Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

मोहम्मद रफी तू बहुत याद आया

हमें फॉलो करें मोहम्मद रफी तू बहुत याद आया

हिंदी फिल्मों के महानतम पार्श्व गायकों में शुमार मोहम्मद रफी ने केवल 13 बरस की उम्र में अपने जीवन का पहला स्टेज शो किया और इस बात से बहुत कम लोग वाकिफ होंगे कि मोहम्मद रफी ने अपने समकालीन अभिनेताओं के अलावा बेहतरीन गायक किशोर कुमार के लिए भी पार्श्व गायन किया।

 

मोहम्मद रफी के बारे में एक दिलचस्प वाकया है। 13 साल की उम्र में वे अपने भाई हमीद के साथ उस समय के मशहूर गायक केएल सहगल का एक कार्यक्रम देखने गए। इत्तफाक से कार्यक्रम के दौरान बिजली चली गई और सहगल ने गाने से इनकार कर दिया। ऐसे में रफी ने मंच संभाला और अपनी आवाज का जादू बिखेरा।
 
रफी के बारे में हिंदी फिल्मों के जाने-माने संगीतकार अनु मलिक ने कहा कि शहद से ज्यादा मीठी आवाज वाले मोहम्मद रफी गायकी की दुनिया के एक ऐसे देवपुरुष थे, जिनकी तुलना न आज किसी से हो सकती है और न रहती दुनिया तक किसी से हो पाएगी।
 
मलिक कहते हैं कि मोहम्मद रफी जैसा कलाकार सदियों में कभी एक पैदा होता है। उनका मयार इतना ऊँचा था कि वे अब लोगों के लिए फरिश्ता बन चुके हैं। उनका कहना है कि गंभीर, मस्तीभरा, कव्वाली, भजन, देशभक्ति के गाने हों या दुखभरे नगमे, उनकी आवाज हर अंदाज में ढल जाती थी।
 
‘मन तड़पत हरिदर्शन को’ और ‘ओ दुनिया के रखवाले’ जैसे गीत के बारे में एक कहानी है। ये गाने रफी को ऐसे ही नहीं मिले थे। अपनी मखमली आवाज से इन गीतों को अमर बनाने वाले रफी को निर्व्यसनी होने के कारण ये गीत मिले थे।
 
मशहूर संगीतकार नौशाद अपने अधिकतर गाने तलत महमूद से गवाते थे। एक बार उन्होंने रिकार्डिंग के दौरान महमूद को सिगरेट पीते देख लिया था। इसके बाद वे उनसे चिढ़ गए और अपनी फिल्म ‘बैजू बावरा’ के लिए उन्होंने रफी को साइन किया।
 
रफी के बारे में यह माना जाता था कि वे धर्मपरायण मुसलमान थे। वे सिगरेट, शराब तथा अन्य प्रकार के नशे से दूर ही रहा करते थे। इन गीतों ने मोहम्मद रफी को और प्रसिद्ध बना दिया।
 
रफी की गायिकी ने नौशाद पर ऐसा जादू किया कि वे उनके पसंदीदा गायक बन गए। इसके बाद नौशाद ने लगभग अपने सभी गानों के लिए मोहम्मद रफी को बुलाया।
 
नौशाद शुरू में रफी से कोरस गाने गवाते थे। गायिकी के इस जादूगर ने नौशाद के लिए पहला गीत एआर करदार की फिल्म ‘पहले आप’ (1944 में) के लिए गाया था। इसी समय उन्होंने गाँव की गोरी फिल्म के लिए ‘अजी दिल हो काबू’ गीत गाया था। रफी इसी गीत को हिंदी भाषा में अपना पहला गाना मानते थे।
 
सुरों के बेताज बादशाह को 1960 में ‘चौदहवीं का चाँद’ के लिए पहली बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था। उन्हें 1968 में ‘बाबुल की दुआएँ’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया था।
 
रफी को सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का फिल्मफेयर पुरस्कार छह बार मिला। इसके अलावा उन्हें इस क्षेत्र में दो बार प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिया गया था। 1950 और 1960 के दशक में मोहम्मद रफी कई संगीतकारों के पसंदीदा गायक बन गए थे। इनमें ओपी नैयर, शंकर जयकिशन और सचिनदेव बर्मन मुख्य हैं। एसडी बर्मन ने उस दौर में रफी को देवानंद की आवाज बना दिया था। चाहे ‘दिन ढल जाए’ हो या ‘तेरे-मेरे सपने’ अथवा ‘हर फिक्र को धुएँ में’ इन गीतों को कौन भूल सकता है।
 
ओपी नैयर तो रफी से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने गायक तथा अभिनेता किशोर कुमार की फिल्म ‘रागिनी’ के लिए मोहम्मद रफी से ‘मन मोरा बावरा’ गवाया था। सुरों का पर्याय बन चुका यह महान कलाकार 31 जुलाई को हमें सदा के लिए छोड़कर चला गया। इस गायक के बारे में किसी गीतकार ने ठीक ही लिखा है कि ‘‘न फनकार तुझसा तेरे बाद आया, मोहम्मद रफी तू बहुत याद आया।’’

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

इस वजह से कियारा आडवाणी को सलमान खान ने दी थी नाम बदलने की सलाह