प्रचार-प्रसार के माध्यम की शक्ति की परिचायक हैं, सितारा जीनत अमान। अत्यंत साधारण चेहरा, जिसे स्वयं जीनत ने एक बार असुंदर कहा है, और अभिनय प्रतिभा के अभाव के बावजूद अत्यंत सफल सितारा जीनत भारतीय सिनेमा का अजूबा है। चेहरा नहीं, प्रतिभा नहीं और भाषा भी नहीं आने के बावजूद वर्षों तक उद्योग पर छाए रहने को अजूबा ही कहना चाहिए।
सौंदर्य प्रतियोगिता तथा पाश्चात्य व्यावसायिक चतुराई का एक ज्वलंत उदाहरण है। धनाढ्य वर्ग के मनोरंजन के लिए युवतियां नाप-तौल के अजीब मापदंड पर परखी जाती हैं। इस तमाशे के अंत में विजयी कन्या विज्ञापन करती है- फैशन की चीजों का। दूर दराज के छोटे शहरों और कस्बों में लड़कियां सौंदर्य प्रसाधन की वस्तुएं खरीदती हैं। प्रसाधनों से उत्पन्न सौंदर्य की मृग मरीचिका से कई लोग ठगे जाते हैं। जीनत अमान इसी सौंदर्य के संसार से फिल्मों में आईं। सौंदर्य प्रसाधनों की विजय का प्रतीक हैं जीनत अमान।
देवआनंद ने 'हरे रामा हरे कृष्णा' में जीनत को हशीश का शिकार युवती के रूप में प्रस्तुत किया। जीनत का भाग्य इतना बलवान कि आरडी बर्मन की नशीली धुन 'दम मारो दम' गाती हुई जीनत ने तुरंत लोकप्रियता पा ली। उन्हीं दिनों 'इन्स्टेंट कॉफी' के प्रचलन से इन्स्टेंट (तुरंत) वस्तुओं की नई संस्कृति उभरी थी और जीनत अमान इसी संस्कृति की विजय पताका बनकर फिल्मों में आई थी। सुलोचना, वनमाला, सुरैया, मीना, नरगिस और मधुबाला जैसी अनन्य सुंदरियों के स्थान पर जीनत ने पैर जमाए, इंच-टेप के फीतों से नपे तुले पैर। अंतरराष्ट्रीय मानदंड पर खरे उतरते पैर।
'दम मारो दम' के साथ जीनत एक नशा बन कर फिल्मों में छा गईं। पैकिंग और रैपर का कमाल यह हुआ कि नकल को असल दिखाने वाले उद्योग को अपनी टक्कर की चीज मिल गई। जीनत की फिल्मों की सफलता के दौर में लगा मानो फिल्म उद्योग और जीनत एक दूसरे के लिए ही बने थे। इन नए भ्रम की सबसे बड़ी सफलता यह है कि राजकपूर जैसा निष्णात फिल्मकार भी इसका शिकार हुआ और प्रतिभा के 'धधकते ज्वालामुखी' के मुहाने पर जा बैठा।
जीनत अमान की सबसे बड़ी सफलता यह है स्वयं उसे अपनी छवि ने कभी नहीं भरमाया। धीरे-धीरे उसने भाषा की कठिनाई काफी हद तक दूर कर दी और अभिनय का प्रयास भी किया। 'प्यास', 'इंसाफ का तराजू' और 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' के गंभीर प्रयास भी छवि को नहीं तोड़ पाए। जीनत ने भारतीय नायिका की एक नई छवि गढ़ी थी जिसकी प्रेरणा का मूल बेगम पारा में पाया जा सकता है। समाज के मूल्य इतने बदल चुके थे कि पांचवे दशक की वैम्प सातवें-आठवें दशक में नायिका बन गई।
काले धन के साथ ही रंगीन चमकीली पत्रिकाओं ने भारतीय समाज में गजब ढाना शुरू किया। इन पत्रिकाओं को स्कैंडल और विवाद की निरंतर खुराक चाहिए थी और जीनत ने उन्हें भरपूर मसाला दिया। पहली बार लोकप्रियता परदे पर किए गए अभिनय से नहीं वरन इन पत्रिकाओं में उठे स्कैंडल से मिली। वासना भड़काने वाली भूमिकाएं आईना थीं उस समाज की जो 'परमिसिवनेस' की नई लहर स्वागत कर रहा था। इस तरह जीनत अपने जमाने के मूल्यों का भी प्रतीक बन गई।
'इंसाफ का तराजू' बलात्कार के खिलाफ सशक्त फिल्म थी और जीनत के साहस तथा अभिनय की प्रशंसा भी खूब हुई। फिल्म में बलात्कार का एक कारण जिस दिखावे की संस्कृति को बताया गया था जीनत उसी का प्रतीक थी।
सातवें दशक के दर्शकों में एक प्यास थी जो इन्स्टेंट और व्यावसायिक संस्कृति ने पैदा की थी। जीनत अमान ने ऐसी भूमिकाएं अभिनीत कीं जो इस प्यास को बुझाने की कोशिश करती थी। जीनत की छवि इसी प्यास से पैदा हुई और इसी प्यास को संतुष्ट करने का प्रयास है। 'दम मारो दम' इस प्यास का प्रतिनिधि गीत है। 'आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आए' (कुरबानी) इस धुंध के फैलने की हद है।
जीनत अमान अपनी शक्ति और कमजोरियों से पूरी तरह परिचित थीं। यह उसकी बुद्धिमत्ता थी कि उसने अपनी कमजोरियों को भी ताकत बना लिया। उसने इस तरह की भूमिकाएं ली कि उसकी भाषा में आंग्ल ध्वनि उन चरित्रों के साथ बहुत जमती थी। जीनत पहली अभिनेत्री थी जिसने अपने पूरे शरीर का प्रयोग अभिनय के लिए किया। जीनत जब पर्दे पर आती तो दर्शक उसके चेहरे के बदले उसकी पोशाक और फिगर को देखते थे।
'धरमवीर' में वह घमंडी राजकुमारी बनी थी। 'आन' में जो रोल नादिरा ने किया था, 'धरमवीर' में जीनत ने किया। नादिरा और जीनत में बहुत समानता है- अंतर है तो केवल युग का। नादिरा, मधुबाला, नरगिस के युग में थी- इस लिए उसे खलनायिका (श्री 420) या सहनायिका बनना पड़ा। जीनत भाग्यवान थीं। उसका शरीर उस की बड़ी पूंजी थी। सौंदर्य-प्रसाधन के प्रयोग में वह निष्णात थी। अभिनय के प्रति उसका दृष्टिकोण पेशेवर था। दर्शको को नशा चाहिए था और जीनत ने उन्हें निराश नहीं किया।
- उषा चौकसे
(परदे की परियां से साभार)