस्लिम-यादव (माईवाद) के 'माय समीकरण' से सत्ता की सीढ़ी चढ़ी। इसी समीकरण को भांपते हुए बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी सोशल इंजीनियरिंग आधारित जो 'न्यू कास्ट अलाइनमेंट' राजनीतिक पैटर्न अपनाया, वह बिहार की राजनीति में पहले भी सफलता पूर्वक आजमाया हुआ था।
बिहार के प्रमुख क्षेत्रीय दलों जदयू और राजद का आधार मूलत: कुर्मी और यादव वोटों में है। वहीं रामविलास पासवान की लोजपा और हम का मूल आधार दलित वोट हैं। इसी तरह दो बड़े राष्ट्रीय दलों भाजपा के पास सवर्ण और कांग्रेस के पास सवर्ण और मुस्लिम मतदाताओं का बंटा हुआ वोट बैंक है। 
2015 में भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टी लोजपा एवं राष्ट्रीय लोक समता पार्टी को सत्ता से दूर रखने के लिए नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने ‘महागठबंधन’ बनाया था। हालांकि यह सरकार अल्पजीवी साबित हुई और नीतीश कुमार ने सत्ता में बने रहने के लिए एक बार फिर भाजपा नीत एनडीए से हाथ मिला लिया।  
 
यही कारण है कि बिहार में गठबंधन ही इस चुनाव में भी सफलता का सूत्र साबित होगा। बिहार की जातिगत राजनीति को देखते हुए जहां तेजस्वी यादव को कांग्रेस की जरूरत है वहीं भाजपा के साथ बने रहना नीतीश कुमार की जरूरी 'राजनीतिक मजबूरी' है।

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