फिल्मकार कमाल अमरोही अपनी पत्नी मीना कुमारी को बेहद चाहते थे और मीना को लेकर एक ऐसी फिल्म बनाने की उनकी ख्वाहिश थी जिसकी चर्चा वर्षों तक होती रहे। 1958 में उन्होंने मीना को लेकर पाकीज़ा फिल्म शुरू की। इसी बीच 1960 में के. आसिफ की भव्य फिल्म मुगल-ए-आजम रिलीज हुई जिसकी खूब चर्चा हुई। फिल्म की भव्यता से लोगों की आंखें चौंधियां गईं। कमाल अमरोही ने भी मुगल-ए-आजम में लेखन का काम भी किया था। उन्होंने सोचा कि पाकीज़ा को भी भव्य पैमाने पर बनाया जाना चाहिए।
अमरोहा में कमाल की भव्य हवेली थी उसके आधार पर पाकीज़ा के सेट बनाए गए। शुरुआत में पाकीज़ा ब्लैक एंड व्हाइट बन रही थी। 1960 के आसपास रंगीन फिल्मों का दौर शुरू हो गया इसलिए पाकीजा को फिर से रंगीन बनाने का काम शुरू किया गया। कमाल अपनी इस फिल्म में इस कदर खो गए कि उन्हें परफेक्शन का भूत सवार हो गया। जरा सी भी कमी होने पर वे फिल्म की शूटिंग नहीं करते थे। सेट पर उन्हें जरा सी भी खरोंच उनके लिए शूटिंग रोक देने का बड़ा कारण होती थी। उस समय सिनेमास्कोप की तकनीक आई तो इसका इस्तेमाल पाकीज़ा में भी किया गया। गुरुदत्त की कागज़ के फूल (1959) और दिलीप कुमार की लीडर (1964) पहली दो भारतीय फिल्म थी जो सिनेमास्कोप तकनीक से बनी थी।
फिल्म को बेहतरीन तरीके से शूट किया जा सके इसके लिए कमाल अमरोही जर्मन सिनेमाटोग्राफर जोसेफ वर्सचिंग को भारत लाए। फिल्म की शूटिंग खास लेंस से की जाए इसके लिए अमरोही मेट्रो-गोल्डन-मेयर (एमजीएम) के कैलिफोर्निया ऑफिस गए। लैंस अत्यंत महंगा था। कमाल ने इसे किराए पर लाने का फैसला किया। तब 50 हजार रुपये प्रतिमाह किराया एमजीएम ने लिया। जब इस लैंस से शूटिंग की गई तो परिणाम से कमाल अमरोही खुश नजर नहीं आए। वे लैंस लेकर एमजीएम गए। वहां जांचने पर पाया गया कि फोकस के मामले में लेंस 1/1000 मिलीमीटर ऑफ था। कमाल अमरोही की आंखों ने ही यह बात पकड़ ली थी जिससे एमजीएम वाले दंग रह गए और उन्होंने कमाल से कोई किराया नहीं लिया।
इन सारी उठापटक के कारण फिल्म का काम अत्यंत ही धीमी गति से चल रहा था, लेकिन कमाल को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। वे तो तल्लीनता के साथ फिल्म को कमाल की बनाने में जुटे हुए थे। 6 साल गुजर गए। 1964 तक फिल्म आधी ही बनी और कमाल के अपनी पत्नी मीना कुमारी से संबंध बेहद खराब हो गए। दोनों का एक-दूसरे को बर्दाश्त करना मुश्किल हो रहा था। कई तरह की बातें और अफवाहें भी फैली, जैसे कि कमाल ने मीना को बेहद परेशान किया। जुल्म की इंतेहा हो गई और मीना सब कुछ सहती चली गई।
कमाल और मीना ने तलाक तो नहीं लिया लेकिन अलग हो गए थे। चार साल बीत गए और पाकीजा का कोई काम नहीं हुआ। इस दौरान मीना कुमारी ने शराब को गले लगा लिया। खूब पीने लगीं। सेहत की बिलकुल परवाह नहीं करती थीं। 1968 के आसपास कमाल को लगा कि पाकीजा को पूरा किया जाना चाहिए। खूब पैसा लग चुका था। मीना कुमारी तक बात पहुंचाई गई, लेकिन उन्होंने विशेष रूचि नहीं दिखाई। मीना कुमारी के नजदीकी दोस्तों में सुनील दत्त और उनकी पत्नी नरगिस का नाम शुमार था। वे मीना और कमाल की उन व्यक्तिगत बातों से भी वाकिफ थे जिनकी जानकारी चंद लोगों को ही थी।
