एक बार मैं और विवेक यूं ही बैठे हुए थे और बात कर रहे थे कि हमारे देश में कितनी सारी चीजें नहीं हैं। देश में बहुत सारी कमियां है और फिर बातें करते-करते हम दोनों के दिमाग में आया कि ऐसा तो हमारी पिछली पीढ़ी भी बोलती थी। हम भी बोल रहे हैं। हम नया क्या कर रहे हैं, क्यों ना कोई काम ऐसा किया जाए ताकि कुछ तो नया हो। ताकि आगे आने वाली पीढ़ी को हम कुछ तो नया बता कर जाए।
और फिर एक ऐसी फिल्म भी बनाई जाए जो हमारे देश की सच्चाईयों को लोगों के सामने लाकर रख दे और दूसरा एक बड़ा कारण यह था कि नब्बे के दशक के बाद जितनी भी फिल्में बनी है, उसमें विदेशों को ज्यादा देखा। क्या गलत नहीं है यह भी। लेकिन इस चक्कर में हमने हमारे देश की भारतीयता को छोड़ दिया। एक्टर है तो वह देश के बाहर रहता है या फिर वह नौकरी करने बाहर जा रहा है। जबकि अमिताभ बच्चन जी तक की फिल्मों में हमने देखा है कि उस में छोटी-छोटी बातें रखी जाती थी।
अब वही सीन याद कर लीजिए, जिसमें कि अमिताभ बच्चन और परवीन बाबी को घर पर लेकर आते हैं और उनकी मां पूछती कि तुम्हें कुछ खाना बनाना आता है या नहीं और फिर अंडे वाला जो सीन बनाया गया है। आप सोचें उसमें हर सीन मुझे लग रहा था कि यह हमारे देश की संस्कृति है। और फिर वह दौर आया जहां फिल्में इस तरीके से बनी की कहानियां विदेशों में बनने लग गई। हमारा कोई हीरो है जो न्यूयार्क लंदन में रहता है तो उसका घर भी वैसा है। सोच भी वैसी और खान-पान भी वैसा ही है। यह चीज कहीं मुझे चुभती भी थी। अब थोड़ा सा सोचिए पॉलिटिकल विषय पर जागरूकता ज्यादा है तो चीजों को देखने का नजरिया भी हम लोगों का वैसा ही है।
यह कहना है पल्लवी जोशी का जो पहले टेलीविजन की दुनिया और अब फिल्मी दुनिया में एक बार फिर से आई हैं। और अपने अभिनय का लोहा मनवा रही है। द बंगाल फाइल्स के जरिए इनका नया रूप लोगों के सामने आने वाला है। पल्लवी ने अपनी फिल्म के प्रमोशन इंटरव्यू के दौरान पत्रकारों से बातचीत करते हुए कई और भी बातों का खुलासा किया।
पल्लवी आगे बताती हैं, अब मराठी परिवार से मैं हूं तो मुझे याद है कि दिवाली के समय में हम लोग नाश्ता बनाते थे, जैसे मराठी में फराल कहा जाता है। दिवाली के समय में उस खास तरीके का नाश्ता बनता था। सभी लोग छुट्टियों में सुबह सुबह वही खाया करते थे। आसपास अगर किसी को मिलने भी जाना है तो यही नाश्ता उनके घर पर देकर आते थे। अब बात अलग हो गई है। अगर ग्लोबलाइजेशन हुआ है तो उसका उल्टा असर भी हमें स्वीकारना होगा। अब हम एक दूसरे के यहां जाते हैं और चॉकलेट देकर आ जाते हैं। सब सही है लेकिन हम कहीं अपने खान-पान को भूलते जा रहे हैं।
यह सोचते सोचते हम पहुंच गए। लोकतंत्र इस विषय पर फिर लगा कि हमारे पास जो तीन शेर हैं अशोक स्तंभ पर वह भी तो कुछ बताते ही हैं। यानी सच्चाई, न्याय और जीने का अधिकार। लेकिन जब बंगाल फाइल्स बना रहे थे। तब समझ में आया कि इसमें चौथा से जो दिखाई नहीं देता है वह है हम लोग। यानी कि वी द पीपल ऑफ इंडिया। अब सोचिए ना हमारे यहां देश में आजादी की लड़ाई लड़ी थी, इसलिए लड़ी गई थी ताकि हम जीवन अपनी शर्तों पर जी सकें। अपना स्वराज्य हो स्वतंत्र हो सके। वरना समय तो वह भी था कि कोई भी आता था। हमारे ऊपर हमला करता था। हमारी महिलाओं का अपहरण करता था। बच्चों को मार डाला जाता था। पुरुषों का कहां गायब कर दिया गया कोई नहीं जानता था। कोई जजिया कर लगा रहा है, कोई शोषण कर रहा है।
अपनी फिल्म में हम रिसर्च को बहुत संजीदगी के साथ लेते हैं। हम बहुत अलग-अलग सोर्सेस के जरिए अपने सूत्रों के जरिए जानकारी को इकट्ठा करते। यह जानकारी हम कभी टेलीविजन से ले लेते हैं कभी समाचार पत्रों से लेते हैं, कभी पत्रिकाओं से लेते हैं। हम ऐसे लोगों से जुड़ते हैं जो शायद हमारी कहानी का एक बहुत बड़ा किरदार भी हो सकता है। और सिर्फ अपने देश की नहीं बल्कि विदेशी समाचार पत्र पत्रिकाओं को भी इकट्ठा करते हैं। यानी हमने हर जगह से तथ्यों को इकट्ठा कर लिया। उसके बाद फिर हम उसपर समीक्षा करना शुरू करते हैं वरना एक ही तरीके की जानकारी देंगे तो वह एक एजेंडा वाली फिल्म बन जाएगी।
