feroz khan birth anniversary: पूरी तरह से भारतीय होने के बावजूद अभिनेता-निर्देशक फिरोज खान की जीवनशैली और परदे पर उनका कैरेक्टर हॉलीवुड के काउबॉय स्टाइल का रहा है। फिरोज खान हॉलीवुड अभिनेता क्लिंट ईस्टवुड से इतने अधिक प्रभावित थे कि अपने को बॉलीवुड का ईस्टवुड समझते थे। सत्तर के दशक में उन्होंन काउबॉय स्टाइल की अनेक फिल्मों में काम किया। ऐसी फिल्मों में काला सोना, अपराध, खोटे सिक्के के नाम गिनाए जा सकते हैं।
रफ टफ चेहरा, ऊँचा कद, सिर पर बड़ा-सा टोप, हाथ में सिगार, कंधे पर बंदूक, हाथ में पिस्तौल, कमर में बंधा बुलेट बेल्ट, लांग लेदर शू और जम्प कर घोड़े पर बैठने की उनकी अदा ने दर्शकों को काफी लुभाया था। जब फिरोज हिंदी सिनेमा के लाइम लाइट में आए, तब चिकने-चाकलेटी चेहरों वाले नायकों का दौर था। इसलिए शहरी और ग्रामीण दर्शकों को उनकी ये अदाएँ दिलचस्प लगीं। लंबी कारों में सवारी करना और जेम्स बांड स्टाइल में आगे-पीछे घूमने वाली सुंदर लड़कियों से घिरे रहना उनका शगल था।
अपनी नई एक्टिंग स्टाइल के जरिये फिरोज खान उस समय के अनेक हीरो के आँख की किरकिरी बन गए थे। मसलन रामानंद सागर की फिल्म आरजू के असली हीरो राजेन्द्र कुमार थे, लेकिन छोटे रोल में फिरोज ने सबका ध्यान आकर्षित किया थी। असित सेन की फिल्म सफर में राजेश खन्ना जैसे सितारे की मौजूदगी के बावजूद फिरोज खान ने अपनी उपस्थिति दर्ज की।
पचास के दशक की फिल्में दीदी और जमाना से उन्होंने अपना करियर शुरू किया था। रिपोर्टर राजू (1962) में पहली बार एक पत्रकार के रोल में उन्हें हीरो का चांस मिला था। वैसे उन्होंने एक्टिंग की कोई ट्रेनिंग नहीं ली थी फिर भी कैमरा फेस करना और दर्शकों को लुभाने की कला में वे माहिर रहे। उन्हें लेडी किलर खान भी कहा जाता था। खासकर कुर्बानी फिल्म में उनका और जीनत अमान का बिंदासपन दर्शकों को बेहद आकर्षित कर गया था।
अपने खाने-पीने, मौज-मस्ती करने की आदतों के चलते उन्होंने कई अच्छी फिल्मों के ऑफर ठुकरा दिए। जैसे राजकपूर की फिल्म संगम में राजेन्द्र कुमार और आदमी फिल्म में मनोज कुमार का रोल उनके हाथ से फिसल गया जिसका अफसोस उन्हें लंबे समय तक बना रहा।
बम्बइया फिल्म इंडस्ट्री में भेदभाव के शिकार हुए फिरोज खान ने 1972 से अपना प्रोडक्शन हाउस आरंभ किया और पहली फिल्म अपराध को हॉलीवुड शैली में पेश किया। हाई-वोल्टेज ड्रामा और एक्शन से भरपूर फिल्में धर्मात्मा, कुर्बानी और जाँबाज को दर्शकों ने खूब सराहा। कुर्बानी में नाजिया हसन से उन्होंने गवाया आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आए, तो बात बन जाए। यह गाना नशीली धुन और फिल्मांकन के कारण खूब लोकप्रिय हुआ था।
जाँबाज फिल्म को खास सफलता नहीं मिली। फिरोज का मानना था कि यह समय से आगे की फिल्म है। इस स्टाइलिस्ट फिल्म को टीवी पर खूब देखा गया। इसके बाद दयावान, यलगार, जांनशी और प्रेम अगन फिल्में टिकट खिड़की पर मार खा गईं। फिरोज खान इसके बाद गुमनामी के अँधेरे में चले गए।
अपने तीन और भाइयों संजय, अकबर, समीर में सबसे चमकीले फिरोज खान ही रहे। उनका योगदान पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच पुल जैसा था।
अपने बेटे फरदीन के करियर को चमकाने की उन्होंने कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी। कुछ फिल्मों में फिरोज ने चरित्र रोल भी निभाए, लेकिन 'शेर भले ही बूढ़ा हो जाए, वह घास नहीं खाता' अंदाज में फिरोज ने अपनी आन-बान-शान हमेशा कायम रखी।
25 सितंबर 1939 को जन्मे फिरोज मुंबई में जब मौत से संघर्ष कर रहे थे तब उन्होंने बेंगलुरु जाने की जिद पकड़ ली। वे अपने विशाल फॉर्म हाउस में मौजूद घोड़ों से मिलना चाहते थे। डॉक्टर उनकी जिद के आगे झुके और इजाजत दी। फॉर्म हाउस पर वे घोड़ों से मिले, पार्टी की और 27 अप्रैल 2009 को उन्होंने अंतिम साँस ली।