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ग्रेट ग्रैंड मस्ती : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

किसी भी फिल्म को देखते समय यदि घड़ी पर निगाह जाए तो यह लक्षण फिल्म के लिए अच्छा नहीं रहता। इंद्र कुमार द्वारा निर्देशित फिल्म 'ग्रेट ग्रैंड मस्ती' देखते समय तो लगता है कि घड़ी बंद ही हो गई है। मस्ती तो दूर फिल्म देखते समय सुस्ती छा जाती है और दो घंटे कैद से कम नहीं लगते। 
 
यह इस सीरिज की तीसरी फिल्म है। पहली फिल्म 'मस्ती' सही मायनो में एडल्ट मूवी थी। दूसरा भाग बहुत ज्यादा वल्गर था और एडल्ट कॉमेडी के नाम पर कचरा दिखाया गया था। ग्रेट ग्रैंड मस्ती में कॉमेडी के साथ हॉरर जोड़ दिया गया है और यह दर्शकों के साथ ट्रेजेडी है। 
 
फिल्म में वही तीन किरदार हैं,  अमर (रितेश देशमुख), प्रेम (आफताब शिवदासानी) और मीत (विवेक ओबेरॉय)। सेक्स लाइफ से अंसतुष्ट हैं। अमर की बीवी हाथ नहीं लगाने देती। प्रेम की साली और मीत का साला कबाब में हड्डी है। परेशान होकर ये दूधवाडी गांव जाने का फैसला करते हैं जहां पर अमर की पुरानी हवेली है। उस भू‍तिया हवेली कहा जाता है और अमर उसे बेचना चाहता है। 
 
हवेली में तीनों दोस्तों की मुलाकात शबरी (उर्वशी रौटेला) से होती जो बेहद खूबसूरत और सेक्सी है। शबरी को देख अमर, प्रेम और मीत की लार टपकने लगती है। तीनों के यह जान कर होश उड़ गए कि शबरी एक चुड़ैल है। तीनों में से किसी एक के साथ संबंध बना कर वह मुक्ति चाहती है। साथ ही वह जिसके साथ संबंध बनाएगी उसकी मृत्यु हो जाएगी। किस तरह से चुड़ैल के चंगुल से ये मनचले मुक्त होते हैं यह फिल्म का सार है। 
कहानी पढ़कर आप जान ही गए होंगे कि कितनी बेतुकी और बेसिर-पैर कहानी है। लिखने वाले का नाम भी जान लीजिए- तुषार हीरनंदानी। दर्शकों को बेवकूफ समझ कर यह कहानी उन्होंने लिख डाली। दूसरा आश्चर्य यह है कि निर्देशक इंद्र कुमार इस पर फिल्म बनाने को तैयार हो गए और निर्माता पैसा लगाने को। द अनुपम खेर शो की बात याद आ गई- कुछ भी हो सकता है। 
 
मधुर शर्मा और अभिषेक कौशिक ने ऐसा स्क्रीनप्ले लिखा है कि लॉजिक तो छोड़िए जरा सा भी दिमाग नहीं लगाया गया। घटिया चुटकलों से कहानी को आगे बढ़ाया गया है। इससे बेहतर चुटकुले तो व्हाट्स एप पर पढ़ने को मिल जाते हैं। हर किरदार बेवकूफ है और बेवकूफी करता रहता है। इसे ही हास्य समझ लिया गया है। थोड़े समय बाद ही यह कहानी हांफने लगती है और किसी तरह आगे बढ़ा कर करवा चौथ जैसी परंपरा का तड़का लगा कर इसे खत्म किया गया है। 
 
दो कौड़ी की कहानी और स्क्रीनप्ले पर इंद्र कुमार ने बकवास फिल्म बना डाली है। अपने निर्देशन के जरिये वे फिल्म को मनोरंजक नहीं बना पाए। एक हवेली में ही उन्होंने फिल्म को पूरा कर डाला। ऐसा लगा मानो 'सुपर नानी' के पिटने का बदला वे दर्शकों से गिन-गिन कर ले रहे हों। 
 
सारे कलाकारों ने घटिया अभिनय किया है। विवेक ओबेरॉय मिसफिट लगे। उनका अभिनय देख लगा कि उन्हें खुद अपने रोल पर यकीन नहीं है। द्विअर्थी संवादों और हरकतों वाली फिल्मों में सदैव रितेश देशमुख की डिमांड रहती है। यहां भी उन्होंने जानी-पहचानी हरकतें अभिनय के नाम पर की है। आफताब शिवदासानी की गाड़ी इसी तरह की फिल्मों के जरिये चल रही है। एक्टिंग करना तो वे कब के भूल गए। उर्वशी रौटेला हॉट लगी हैं, लेकिन एक्टिंग से उनका दूर-दूर तक नाता नहीं है। अन्य कलाकार चीखते-चिल्लाते नजर आए। 
 
गीतों के नाम पर शोर है। तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर है। निर्माता ने जहां-तहां से पैसे बचाए हैं। 
 
फिल्म का एक पात्र बोलता रहता है कि ये क्या 'भूतियापा' है... फिल्म देखने के बाद दर्शकों के मुंह से भी इससे मिलता-जुलता शब्द निकलता है। 
 
बैनर : मारूति इंटरनेशनल, एएलटी एंटरटेनमेंट, श्री अधिकारी ब्रदर्स
निर्माता : समीर नायर, अमन गिल, अशोक ठाकेरिया, आनंद पंडित, एकता कपूर, शोभा कपूर 
निर्देशक : इन्द्र कुमार
संगीत : शरीब साबरी, तोषी साबरी
कलाकार : विवेक ओबेरॉय, रितेश देशमुख, आफताब शिवदासानी, उर्वशी रौटेला, पूजा बैनर्जी
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 7 मिनट 18 सेकंड
रेटिंग : 0.5/5 


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