हर व्यक्ति के लिए कोई एक घटना उसकी नजर से देखना, वह ना सोचते हुए हम सारे तथ्यों को टेबल पर रखते हैं और उसमें से सटीक जो सच निकल कर आता है उस पर फिल्म बनाते हैं। फिल्म द बंगाल फाइल्स है तो डायरेक्ट एक्शन डे पर ही उसमें हम नया कुछ नहीं कर सकते तो ऐसे में हम सिनेमैटिक लिबर्टी लेते हैं। एक घटना किसी शख्स के साथ होगी। दूसरी घटना किसी और शख्स के साथ होगी तो हम उन्हें अलग-अलग शख्स ना दिखाते हुए एक ही शख्स के जीवन से जुड़ी हुई कहानियां हैं ऐसा बता देते हैं वरना इतने सारे किरदारों से लोग जुड़ नहीं पाएंगे और फिल्म अपनी बात लोगों तक पहुंचा नहीं पाएगी। हमने द कश्मीर फाइल्स में भी ऐसा ही किया था। घटनाएं अलग-अलग लोगों के साथ हो गई, लेकिन उसे मिलाकर किसी एक शख्स के साथ दिखा दिया। इतनी सिनेमैटिक लिबर्टी हम ले लेते हैं।
आप बंगाल फाइल्स जब बना रहे थे तो क्या ऐसे लोगों से भी मुलाकात कर सके जो सच में इस घटना को देख चुके हों?
हां हम कुछ ऐसे लोगों से मिले जो इस घटना को देख चुके थे। बहुत अलग-अलग जगह पर थे। उसमें से कुछ एक लोगों की उम्र बहुत ज्यादा थी। कुछ एक हमसे बात नहीं कर पा रहे थे। कुछ एक लोगों के बच्चे हमें एल्बम के जरिए दिखा रहे थे। इनमें से कुछ लोगों की याददाश्त जा चुकी थी। कुछ एक लोगों को डिमेंशिया था। हम समझ भी नहीं पाते थे। कुछ लोग त्रिपुरा में मिले और कुछ लोग जो बता रहे थे, वह बंगाली में बता रहे थे तो हमने एक ट्रांसलेटर भी अपने साथ रखा। बात तो यह भी हुई कि हम से मिलने के कुछ दिनों में ही एक या दो शख्स चल बसे।
80 के दशक में एक पैरेललल सिनेमा आया करता था। और आज जब आप की फिल्में देखते हैं तो उसमें इमोशन बनिस्बत कम मिलते हैं लेकिन तथ्य बहुत ज्यादा मिलते हैं। क्या यह आपकी वजह से शुरू हुआ कोई नया सिनेमा है?
हां, मैं बिल्कुल ऐसा कहना चाहूंगी। पहले के समय में श्याम बेनेगल है या फिर मृणाल सेन जी हैं ऐसे जो निर्देशक रहे हैं, वह फिल्म में बताते थे और फिल्म के जरिए यह बताते थे कि हमारे समाज में क्या चल रहा है और वह बिल्कुल शत प्रतिशत सही बात बताते थे गरीबी है या परेशानियां है कैसे कोई व्यक्ति जी रहा है? वहीं पर कमर्शियल सिनेमा अलग ही हुआ करता था जहां पर दुबले-पतले से अमिताभ बच्चन साहब। 10 लोगों के पिटाई किया करते थे। अब तो यह तो सच था कि एक व्यक्ति जो लोकल में लटक कर ऑफिस जाता है जहां बॉस की डांट खाता है उसके लिए कमर्शियल सिनेमा एक पलायन का स्थान बन जाता था। जहां वह जाता था।
उसको लगता था कि वह भी अमिताभ बच्चन है और उसकी पत्नी जो है, वह रेखा की तरह खूबसूरत है और सारी तमाम परेशानियों से दूर भाग लो। कुछ पल सुकून के जी लेता था वरना सोचिए पत्नियां तो घर पहुंचने के बाद ही कहेंगी कि फीस नहीं भरी है और यह सामान खत्म हो गया है। कमर्शियल सिनेमा आपको सपने दिखाएगा और झूठी दुनिया में यकीन करना सिखा देगा। वही पैरेलल सिनेमा आपको जीवन की सच्चाईयों के करीब लाएगा। मैं अपने सिनेमा को पैरेलल सिनेमा तो नहीं लेकिन ट्रू सिनेमा जरूर कहना चाहूंगी जो है वह सच्चाई के साथ दिखाई देगा और। कला यही तो होती है। इसे कलात्मक फिल्म की तरह देखा जाए।
कला आपको हमेशा असमंजस में डाल देती हैं। थोड़ा सा चौका देती है, शॉक में डाल देती है। कोई पेंटिंग अगर आप देखेंगे तो आप सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि यह रंग क्यों भरा है या शिल्पकला को देख लेंगे तो आपको लगेगा कि यह क्या सोचकर बनाई गई होगी? और ऐसे में सिनेमा बनाना तो कई तरीके के अलग-अलग कलाओं का मिलाजुला स्वरूप है। चाहे वह संगीत हो, चाहे वह एक्शन हो, चाहे एक्टिंग हो, चाहे वह गाना हो, चाहे वह वाद्ययंत्र हो, चाहे वह नृत्य हो या सेट डिजाइनिंग हो तो ऐसे में क्या हो गया जो सिनेमा को लोगों ने हा हा ही ही करते रहने का जरिया बना दिया जबकि असल तो कुछ और ही बात है। इतने सारे कलाओं का समागम करने वाला एक सिनेमा इसे आप कैसे संजीदगी से नहीं लेंगे?
