ऊंचा कद। इकहरा बदन। बड़ी-बड़ी आंखें। आंखों के नीचे भारी बैग। घुंघराले बाल। एक अजीब सी संवाद अदायगी। संवादों को कई से भी तोड़-मोड़ कर बोलना। बोलते-बोलते रूक जाना। फुसफुसा देना। अभिनय में आवाज का बखूबी इस्तेमाल। चेहरे पर बड़े ही संयत भरे भाव। ये इरफान खान की खासियत थी।
लेकिन निर्माता-निर्देशकों और दर्शकों को इरफान की यह खासियत समझने में बहुत ज्यादा समय लगा। यही कारण रहा कि इरफान के करियर ने लंबे संघर्ष के बाद रफ्तार पकड़ी। और इससे नुकसान फिल्मों का, अभिनय की दुनिया का और दर्शकों का ही हुआ क्योंकि इरफान के पास ज्यादा समय नहीं था। मात्र 53 वर्ष की आयु में ही उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। यदि इरफान का संघर्ष ज्यादा लंबा नहीं होता तो वे बहुत कुछ और दे सकते थे क्योंकि उनके पास देने को बहुत कुछ था।
इरफान क्रिकेट भी बहुत अच्छा खेलते थे। सीके नायडू टूर्नामेंट में उनका सिलेक्शन भी हो गया था, लेकिन फंड की कमी के चलते वे टूर्नामेंट में हिस्सा नहीं ले पाए और क्रिकेट की दुनिया में छाने का उनका सपना टूट गया, लेकिन इसकी भरपाई उन्होंने अभिनय की दुनिया में आकर कर ली।
एनएसडी छोड़ने के बाद उन्होंने 1988 में सलाम बॉम्बे से फिल्म जगत में कदम रखा। इस फिल्म के जरिये ही उन्होंने बता दिया कि वे काबिल अभिनेता हैं, लेकिन 15 साल तक उन्हें संघर्ष करना पड़ा। फिल्में तो उन्हें मिलती रही, लेकिन जिस कद के वे अभिनेता थे वैसे रोल उन्हें नहीं मिले। जिस पहचान के वे हकदार थे वो उन्हें 2003 में रिलीज हुई मकबूल से उन्हें मिली।
इस फिल्म में नसीरुद्दीन शाह, पंकज कपूर और ओमपुरी जैसे धुरंधर अभिनेता भी थे और इन सभी महारथियों के बीच इरफान ने अपनी छाप छोड़ी। फिल्म देखने के बाद उनका अभिनय और किरदार दर्शकों के दिमाग पर छा जाता है। इसके बाद इरफान ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और सफल निशान छोड़ते चले गए।
वे ओमपुरी और नसीरुद्दीन शाह की श्रेणी के अभिनेता थे। नसीर और ओमपुरी ने तो कला फिल्मों में नाम कमाया, लेकिन कमर्शियल फिल्मों में महत्वहीन रोल निभाए। इरफान को कमर्शियल फिल्मों में भी अच्छे अवसर मिले और इसे उन्होंने खूब भुनाया। ऐश्वर्या राय, दीपिका पादुकोण और करीना कपूर खान जैसी खूबसूरत अभिनेत्रियों के साथ उन्होंने लीड रोल निभाए।
वे ऐसे अभिनेता थे जो हर तरह की फिल्म में फिट हो जाते थे और इस श्रेणी के अभिनेता बॉलीवुड में कम ही मिलते हैं। उन्होंने कला और कमर्शियल का भेद मिटा दिया था।
इरफान खान के अभिनय में एक खास किस्म का जादू था। केवल उनके अभिनय के कारण ही कई फिल्में दर्शकों को अच्छी लगी। इरफान का अभिनय ऐसा होता था कि लोग उनके अभिनय में खो जाते थे और खराब फिल्म को भी पसंद कर लेते थे। वे भेद नहीं कर पाते थे कि उन्हें पसंद क्या आया है।
ये इरफान के अभिनय का ही कमाल है कि कई बार वे अपने अभिनय के बल पर फिल्म का स्तर ऊंचा कर देते थे। स्क्रिप्ट से उठ कर अभिनय करते थे। निर्देशक और लेखक जो बात सोचते नहीं थे उससे बढ़कर वे फिल्म और अपने किरदार को दे देते थे।
पान सिंह तोमर, दृष्टि, हासिल, हिंदी मीडियम, अंग्रेजी मीडियम, लंच बॉक्स, मकबूल, साहेब बीवी और गैंगस्टर, हैदर, पीकू जैसी कई फिल्में हैं जिनमें इरफान ने अपने किरदार को जिया है।
उनका एक विशिष्ट अंदाज रहता था और वे अपने किरदार को इरफानमय कर देते थे। बहुत ही कूल और संयत भरे अंदाज में वे अपने किरदार को जीते थे। विलेन भी बने तो उन्हें चीखने और चिल्लाने की जरूरत नहीं पड़ी। कॉमेडी भी की तो चेहरे को बिगाड़ने की जरूरत नहीं पड़ी। अपने अभिनय से वे हर रंग को निखार दिया करते थे।
उनकी आखिरी फिल्म 'अंग्रेजी मीडियम' उन्होंने बीमारी से संघर्ष करते हुए की, लेकिन कभी भी उनके अभिनय को देख ऐसा लगा कि वे तकलीफ में हैं या अभिनय करना भूल गए हैं। वहीं पुराना इरफान नजर आया तो लगा कि उन्होंने बीमारी से जंग जीत ली है और जल्दी ही वे फिर से कई फिल्मों में अभिनय करते नजर आएंगे। लेकिन ऐसा हो न सका।
ऊपर वाले से इस बात पर झगड़ा किया जा सकता है। आखिर इरफान को बुलाने की उसे इतनी जल्दी क्या थी। अभी तो इरफान के जीवन की दोपहर थी। अभी उनमें बहुत ऊर्जा बाकी थी। भरी दोपहर में ही इरफान नामक सूर्य अस्त हो गया।