एक बार सुनील दत्त और नरगिस को पाकीजा के कुछ दृश्यों को देखने का मौका मिला। वे मीना की अदाकारी देख दंग रह गए। उनका मानना था कि मीना का यह काम दुनिया के सामने आना चाहिए। यदि यह फिल्म डिब्बा बंद हो गई तो मीना की इस प्रतिभा का किसी को पता नहीं चलेगा। मीना को उन्होंने मनाया। इधर कमाल अमरोही ने भी मीना के सामने रखी कुछ शर्तें वापस ली।
1968 में फिर शूटिंग शुरू हुईं। मुश्किल बात ये थी कि पिछले दस वर्षों में कई कलाकारों की उम्र हावी हो गई थी। इसलिए कलाकारों की अदला-बदली हुई। भूमिकाएं बदल दी गईं। जर्मन सिनेमाटोग्राफर जोसेफ वर्सचिंग 1967 में चल बसे और 1968 में फिल्म की शूटिंग फिर शुरू हुई तो फाली मिस्त्री,, जाल मिस्त्री, वीके मूर्ति, आरडी माथुर जैसे सिनेमाटोग्राफर्स ने काम पूरा किया। कुछ शॉट्स फिर फिल्माए गए। पाकीजा देखते समय मीना कुमारी में भी बदलाव देखने को मिलते हैं, लेकिन उन्हें बदला नहीं जा सकता था।
शूटिंग शुरू हुई तो मीना बेहद बीमार थीं। वे सेट पर बमुश्किल पहुंच पाती थीं। असहनीय दर्द से परेशान थीं। मेकअप करना। भारी-भरकम कॉस्ट्यूम पहनना। संवाद याद करना। तेज रोशनी में कैमरे के सामने अभिनय करना, उनके लिए बहुत ही कठिन था। लेकिन जैसे ही एक्शन बोला जाता अलग ही मीना कुमारी नजर आतीं। वे पूरे जोश से अभिनय करतीं, ऐसा लगता ही नहीं था कि उन्हें कोई दर्द और बीमारी है। निर्देशक के कट बोलते ही वे निढाल हो जातीं। ऐसा लगता उनमें जान ही नहीं है। बहरहाल, मीना ने फिल्म पूरी की और 4 फरवरी 1972 को फिल्म रिलीज हुई।
पाकीजा को कमाल अमरोही ने निर्देशन करने के साथ-साथ लिखा भी था। एक-एक सीन और संवाद पर उन्होंने खूब मेहनत की और निखारा। यह एक तवायफ की कहानी थी। फिल्म में दिखाया गया कि किस तरह कुछ औरतों को पुरुष शासित समाज कोठों की ओर धकेल देता है। उनके नाच-गाने पर रुपया लुटाता है। रंगरेलियां मनाता है, लेकिन उनसे शादी करने की बात आए तो तवायफों को हेय दृष्टि से देखता है। कोई लड़का तवायफ से शादी करने के लिए राजी हो जाए तो उसके परिवार और समाज से तगड़ा विरोध होता है। तवायफों की मुश्किलें और समाज के दोहरे मापदंडों को फिल्म में दर्शाया गया है। राजकुमार और मीना कुमारी की प्रेम कहानी को भी खूबसूरती से गूंथा गया है।
फिल्म में कई दृश्य एक से बढ़कर एक हैं। राजकुमार और मीना कुमारी का ट्रेन वाला रोमांटिक सीक्वेंस जिसमें राजकुमार उस डिब्बे में चले आते हैं जहां मीना कुमारी सोई हुई हैं। मीना के पैर दिखाई दे रहे हैं जिस पर राजकुमार मोहित हो जाते हैं। कागज पर लिखते हैं- आपके पांव देखे, बहुत हसीन है, इन्हें जमीं पर मत उतारिएगा, मैले हो जाएंगे। मीना कुमारी सुबह यह पढ़ कर हैरान रह जाती हैं कि यह किसने लिख दिया।
अंतिम रीलों में राजकुमार की सड़क पर मारपीट होती है। मीना कुमारी के साथ उन्हें थाने भी जाना पड़ता है। राजकुमार के सफेद कपड़ों पर खून लगा है। सिर से खून बह रहा है। थाने से वे मौलवी के पास जाकर निकाह करवाने को कहते हैं। मौलवी रास्ते के कुछ लोगों को इकट्ठा कर निकाह की रस्म अदायगी करवाता है। मीना कुमारी का किरदार कबूल है बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। फिल्म में यह सीक्वेंस गहरा असर छोड़ता है।
कहानी को आगे बढ़ाने में मधुर संगीत का अहम योगदान है। पाकीजा का संगीत गुलाम मोहम्मद ने दिया है। गुलाम मोहम्मद प्रतिभाशाली संगीतकार थे, लेकिन उनके द्वारा संगीतबद्ध फिल्में फ्लॉप रही थीं। फिल्म मिर्जा गालिब का संगीत सुन कर कमाल अमरोही ने गुलाम को पाकीज़ा का संगीतकार बना दिया। 1968 में जब पाकीज़ा की शूटिंग दोबारा शुरू हुई तो गुलाम मोहम्मद का निधन हो गया। लेकिन वे पूरे गाने बना गए थे। उन्होंने 15 गाने बनाए थे जिसमें से फिल्म में ये शामिल किए गए- इन्हीं लोगों ने, थाड़े रहियो, चलते-चलते, मौसम है आशिकाना, चलो दिलदार चलो, तीर-ए-नजर, ये धुआं सा।