हमने इतिहास की किताबों में बहुत तोड़ मरोड़ कर पेश की गए इतिहास को पढ़ा है। क्या आपको लगता है कि आप की फिल्में जो सच्चाई को दिखा रही है उसे डॉक्यूमेंट्री प्रूफ की तरह देखा जाए और पाठ्यक्रम में शामिल की जाए।
बिल्कुल मैं मानती हूं कि हमारे देश में कई सारी बातें हम तक लाई ही नहीं गई, छुपाई गई है। कई बार ही होता है कि सरकार बहुत सारी बातें छुपा देती है जो शायद सच तो है लेकिन उससे बहुत ज्यादा भलाई नहीं होगी तो ऐसी कोई सच्चाई अगर सरकार छुपा देती है तो बुरा नहीं लगता है। लेकिन जब हम रिसर्च करने बैठे तब समझ में आया कि बहुत सारी बातें हैं जो बताई ही नहीं गई। उसे छुपा दिया गया और वो सच गुम हो गया। यह बात मैं विवेक को हमेशा कहती रहती हूं कि हमें जो पढ़ाया गया, वह सही नहीं पढ़ाया गया है।
एक मिसाल के तौर पर वाकया सुनाती हूं। आपको हम अमेरिका में गए थे। अपनी फिल्म की स्क्रीनिंग करने के लिए तो हमारा जो कैमरामैन था बहुत ही युवा वर्ग का है। मुझसे पूछा, क्या हम बोस्टन जाने वाले हैं? तो मैंने उनको कह दिया कि नहीं, इस बार तो नहीं जाना होगा, पर तुम्हें बोस्टन क्यों जाना है तब वह कैमरामैन मुझे बोले कि मुझे बोस्टन टी पार्टी देखनी है। तो मुझे बड़ा अचरज हुआ और मैंने पूछ लिया। तुम्हें कैसे मालूम बोस्टन टी पार्टी कैसे होती है और क्या होती है? उसने फटाक से बोल दिया यह सब चीज है। हम इतिहास में पढ़कर आए हैं और मैंने पीछे मुड़कर विवेक को देखा और कहां देखा हमारे इतिहास की किताबों में यह सब पढ़ाया जा रहा है। यानी जो इतिहास हमारा है जो असली जिंदगी हम जी कर यहां तक आए उसका कहीं जिक्र नहीं है और किसी और देश की कोई और कहानियां सुनाया जा रहे हैं।
मुझे लगता है कि हमारी फिल्मों को एक डॉक्यूमेंटल प्रूफ मान लिया जाए तो अच्छा रहेगा क्योंकि इसमें सच्चाई ही बताई जा रही है। अब मैं किसी के पाठ्यक्रम पर टिप्पणी करने के लिए तो नहीं हूं? लेकिन समझाने के लिए बताती हूं कि जब हम एक्टिंग करने आए थे तब हमारे पास गुरुदत्त साहब की फिल्में थी या बड़े-बड़े फिल्मेकर्स की फिल्में थी जिसे देखकर हमने पढ़ाई और वह भी एक्टिंग की पढ़ाई की।
तो जब आगे आने वाले समय में कोई इतिहास का छात्र होगा तो मैं यह निजी तौर पर चाहूंगी कि उससे हमारी फिल्म देखने के बाद इतिहास का सच दिखाई दे कई बार होता है। हम लोगों को लगता है कि यह तो बहुत कड़वी बात हो जाएगी। फिल्म में दिखाया नहीं लेकिन फिर हम यह निर्णय लेते हैं कि चलिए बहुत कड़वा सच है। लेकिन इसकी सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता और फिर हम वह बात अपने सिनेमा में कह देते हैं।