'राज्य सुखी या साधुमुले-शूरा मी वंदिले' गीत में राज्य या साधुमुले के बाद 'शूरा' का दूसरा अक्षर 'रा' पर विद्युत जैसी चलपता के साथ अबोध कंठ से तान थिरक उठी और भवन में बैठे अपार जन-समुदाय को आहत कर गई। क्षण भर को लगा जैसे कोई तीर सनसनाता हुआ हर व्यक्ति को घायल कर गया। सात-आठ वर्ष की उस नन्हीं लड़की को शायद यह अहसास भी न हो पाया होगा कि उसने क्या कर डाला है। सारा सभा भवन अचरज और आह्लाद से हक्का-बक्का था। बाबालाल तबलिए उसके साथ ठेका यों लगा रहे थे मानो किसी उस्ताद का साथ दे रहे हों और वह बच्ची है कि गीत की अस्थाई गाकर पहले सम पर आते ही संपूर्ण सप्तक लाँघकर लय और स्वर का विकट बोझ संभालती हुई सम पर अचूक आ पहुँचती है। कोल्हापुर के जिस पैलेस थिएटर को अनेक दिग्गज संगीतज्ञों ने अपने स्वरों की वर्षा में भिगोया था, उसमें एक छोटी-सी बालिका अपने अनोखे चमत्कार भरे स्वर में सबको रसविभोर कर देती है। पहली सम पड़ते ही सारा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
इस घटना से पूर्व बंबई के जिन्ना हॉल में नौ वर्ष की उम्र में कुमार गंधर्व ने रंगमंच पर अपने अद्भुत स्वर से इसी तरह श्रोताओं को मुग्ध कर लिया था। बाल गंधर्व, कुमार गंधर्व और लता मंगेशकर तीनों ने विपरीत दिशाएँ पकड़ी और अपनी असमानता के कारण अपनी-अपनी दिशाओं में नक्षत्र की तरह जगमगाते रहे। कुछ तो अपने घराने के बड़प्पन पर ही इठलाते रह जाते हैं। मगर स्वर और लय को ही शिव और पार्वती मान कर कला का विस्तार करने वाले कलाकार मैंने बहुत कम देखे हैं। लता का 'शूरा मी वंदिले' गाए हुए आज कई वर्ष गुजर गए। उस समय तक दीनानाथ द्वारा गाया गया यही गीत लोगों में स्मृति-पटल पर स्पष्ट रूप से मौजूद था। धैर्यधरा की भूमिका में गाए इस गीत की सजीली तान लोगों के कान में बसी हुई थी। इसलिए लता के मुख से 'शूरा मी वंदिले' सुनकर हठात लोगों के मुख से निकल पड़ा 'वाह, हुबहू दीनानाथ!' और उसके बाद उनकी इस दुलारी कन्या ने पिता का ही व्रत आगे बढ़ाने का बीड़ा उठा लिया। मगर इस स्वाभिमानी लड़की ने उनका अनुकरण नहीं किया क्योंकि अनुकरण पिता की प्रवृत्ति भी नहीं थी। पिता ने रंगमंच पर अनूठे ढंग की गायकी प्रस्तुत की थी। दीनानाथराव, दीनानाथराव की तरह ही गाते थे और उनकी तनुजा लता भी बराबर लता की तरह ही गाती रही।
फिल्म में गाए गए तीन साढ़े तीन मिनट के गीतों में भी उच्च खयाल गायक की-सी लयकारी का ज्ञान आवश्यक है। लता के स्वर के कायल सभी हैं किन्तु निश्छल मन से जो व्यक्ति का संगीत का स्वाद ग्रहण करते हैं, उन्हें लता के स्वरों में एक जो अतिरिक्त आकर्षण सम्मोहित करता है, वह है उसके शब्दों के उच्चारण के वक्त गीतों में लयकारी का विलक्षण संतुलन और जानकारी जो उसके स्वरों के समान ही सूक्ष्म होती है। भारी-भरकम लयकारी नहीं वरन बिजली-सी एक कण से दूसरे पर चुपके से उड़कर पहुंच जाने वाली। कुमार, बाल गंधर्व और लता को लयसारी के इसी अलौकिक ज्ञान को वरदान मिला हुआ है।
स्वरों के बर्तुल का मध्य बिन्दु एवं लयकारी में प्रवाहित काल के निमिष निमिषांत का लक्षांश पकड़ लेना लता के कंठ की विशेषता है और यही वजह है कि उसके गीतों में केवल शब्द ही नहीं, व्यंजनयुक्त स्वर भी कितने अधिक अर्थमय लगते हैं। लता का गाया हुआ एक सामान्य-सा लोरी गीत है, 'धीरे से आजा', मगर उसमें भी 'आजा' के बाद जो स्वरों की हल्की-सी फुहार उठती है, वह ऐसे बिन्दु से उठती है कि लगता है कि उसने परातत्व को स्पर्श कर लिया है। ये उठानें बहुत मुश्किल हैं।
