चेहरे फिल्म समीक्षा: 90 के दशक में कई कॉमेडी फिल्म लिखने वाले रूमी जाफरी अब बतौर निर्देशक थ्रिलर मूवी 'चेहरे' लेकर आए हैं जिसमें अमिताभ बच्चन, धृतिमान चटर्जी, इमरान हाशमी, अन्नू कपूर और रघुवीर यादव जैसे कलाकार हैं। यह फिल्म रंजीत कपूर के नाटक पर आधारित है जिसकी प्रेरणा 'डेडली गेम्स' नामक नाटक से ली गई है। कहानी थोड़ी हटकर है और थ्रिलर होने के बावजूद एक्शन कम और ड्रामा ज्यादा है।
समीर मेहरा (इमरान हाशमी) बर्फीले तूफान में घिर जाता है और आगे जाने का रास्ता बंद हो जाता है। ऐसे समय वह जगदीश आचार्य (धृतिमान चटर्जी) के घर में शरण लेता है जहां जगदीश के दोस्त लतीफ ज़ैदी (अमिताभ बच्चन), भुल्लर (अन्नू कपूर), हरिया (रघुवीर यादव) और एनी (रिया चक्रवर्ती) से उसकी मुलाकात होती है। एनी घर की देखभाल करती है। जगदीश और उनके दोस्तों में कोई जज तो कोई वकील है जो अब सब रिटायर हो चुके हैं।
शाम को रोचक बनाने के लिए समीर के साथ एक खेल खेला जाता है। उस पर एक आरोप लगाया जाता है। समीर की ओर से भुल्लर केस लड़ता है जबकि लतीफ उसके खिलाफ लड़ता है। खेल-खेल में खेला गया यह खेल समीर के लिए मुसीबत बन जाता है। उसे सनकी लगने वाले ये बूढ़े बेहद खतरनाक और तेज-तर्रार नजर आते हैं।
फिल्म को रंजीत कपूर और रूमी जाफरी ने मिलकर लिखा है। प्लॉट उम्दा है और कहानी पढ़ने में अच्छी लगती है, लेकिन इसमें बारीकियों पर ध्यान नहीं दिया गया है। जबकि थ्रिलर लिखने में कोई कमी नहीं छोड़नी चाहिए। दिल्ली से 200 किलोमीटर दूर की कोई जगह बताई गई है जहां बर्फीला तूफान आया हुआ है, लेकिन ये पोलैण्ड का कोई गांव नजर आता है। बर्फ गिर रही है, लेकिन बिजली की गड़गड़ाहट और चमक को भी खूब दिखाया गया है, जैसा कि एकता कपूर के सीरियल में हम देखते हैं।
कहानी की कमियों की ज्यादा चर्चा इसलिए नहीं की जा सकती क्योंकि इससे फिल्म देखने का मजा किरकिरा हो सकता है, लेकिन जो कमियां हिंदी थ्रिलर फिल्मों में वर्षों से चली आ रही हैं वो यहां भी नजर आती है। जैसे, किसी को कोई राज की बात करना हो तो यह काम दरवाजे-खिड़की खोल कर करता है ताकि कोई भी देख या सुन ले!
कहानी उपदेशात्मक सी लगती है, जैसे कोई जोर-जबरदस्ती चीजें आप पर थोप रहा हो। कानून और इंसाफ की लंबी चौड़ी बातें तो हैं ही, साथ में आतंकवाद, गैंग रेप, एसिड अटैक्स, आतंकवाद भी जोड़ दिए गए हैं जिनकी कोई जगह फिल्म की कहानी में बनती नहीं है। फिल्म में कुछ किरदार ऐसे भी हैं जो बेमलतब शक पैदा करने के लिए रखे जाते हैं। सिद्धांत कपूर वाला किरदार यहां वैसा ही है।
फिल्म की शुरुआत अच्छी है और कमियों के बावजूद बांधकर रखती है, लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है मजा कम होता जाता है। फिल्म में ढेर सारी बातचीत है। कुछ सीन में यह उम्दा संवादों के कारण अच्छी लगती है, लेकिन कुछ इतनी बोरियत से भरी है कि झपकी लग जाती है। फिल्म के अंत में अमिताभ बच्चन का लंबा मोनोलॉग भी है, जो 'पिंक' की याद दिलाता है, लेकिन उसके जैसी बात इसमें नहीं है।
लेखक अच्छे आइडिए को उम्दा फिल्म में परिवर्तित नहीं कर पाए। रूमी जाफरी बतौर निर्देशक प्रभावित नहीं कर पाते, उनके अंदर का लेखक, निर्देशक पर भारी पड़ा है। ऐसा लगता है कि उन्होंने किसी स्टेज पर चल रहे नाटक को फिल्मा दिया हो।
अमिताभ बच्चन जैसे काबिल एक्टर के लिए ऐसे रोल निभाना बाएं हाथ का खेल है। यह फिल्म उनकी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं कर पाती। उनकी लाजवाब डायलॉग डिलेवरी के कारण कुछ संवाद सुनने में मजा जरूर आता है। धृतिमान चटर्जी और अन्नू कपूर भी उम्दा कलाकार हैं, लेकिन उन्हें ज्यादा अवसर नहीं मिले। रघुवीर यादव को अजीब सी विग पहना दी गई और क्या जल्लाद हमेशा इस तरह से रहस्यमयी बातें करता है? इन काबिल एक्टर्स के बीच इमरान हाशमी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। फास्ट लेन में जीने वाले महत्वाकांक्षी नौजवान का रोल उन्होंने अच्छे से निभाया है। रिया चक्रवर्ती और एक्टिंग में 36 का आंकड़ा नजर आया।
फिल्म के कुछ संवाद बेहतरीन है। सिनेमाटोग्राफी अच्छी है। गाने कम हैं और रूकावट पैदा नहीं करते। बैकग्राउंड म्यूजिक औसत है। कुल मिलाकर इस 'चेहरे' में वो बात नहीं जिसे देख दिल खुश हो जाए।
निर्माता: आनंद पंडित मोशन पिक्चर्स, सरस्वती एंटरटेनमेंट प्रा.लि.
निर्देशक : रूमी जाफरी
संगीत : गौरव दासगुप्ता
कलाकार : अमिताभ बच्चन, इमरान हाशमी, धृतिमान चटर्जी, अन्नू कपूर, रिया चक्रवर्ती, रघुवीर यादव, क्रिस्टर डिसूजा, सिद्धांत कपूर
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 18 मिनट 30 सेकंड
रेटिंग : 2/5