कमाल अमरोही के शुभचिंतकों ने कहा कि गुलाम मोहम्मद ने यह संगीत बहुत पहले तैयार किया था, अब ज़माना बदल रहा है इसलिए गीतों को नए संगीतकार से तैयार करवाना चाहिए, लेकिन अड़ियल कमाल इसके लिए राजी नहीं हुए। बचे हुए गानों और बैकग्राउंड म्यूजिक के लिए उन्होंने नौशाद को तैयार किया। फिल्म का संगीत कमाल का हिट हुआ। उस दौर में आरडी बर्मन और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जैसे युवा संगीतकार धूम मचाए हुए थे, लेकिन पाकीज़ा की रिकॉर्ड्स की खूब बिकी और आज भी फिल्म के गीत सुने जाते हैं। इन गीतों को कैफी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ भोपाली ने शब्दों में पिरोया है। लता मंगेशकर, परवीन सुल्ताना, वाणी जयराम, राजकुमारी, शमशाद बेगम, मोहम्मद रफी, सुमन कल्याणपुर जैसे गायकों ने स्वर दिए हैं। नौ गाने फिल्म में उपयोग में नहीं लाए गए जिन्हें 1977 में रिलीज किया गया।
पाकीज़ा के गानों का फिल्मांकन बहुत ही मेहनत से किया गया है। कुछ गानों के फिल्मांकन में जो सेट बनाए गए उन्हें तैयार करने में डेढ़ साल से अधिक का समय लगा। ज्यादातर गानों में मीना कुमारी ने नृत्य किए हैं, लेकिन जब वे बीमार थीं तो लांग शॉट्स में उनकी जगह अभिनेत्री पद्मा खन्ना ने बॉडी डबल के रूप में नृत्य किए। चलो दिलदार चलो गाने का फिल्मांकन भी यादगार रहा।
धर्मेन्द्र को कुछ दिनों की शूटिंग के बाद फिल्म से कर दिया था बाहर
फिल्म में हीरो का रोल कमाल अमरोही खुद निभाना चाहते थे, लेकिन बहुत जल्दी समझ गए कि एक्टिंग और डायरेक्शन साथ-साथ करना मुश्किल है इसलिए हीरो बनने की जिद छोड़ दी। इसके बाद प्रदीप कुमार, अशोक कुमार, राजकुमार, सुनील दत्त, धर्मेन्द्र और राजेन्द्र कुमार के नाम पर विचार कर धर्मेन्द्र को चुन लिया। जब शूटिंग शुरू हुई तो कमाल अमरोही को लगा कि धर्मेन्द्र की ओर मीना कुमारी आकर्षित हो रही है। यह बात उन्हें हजम नहीं हुई और धर्मेन्द्र को हटाकर राजकुमार को चुन लिया गया। राजकुमार थोड़ी झिझक के साथ यह रोल करने के लिए राजी हुए। अशोककुमार को दूसरे रोल के लिए फिल्म से जोड़ा गया। इसी तरह कैरेक्टर रोल्स के लिए भी कई फेरबदल फिल्म में हुए।
शुरुआत में नहीं चली फिल्म
4 फरवरी 1972 को मुंबई में मराठा मंदिर में फिल्म का प्रीमियर हुआ। बीमार होने के बावजूद मीना कुमारी इसमें शामिल हुईं। प्रीमियर में क्रिटिक्स भी शामिल थे और उन्हें यह फिल्म खास पसंद नहीं आई। फिल्म की बॉक्स ऑफिस पर भी शुरुआत अच्छी नहीं थी। फिल्म को बनने में 14 साल का वक्त लगा इसलिए यह बात फिल्म के खिलाफ गई। मीना कुमारी की उम्र भी 40 वर्ष हो गई थी और उस समय तक वे कमर्शियल सिनेमा से बाहर हो चुकी थीं। दो सप्ताह तक फिल्म खास प्रदर्शन नहीं कर पाई, लेकिन बाद में चल निकली। फिल्म रिलीज होने के 56 दिनों बाद मीना कुमारी की मृत्यु हो गई। धीरे-धीरे पाकीज़ा भारत के अन्य शहरों में रिलीज हुई और 1972 की सबसे बड़ी हिट साबित हुई। कई शहरों में 50 सप्ताह तक चली। बाद में इस फिल्म को क्लासिक और कल्ट का दर्जा मिला और काफी सराहा गया।