कवि माडगुलकर ने अपनी कविता 'जोगिया' में गायिका के कंठ से स्वरों के निकलने का वर्णन किया है- ''स्वर बेल थरथराई खिल गए फूल होठों पर...'' लता का कोई गीत सुनता हूं तो यह पंक्ति अक्सर स्मरण हो आती है। उसके द्वारा गाए गए हर गीत स्वर-बेल पर खिले हुए फूल ही तो हैं। इस तरह के न जाने कितने फूल विगत वर्षों में खिले हैं और न जाने कितने यों ही अपने आप खिल उठे हैं।
चीनी आक्रमण के समय हिमालय के शिखर पर स्थित एक छावनी में एक छोटे तम्बू में देखा हुआ एक दृश्य। लद्दाख की यात्रा के दौरान हम वहां जा पहुंचे थे। वहां की जानलेवा सर्दी से भी अधिक ठिठुराने वाले वहां के भयानक सन्नाटे उन आठ-दस व्यक्तियों की छोटी टुकड़ी का एकमात्र सहारा लता के गीत थे जो ट्रांजिस्टर में आ रहे थे। 'जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी....' लता के कंठ से निकली यह आर्त पुकार देश के बच्चे-बच्चे की आंख भिगो गई थी मगर देश के उस कोने में लता के स्वर में खोए हुए उन जवानों को देखकर मुझे लगा कि इन जवानों की कुर्बानी जितनी अलौकिक है, उतनी ही अलौकिक है लता की आवाज। सारे संसार पर इस आवाज के कितने अहसान है। इंडोनेशिया में रहने वाले वे ग्रामवासी या हिमालय पर रहने वाले जवान, सीधे-साधारण श्रोता है। संगीत-शास्त्र के बारे में वह कुछ नहीं जानते, मगर अल्लादिया खाँ साहब के सुपुत्र खाँ साहब भुर्जी खाँ तो संगीत-शास्त्र के महापंडित हैं। उनसे मिलने भी एक बार जब मैं गया था तब वह लता का रिकॉर्ड लगाए हुए विभोर बैठे थे। एक बार ऐसा ही 'आएगा आने वाला' गीत सुनकर कुमार गंधर्व बोले- 'तानपुरे से निकलने वाला गंधार शुरद्ध रूप में सुनना चाहो तो लता का गीत सुनो।' देहाती जन-समुदाय से लेकर मलबार हिल के बंगलों में रहने वाले संपन्न तबके तक, और स्कूल जाने वाले बच्चों से लेकर जर्जर बूढ़ों तक, सबको अपने गीतों के जादू में बांधने वाली लता-लता ही क्यों यह तो फिल्मी संसार को बड़े सौभाग्य से मिली हुई कल्पलता है।
लता ईश्वर-प्रदत्त एक ऐसा अनोखा कम्प्यूटर है जो संगीत के अनेक सवाल सेकंडों में सुलझा लेता है। जिस कण या मुरकी को कंठ से निकालने में अन्य गायक और गायिकाएं आकाश-पाताल एक कर देते हैं उस कण, मुरकी, तान या लयकारी का सूक्ष्म भेद वह सहज ही करके फेंक देती हैं।
संगीत-निर्देशक नया हो या पुराना, लता एक बार माइक्रोफोन के सामने पहुंची कि स्वरों में और गीतों के बोलों में प्राण फूँक देती हैं और उसके बाद ही उस माहौल से कट कर अलग हो जाती हैं। वर्षों से यह लता बस गाए जा रही हैं।
लता के स्वर द्वारा फतह किया गया, संगीत का यह कितना बड़ा साम्राज्य है। इस साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता। सुबह होती है, घर-घर रेडियो और टीवी बज उठते हैं। कहीं न्यूज आती है युद्ध की, तबाही की, राजनीतिक कुंठाओं की, दुर्घटनाओं की और मन को बार-बार क्षुब्ध कर जाती है। लेकिन तभी अंधकार में उजाले की आहट-सी लता की आवाज कहीं से आकर मन के भीत कहीं बहुत गहरे बैठ जाती है और मन का सारा अंधकार हर लेती है। चाहे जो कुछ भी प्रभाव उसका होता हो, कम से कम उस आवाज के लिए ज्यादा दिन जीवित रहने की ललक मन में जरूर उठती है।
- पु.ल. देशपाण्डे
(पुस्तक सरगम का सफर से साभार)