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बर्गमैन का सिनेमा

शब्‍द जहाँ नाकाफी हो जाते हैं

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jitendra

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कुछ साल पहले की बात है। एक फिल्‍म ‘क्राइज एंड व्हिसपर्’ देखी। बिल्‍कुल जड़, नि:शब्‍द कर देने वाली फिल्‍म, ऐसी कि फिल्‍म खत्‍म होने के घंटों बाद भी मुँह से एक शब्‍द नहीं फूटा। फिल्‍म स्‍तब्‍ध कर देती है, सारे शब्‍द कहीं बिला गए मालूम देते हैं। मैं कई दिनों तक उस फिल्‍म के प्रभाव और किसी अव्‍यक्‍त गहरे अवसाद से बाहर नहीं आ सकी

सिनेमा की यह अद्भुत भाषा गढ़ने वाले कोई और नहीं, बर्गमैन थे। गत सदी के सबसे महान फिल्‍मकार इंगमार बर्गमैन, जो हालाँकि स्‍वीडन के रहने वाले थे, लेकिन जिनके सृजन को किन्‍हीं भौगोलिक सीमाओं में कैद नहीं किया जा सकता

उन्‍नीसवीं शताब्‍दी आधी बीतते-न-बीतते पूरी दुनिया में कला के स्‍तर पर बहुत सारे बड़े परिवर्तनों की नींव पड़ने लगी थी। इसके पहले तक सिनेमा को एक गंभीर कला माध्‍यम के रूप में पहचान नहीं मिली थी। और यही वह दौर था, जब फ्राँस में ज्‍याँ लुक गोदार, इटली में फेलिनी, जापान में कुरोसावा, रूस में आंद्रेई तारकोवस्‍की, भारत में सत्‍यजीत रे और स्‍वीडन में इंगमार बर्गमैन एक नई सिनेमाई भाषा का सृजन कर रहे थे। इन लोगों ने मिलकर सिनेमा को नई पहचान दी। सिनेमा की भाषा इतनी जटिल और गंभीर भी हो सकती है, और पर्दे पर मनुष्‍य जीवन की छवियों को इस तरह रचा जा सकता है, ऐसा पहले कभी महसूस नहीं हुआ था

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1918 में स्‍वीडन के एक नितांत धार्मिक, पादरी परिवार में बर्गमैन का जन्‍म हुआ था। घर में जितनी सख्‍ती और कड़ा अनुशासन था, बर्गमैन उतने ही आजाद ख्‍याल और धर्म-विरोधी होते गए। बर्गमैन की कई फिल्‍मों में एक तानाशाह पिता और सख्‍त परिवार की छवियाँ मिलती हैं, जो काफी हद तक उनके अपने बचपन की ही छवियाँ हैं

बर्गमैन ने विविधताओं और विचित्रताओं से भरा जीवन जिया। लीक से हटकर अपनी खुद की जिंदगी के साथ ढेर सारे प्रयोग किए और इन्‍हीं अनुभवों और प्रयोगों को सिनेमा की भाषा में रूपांतरित किया

हमारे देश में पॉपुलर सिनेमा का अर्थ है, कुछ फॉर्मूले, फैंटेसी और एक ऐसी काल्‍पनिक दुनिया, जो यथार्थ से कोसों दूर है। ऐसे में बर्गमैन की फिल्‍में हमारे आसपास के सच को पर्दे पर दिखाती हैं, और उससे कहीं ज्‍यादा, जितना हम अपनी आँखों से देख सकते हैं। यथार्थ की गहरी पर्तों को भेदकर भीतर से उस सच को ढूँढ निकालना, जिससे साक्षात्‍कार खुद हमें बहुत बार आतंकित कर देता है।

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बर्गमैन जब युवा हो रहे थे, उस समय दुनिया को द्वितीय विश्‍व युद्ध की त्रासदी से उबरे ज्‍यादा वक्‍त नहीं हुआ था। यूरोप पर नाजीवाद के अवशेष बचे रह गए थे। स्‍वीडन भी नाजीवाद के गहरे प्रभाव में था। बाद में बर्गमैन की फिल्‍मों ने इस प्रभाव को तोड़ने में महती भूमिका निभाई। विचार, दर्शन, सामाजिक न्‍याय और नैतिकता के कुछ गहरे सवाल उनकी फिल्‍मों की विषयवस्‍तु बने

बर्गमैन के भीतर एक जबर्दस्‍त किस्‍म का ज्‍वालामुखी रचानाकार था। उन्‍होंने 35 वर्ष की अवधि में तकरीबन 50 फिल्‍में बनाईं और 60 के करीब नाटकों का भी सृजन किया। बर्गमैन अपनी सारी फिल्‍में खुद ही लिखते थे। बर्गमैन ने एक रेपर्टरी बनाई थी। कुछ लोगों का एक समूह था, जो साथ मिलकर काम करते थे, और बर्गमैन की लगभग सभी फिल्‍मों में वही कलाकार होते थे।

बहुत थोड़े बजट की उनकी फिल्‍मों में कोई तामझाम और नाटकीयता नहीं होती और कभी-कभी तो पूरी फिल्‍म सिर्फ दो-तीन पात्रों और दो-तीन दृश्‍यों के भीतर ही बुनी गई होती है। लेकिन फिर भी यूँ बाँधकर रखती है, और यूँ नि:शब्‍द कर देती है कि कोई शब्‍द, कोई उपमा ढूँढे से न मिले

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बर्गमैन सबसे पहले ‘स्‍माइल्‍स ऑफ ए समर नाइ’ से अंतरराष्‍ट्रीय चर्चा में आए। उसके बाद उनकी कई फिल्‍मों को पूरी दुनिया में ख्‍याति मिली। ‘वाइल्‍ड स्‍ट्रॉबेरी’, ‘फैनी एंड अलेक्‍जेंड’, ‘द सेवेंथ सी’, ‘ऑटम सोनाट’, ‘म्‍यूजिक इन डार्कने’, ‘दिस कांट हैपेन हेय’, ‘द वर्जिन स्प्रिं’ और ‘द सीक्रेट्स ऑव वूमे’ उनकी कुछ चर्चित फिल्‍में हैं। उनकी फिल्‍म ‘थ्रो ए ग्‍लास डार्कल’ और ‘क्राइज एंड व्हिस्‍पर्’ ने अकादमी अवॉर्ड हासिल किया। ‘फैनी एंड अलेक्‍जेंड’ को चार अकादमी अवॉर्ड मिले थे

बर्गमैन और उनके सिनेमा पर बात करते हुए हमेशा शब्‍दों की कमी महसूस होती है। उस अनुभूति के लिए हमारी भाषा के शब्‍द बहुत बार नाकाफी हो जाते हैं, जो उस फिल्‍म से गुजरते हुए भीतर चल रही होती है। एक छोटे से आलेख में सदियों के अंतराल में फैले बर्गमैन के सिनेमाई सृजन को समेटा भी नहीं जा सकता

बर्गमैन की फिल्‍में ऐसी हैं, जैसे पर्दे पर चल रही कोई कविता हो। अपनी गति, लय और प्रवाह में वह हमारे मन में उतरती चली जाती है। पानी में शक्‍कर की तरह दिल-दिमाग के अंतरालों में कविता घुलती जाती है। एक कविता, जिसकी मिठास और जिसकी कड़वाहट को भी सिर्फ महसूस किया जा सकता है।

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